हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा के लिए यों तो अनेक वीरों एवं महान् आत्माओं ने अपने प्राण अर्पण किये हैं; पर उनमें भी सिख गुरुओं के बलिदान जैसा उदाहरण मिलना कठिन है। पाँचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने जिस प्रकार आत्मार्पण किया, उससे हिन्दू समाज में अतीव जागृति का संचार हुआ।
गुरु श्री अर्जुनदेव जी विक्रमी सम्वत् 1638 को गुरु गद्दी सौंप गई । सिख धर्म के पांचवें गुरु अर्जुन देव के काल में अमृतसर शहर सिखों के धार्मिक केंद्रबिंदु के रूप में उभर रहा था. बड़ी संख्या में सिख बैसाखी के पवित्र उत्सव पर वहां उपस्थित होते थे. गुरुजी ने एक और अभिनव परंपरा का सृजन किया था. इसमें प्रत्येक सिख अपनी कमाई का दसवां हिस्सा (जिसे ‘दसबंद’ कहा जाता था) गुरुजी के राजकोष में जमा करवाता था. इस राशि का उपयोग धर्म एवं समाज के उत्थान के विभिन्न कार्यो में किया जाता था.
इस बीच, धीरे-धीरे सिखों ने गुरु अर्जुन देव को ‘सच्च पातशाह (बादशाह)’ कह कर संबोधित करना आरंभ कर दिया था. सिख अनुयायियों की संख्या दिन दूना, रात चौगुनी बढ़ने लगी थी. इसलिए उनसे समाज में रूढ़िवादी व कट्टर मुस्लिम समुदाय के लोग ईष्र्या करने लगे थे. बादशाह जहांगीर भी गुरु अर्जुन देव के सिख धर्म के प्रचार-प्रसार से डर गया था. उसने गुरु के विरोधियों की बातों में आकर उनके विरुद्ध सख्त रुख अपनाने का मन बना लिया था. जहांगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन देव को गिरफ्तार कर लाहौर शहर लाया गया तथा वहां के राज्यपाल को गुरु को मृत्युदंड सुनाने का फ़रमान दे दिया गया.
इसके साथ ही अमानवीय यातनाओं का अंतहीन दौर चल पड़ा. लाहौर के वज़ीर ने गुरु अर्जुन देव को एक रूढ़िवादी सोच के व्यवसायी को सुपुर्द कर दिया. कहा जाता है कि उसने गुरुजी को तीन दिनों तक ऐसी-ऐसी शारीरिक यातनाएं दीं, जो ना तो शब्दों में बयां की जा सकती हैं, ना ही वैसी कोई मिसाल इतिहास में ढूंढ़े मिलेगी. यातनाओं के दौरान गुरु अर्जुन देव को लोहे के धधकते हुए गर्म तवे पर बैठाया गया. इतने पर भी जब चंदू का मन नहीं भरा, तो उसने गुरुजी के सिर व नग्न शरीर पर गर्म रेत डलवायी. गुरुजी के सारे शरीर पर छाले व फफोले निकल आये.
ऐसी दर्दनाक अवस्था में ही गुरुजी को लोहे की ज़ंजीरों में बांधकर 30 मई सन 1606 ईस्वी में रावी नदी में फेंकवा दिया गया. इस प्रकार बलिदानियों के शिरोमणि गुरु अर्जुनदेव जी का बलिदान 30 मई, 1606 को हुआ।
Source : sikhiwiki.org