सारे जहां में जिसका है नाम, सर ज़मीनों हिंदोस्तान, रोशन है जिससे ये आसमान, ऐसे थे बिस्मिल अशफ़ा के राम॥ शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन पर अंकित लेखक (अमित त्यागी) की ये पंक्तियाँ शाहजहाँपुर आने वाले सैलानियों का स्वागत एवं एवं काकोरी कांड के नायकों को श्रद्धांजलि अर्पित करती हैं। वास्तव में काकोरी कांड सिर्फ खज़ाना लूटने की घटना मात्र नहीं थी। वह बड़ा जिगर रखने वाले क्रांतिकारियों द्वारा अँग्रेजी सत्ता को सीधी चुनौती थी। भारत के स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड का एतेहासिक महत्व है। असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद देश में हताशा का माहौल था। युवा चाहते थे कि अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ सक्रियता दिखाई जाये। ऐसे समय में राम प्रसाद बिस्मिल ने एक क्रांतिकारी संगठन का गठन किया जिसका नाम हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संगठन रखा। गया। चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफाक़ उल्लाह खान, राजेंद्र लाहीड़ी, रोशन सिंह, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्र नाथ सनयाल जैसे क्रांतिकारी इसके साथ जुड़े। गांधी जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस उस समय तक पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग के विचार से दूर थी। इन क्रांतिकारियों ने अपने संगठन के संविधान में ‘स्वतंत्र भारत में प्रजातन्त्र की अवधारणा’ का स्पष्ट विचार प्रस्तुत करके अंग्रेजों को खुली चुनौती दे दी।
अपने क्रांतिकारी कार्यों को अंजाम देने के लिए इनको धन की आवश्यकता हुयी। इस धन को एकत्रित करने के लिये भी इन्होने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। इन क्रांतिकारियों ने सत्ता को खुली चुनौती देते हुये ट्रेन में जा रहे सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनाई। योजनाबद्ध तरीके से 19 अगस्त 1925 को काकोरी और आलमनगर(लखनऊ) के मध्य ट्रेन को रोका गया और 10 मिनट मे ही पूरा खज़ाना लूट लिया गया। ट्रेन मे 14 व्यक्ति ऐसे थे जिनके पास हथियार मौजूद थे किन्तु न ही सवारियों और न ही हथियारबंद लोगों ने कोई प्रतिरोध किया। लूटे गए धन से दल के लोगों ने संगठन का पुराना कर्ज़ निपटा दिया। हथियारों की खरीद के लिए 1000 रुपये भेज दिये गए। बम आदि बनाने का प्रबंध कर लिया गया। इस कांड ने सरकार की नाक मे दम कर दिया। इनके हौसले की पराकाष्ठा फांसी के बाद के संस्मरण में देखने को मिलती है। रोशन सिंह को जैसे ही ज्ञात हुआ कि बिस्मिल के साथ उन्हे भी फाँसी हुई है वो खुशी से उछल पड़े और चिल्लाये । “ओ जज के बच्चे, देख बिस्मिल के साथ मुझे भी फाँसी हुई है। और फिर बिस्मिल से बोले कि पंडित जी अकेले ही जाना चाहते हो, ये ठाकुर पीछा छोडने वाला नहीं है। हर जगह तुम्हारे साथ रहेगा।” ऐसे अनेक संस्मरण हैं जिससे ज्ञात होता है कि देशप्रेम इन क्रांतिकारियों में कितना कूट कूट कर भरा था।
इसके साथ ही स्वाधीनता संग्राम के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले क्रांतिकारियों की जीवन गाथा का अध्ययन करने से ऐसे ऐसे रोचक परिदृश्य उभरते हैं जो भारत की गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण देते हैं। क्रांतिकारियों द्वारा सिर्फ अपना जीवन मातृभूमि के लिए अर्पण करना महत्वपूर्ण नहीं है। उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है उनकी सोच एवं आचरण, जिसके द्वारा उन्होने वह मापदंड स्थापित किये जिसको सुनकर किसी भी भारतवासी को अपनी जन्मभूमि पर गर्व हो सकता है।
काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़ उल्लाह खान एवं ठाकुर रोशन सिंह उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर ज़िले के निवासी थे। बिस्मिल सबमे वरिष्ठ थे। राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा में उनके विचारों को पढ़कर उनके एवं क्रांतिकारियों साथियों के वृहद ज्ञान का आभास होता है। “जैसे तुर्की और रूस की क्रान्ति में जिस तरह असंख्य वीरों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी है, इसी प्रकार का संघर्ष भारत में भी चल रहा है और उनके बाद भी चलता रहेगा। क्रांति के लिए मजबूत संगठन की आवश्यकता होती है। संगठित होने के लिए शिक्षित होना एवं अधिकारों का ज्ञान आवश्यक है।” राम प्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्य समाजी थे। उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर ज़िले का आर्य समाज मंदिर उनकी बौद्धिक कर्मभूमि था। दूसरी तरफ अशफाक़ उल्लाह खान इस्लाम को दिल से मानने वाले पक्के मुसलमान थे। अशफाक़ उल्ला, बिस्मिल के साथ आर्य समाज मंदिर जाते थे और बिस्मिल को पूरे जीवन उन्होने ‘राम भैया’ ही कहा। बिस्मिल भी अशफाक़ को अपना छोटा भाई मानते थे। शहीदों की नगरी के नाम से मशहूर आपकी जन्मभूमि शाहजहाँपुर के वातावरण और आबोहवा में आपकी दोस्ती आज भी ज़िंदा है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल है कि शाहजहाँपुर में कभी हिन्दू-मुस्लिम के बीच दंगा नहीं हुआ। जब भी कभी कोई असामाजिक तत्व उत्तेजना का माहौल पैदा करता है तो यहाँ की आवाम अशफाक़-बिस्मिल के हवाले से हिन्दू-मुस्लिम टकराव को रोक लेती है। अमन पसंद माहौल बन जाता है।
काकोरी कांड सिर्फ एक ट्रेन डकैती नहीं थी। वह भारत निर्माण का ध्येय रखने वाले उस समय के भारतीय नौजवानो की सशस्त्र क्रान्ति थी। भारत को अंग्रेजों से नहीं अंग्रेज़ियत से मुक्ति दिलाना क्रांतिकारियों का उद्देश्य था। वह सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल नहीं था बल्कि अँग्रेजी सभ्यता द्वता पुष्पित-पल्लवित की जा रही व्यवस्था के खिलाफ एक आवाज़ थी। आज सत्ता को हस्तांतरित हुये सात दशक से ज़्यादा हो चुके हैं। क्या अभी तक हम महानायकों के सपनों का भारत निर्माण कर पाये हैं यह प्रश्न हमें सरकार से नहीं स्वयं से पूछना है ? क्योंकि जो काम पहले गोरे अंग्रेज़ करते थे वह काम आज काले अंग्रेज़ कर रहे हैं ?
- अमित त्यागी (शाहजहाँपुर निवासी लेखक विधि विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। )