महाराष्ट्र में दो दिवसीय समरसता साहित्य सम्मेलन संपन्न
पुणे (व्हिएसके) 10.12.2017:
समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर समरसतापूर्ण जीवन, सबके प्रति आत्मीयता रखने वाला जीवन समाज में फिर से दिखाई दे, इस उद्देश्य के साथ सामाजिक समरसता मंच पिछले तीन दशकों से कार्यरत है। इसी दिशा में प्रयास के रूप में समरसता साहित्य परिषद की ओर से समाज के वंचित घटकों पर लेखन करनेवाले व्यक्ति तथा कार्यकर्ताओं का सम्मेलन सन् 1998 से आयोजित किया जाता रहा है।
इस वर्ष का सम्मेलन महाराष्ट्र के नगर शहर में स्व. भीमराव गस्ती साहित्यनगरी (राणीवकर पाठशाला) में हाल ही में संपन्न हुआ। यह साहित्य सम्मेलन का 18वां आयोजन था और ‘घुमंतु लोगों का साहित्य और समरसता’ इस विषय पर यहां विचार विमर्श किया गया।
इस दो दिवसीय सम्मेलन में संगोष्ठियां और शोधपत्रों की प्रस्तुति हुई। सम्मेलन का आरंभ हुआ 9 दिसंबर को सुबह ग्रंथ दिंडी से जिसमें पुस्तकों की पालकी यात्रा निकाली गई। उसके पश्चात् उद्घाटकीय सत्र संपन्न हुआ। घुमंतु जाति-जनजातियों में लंबे समय से कार्य करनेवाले वरिष्ठ सामाजिक कर्मी गिरीश प्रभुणे इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे। शिर्डी संस्थान के अध्यक्ष एवं उद्यमी डॉ. सुरेश हावरे, सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष एड. अशोक गांधी, समरसता साहित्य परिषद की अध्यक्षा डॉ. श्यामा घोणसे, सम्मेलन के सह-निमंत्रक प्रा. रमेश राठोड और ‘ज्ञानप्रबोधिनी’ के यशवंतराव लेले तथा अन्य गणमान्य अतिथि इसमें उपस्थित थे।
निवर्तमान अध्यक्ष एवं विचारक रमेश पतंगे ने अध्यक्षपद के सूत्र श्री. प्रभुणे को सौंपे। अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री. प्रभुणे ने कहा, “घुमंतु लोगों में काम करना शुरू किया तब मुझे कुछ भी पता नहीं था। धीरे धीरे सीखता गया और एक-एक प्रसंग से उनका जीवन समझता गया। तब ध्यान में आया, कि इन लोगों का कोई देश ही नहीं है। कभी-कभी लगता था, कि क्या यही जीवन है? लेकिन फिर पता चला, कि घुमंतु लोगों के जीवन में ही भारत का इतिहास है।”
“घुमंतु लोगों के पास आज भी अपार मौखिक साहित्य है, लेकिन प्रत्येक जाति-जनजाति का इतिहास दम तोड़ रहा है। किसानों और घुमंतु लोगों का रिश्ता मौखिक साहित्य से दिखाई देता है। जितने भी श्रमिक लोग थे उन सबने सर्वोत्तम साहित्य का सृजन किया। पूरे भारत के घुमंतु लोगों के जीवन से समृद्धता का दर्शन होता है। इसी समृद्धता से अजंता और एलोरा जैसी कलाकृतियां बनी। साहित्य एवं कला यही लोग जीते है और उनको देखने के बाद प्रश्न उठता है, कि क्या उन्हें वंचित कहा जाएं।”
उन्होंने कहा, कि ये समाज के वंचित घटक नहीं है बल्कि भारतीय ज्ञान व कला पूरे विश्व में फैलानेवाले साधन है। उनके पास अपार कौशल है जिनका उपयोग करने हेतु उन्हें शिक्षा दी जानी चाहिए।
श्री. पतंगे ने कहा, “समरसता का आज कई स्थानों पर अध्ययन हो रहा है। यह हमारी विचारधारा का विजय है।”
समरसता साहित्य सम्मेलन का समापन 10 दिसंबर को हुआ। इस अवसर पर उद्बोधन करते हुए सम्मेलन के अध्यक्ष गिरीश प्रभुणे ने घुमंतु जातियों के लेखकों के साहित्य का जायजा लिया। उन्होंने कहा, “घुमंतु विमुक्त लोगों में से कुछ ने अपनी व्यथा साहित्य के द्वारा सामने रखी है। लेकिन यह समाज हाल ही में घुमंतु समुदाय ने हाल ही में लिखना शुरू किया है। मुख्य धारा में उसे अभी भी स्थान नहीं है। अभी भी गांव की सीमा से बाहर है। अभी भी कई जातियों को लिखने की आवश्यकता है।”
समरसता मंच की ओर सामाजिक क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करनेवाले कार्यकर्ता को प्रति वर्ष संत गाडगेबाबा पुरस्कार प्रदान किया जाता है। इस वर्ष यह पुरस्कार मुंबई में बेसहारा और अनाथ बच्चों के पुनर्वास का काम करनेवाले ‘समतोल फाऊंडेशन’ के विजय जाधव को दिया गया। श्री. प्रभुणे के हाथों श्री. जाधव को सम्मानित किया गया।
समरसता साहित्य परिषद की ओर से पहला स्व. भीमराव गस्ती साहित्य पुरस्कार भी इस अवसर पर दिया गया। पुणे स्थित लेखक डॉ. श्रीधर कसबेकर को उनकी पुस्तक ‘माझी माय’ के लिए यह पुरस्कार दिया गया जो श्री. यशवंतराव लेले के हाथों प्रदान किया गया। साथ ही हनुमंत शंकर लोखंडे द्वारा लिखित ‘वैदू समाज व त्यांची जीवनशैली’ पुस्तक का विमोचन भी कार्यक्रम में किया गया।
सम्मेलन में युवाओं की बड़ी संख्या में उपस्थिति को लेकर खुशी जताते हुए उन्हों कहा, कि लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम नहीं हो रही बल्कि बढ़ रही है। पुस्तकें पढ़कर काम में सहभागी होनेवाला वर्ग बढ़ रहा है। इस समाज की सांस्कृतिक भूख काफी बढ़ी है।
“मराठी में अब तक का साहित्य अंग्रेजी से प्रभावित था। लेकिन घुमंतु लोगों के साहित्य को भारतीय मिट्टी की सुगंध है। इसमें जीवन का सच्चा प्रतिबिंब है,” उन्होंने कहा।
इस दौरान अन्य मान्यवरों ने भी अपने विचार व्यक्त किए। घुमंतु लोगों के साहित्य में व्याप्त ज्ञान तथा उनके शौर्य, ज्ञान और कला की विरासत आदि विषयों पर शोधपत्रों की प्रस्तुति भी हुई।