दिसंबर 2000 में भारत की सुरक्षा एजेंसियों ने दो पाकिस्तानी आतंकवादियों को गिरफ्तार किया. उनमें से एक आतंकी सियालकोट का रहने वाला मोहम्मद सुहैल मलिक था. वह अक्तूबर 1999 में चोरी-छिपे भारत में घुसा था. सेना की एक चौकी और बस पर हुए आतंकी हमलों में शामिल, सुहैल का न्यूयॉर्क टाइम्स के एक पत्रकार ने जेल में इंटरव्यू लिया. जिसमें उसने खुलासा किया कि छत्तीसिंहपुरा नरसंहार की घटना में वह भी शामिल था. जिसका उसे कोई खेद नहीं है, क्योंकि उसे ऐसा करने के लिए कहा गया था.
श्रीनगर से 70 किलोमीटर दूर दक्षिण में अनंतनाग जिले के छत्तीसिंहपुरा गाँव में 200 सिक्ख परिवार रहते थे. 20 मार्च, 2000 की रात गाँव में बिजली नहीं थी. स्थानीय निवासी रेडियो पर अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पांच दिन की भारत यात्रा की खबरें सुन रहे थे. शाम को 7 बजकर 20 मिनट पर 40 से 50 आतंकवादी गाँव में आए और उन्होंने जबरन सिक्ख लोगों को घरों से बाहर निकालना शुरू कर दिया. कुछ आगे समझ आता कि अचानक उन्होंने अपनी ऑटोमेटिक बंदूकों से गोलियां दागनी शुरू कर दीं. अगले ही पल 35 लाशों का ढेर लग गया और बाद में एक व्यक्ति ने अस्पताल में दम तोड़ दिया. सामूहिक नरसंहार के इस तांडव में सभी लाशें सिक्ख समुदाय के लोगों की थी.
सुरक्षा सलाहकार रहे बृजेश मिश्र ने दावा किया कि यह काम लश्कर-ए-तोएबा और हिज्बुल मुजाहिद्दीन का है. बर्बरता की उस रात को निहत्थे सिक्खों को दो समूहों में खड़ा किया गया था. उनमें से एक आतंकी पास के ही गांव का रहने वाला था. जिसे किसी एक सिक्ख ने पहचान लिया. गोलीबारी से पहले उसने आतंकी से पूछा ‘चट्टिया तू इधर क्या कर रहा है’? दरअसल चट्टिया एक आतंकी मोहम्मद याकूब का उपनाम था. इस वाकये से याकूब दो दिनों के अन्दर ही सुरक्षा बलों के हत्थे चढ़ गया. हिरासत में उसने बताया कि वह मुजाहिद्दीन के साथ काम करता है. नरसंहार वाले दिन वह लश्कर के एरिया कमांडर अबू माज के साथ छत्तीसिंहपुरा आया था. छह फीट लंबा पाकिस्तानी अबू माज ही लश्कर के चार आतंकियों शाहिद, बाबर, टीपू खान और मसूद को लेकर आया था. कश्मीरी मुजाहिद्दीन आतंकियों को इकठ्ठा करने की जिम्मेदारी गुलाम रसूल वानी उर्फ सैफुल्ला के पास थी.
उस रात के चश्मदीद रहे अरविन्द सिंह और बाबू सिंह ने अप्रैल 2000 में फ्रंटलाइन मैगजीन को बताया कि वे सभी आतंकवादी थे और उन्हें उर्दू भी आती थी. साल 2012 में मुंबई हमलों का साजिशकर्ता आतंकी अबु जिंदाल ने भी ऐसा ही एक खुलासा किया. जांच एजेंसियों की पूछताछ में उसने बताया कि छत्तीसिंहपुरा नरसंहार को लश्कर-ए-तोएबा ने अंजाम दिया था. अब तक यह पक्का हो चुका था कि इस नरसंहार की साजिश पाकिस्तान में रची गयी. लश्कर और हिज्बुल के अड्डे पाकिस्तान में हैं. सभी आतंकी जिन्होंने 36 निहत्थे सिक्खों को मार डाला, उन्हें ट्रेनिंग भी सीमा पार से मिली थी.
नरसंहार के अगले दिन पाकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार ने दोनों आतंकी समूहों के समर्थन में बयान दिए. भारत के खिलाफ गतिविधियों के लिए सत्तार पूरे दक्षिण एशिया में बदनाम रहे हैं. वे भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे और 1992 में पाकिस्तान लौटने पर विदेश मंत्री बनाये गए. गौर करने वाली बात है कि वे यूएसएसआर में पाकिस्तान के राजदूत रह चुके थे. यह वही समय था जब अफगानिस्तान से मुजाहिद्दीन का रुख जम्मू-कश्मीर की तरफ होने लगा. भारत के इस सीमावर्ती राज्य से अल्पसंख्यकों को मारने और भगाने का सिलसिला भी 90 के दशक में सामने आया.
उस तरफ नरसंहार के पांचवें दिन एक नया मोड़ आया. पुख्ता खबर मिली थी कि अबू माज की यूनिट के आतंकी छत्तीसिंहपुरा से 9 किलोमीटर दूर छिपे हुए हैं. सभी का सम्बन्ध छत्तीसिंहपुरा नरसंहार से था. कार्रवाई के लिए राष्ट्रीय राइफल्स के जवानों के साथ राज्य पुलिस को भी शामिल किया गया. दोतरफा गोलीबारी में सेना ने बहादुरी से 5 आतंकियों को मार गिराया. इन आतंकियों के पास गोला-बारूद और बंदूकें भी बरामद की गई. यह सफलता सिक्ख पीड़ितों के लिए मरहम की तरह थी. हालांकि, 20 मार्च के जिम्मेदार और असल साजिशकर्ता अभी भी पाकिस्तान की जमीन पर खुले घूम रहे हैं.
छत्तीसिंहपुरा के आसपास सुरक्षा की जिम्मेदारी 7 राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) के जवानों को दी गयी थी. इसमें अधिकतर पंजाब रेजिमेंट के सिक्ख जवान ही भर्ती थे. एक समय में इस इलाके में आतंकी गतिविधियाँ चरम पर थी. इन जवानों ने पूरी तरह से उस पर रोकथाम लगायी हुई थी. आज भी कश्मीर घाटी में आतंकवाद के खिलाफ राइफल्स को सबसे सफल माना जाता है. पिछले साल 44 आरआर के जवानों ने 19 आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया था. इसकी 65 बटालियन पांच टुकड़ियों में जम्मू-कश्मीर में तैनात हैं. जो आईएसआई द्वारा खड़े किए गए आतंकी समूहों के खात्मे का काम कर रही हैं.
उस दर्दनाक और क्रूर रात की यादें आज भी वहां के लोगों के जेहन में जिंदा हैं. उस खौफनाक मंजर को शायद ही कोई भुला सकता है. कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह दर्द कैसे झेला गया होगा. साम्प्रदायिक नरसंहार की यह सबसे बड़ी घटनाओं में से एक थी. एकदम बदतर हो चुके हालातों में राज्य में सिक्खों की आबादी भी कम होती जा रही है. साल 2000 में यह 1 लाख से ऊपर थी जो अब 80 हज़ार से भी कम रह गयी है. अगस्त 2010 में आतंकवादियों ने सिक्खों को घाटी छोड़कर जाने की धमकी दी. हाल में ही इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में डिप्लोमा की एक सिक्ख छात्रा को जबरदस्ती इस्लाम धर्म में परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया गया. वास्तव में, इन बीते 19 सालों में जम्मू-कश्मीर के सिक्खों को नरसंहार, धर्म-परिवर्तन, बलात्कार और धमकियों के अलावा कुछ नहीं मिला.
देवेश खंडेलवाल