जात जात के फेर में उलझ रहे सब लोग | मनुष्यता को खा रहा, रैदास जात का रोग ||
जात-जात में जात है, ज्यों केले में पात | रैदास मानस न जुड़ सकें, जब तक जात न जात || – संत रैदास
बाबासाहेब अम्बेडकर के विचार विश्व का प्रारम्भ इस उनके इस कथन से माना जाना चाहिए कि बौद्ध विचार को या धम्म को किसी धर्म या पंथ के रूप में नहीं, अपितु विकसित मनुष्य, समाज व राष्ट्र के निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत करनेवाला मार्ग माना जाना चाहिए। धर्म जीवन और समाज की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं जबकि बुद्धत्व जीवन के विकास की अवधारणा को प्रशस्त करता है। हिन्दू समाहित जाति व्यवस्था को लेकर बोधिसत्व बाबा साहेब का जिस प्रकार का मुखर किन्तु समीक्षात्मक विरोध रहा, वह किसी से छुपा नहीं है। जाति व्यवस्था का यह विरोध उनके द्वारा एक दीर्घ रचना संसार के रूप में प्रकट हुआ है।
1916 में बाबासाहेब द्वारा जाति व्यवस्था पर लिखे शोध निबंध का एक बोध वाक्य है जो जाति व्यवस्था के प्रति उनके विरोध के पीछे छिपे रचनात्मक, सकारात्मक और विचारात्मक स्वरूप को आमूल प्रकट करता है। उन्होंने लिखा था- “समूची दुनिया का इतिहास वर्गीय समाजों का इतिहास है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है।” स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर भारत के पिछले लगभग आठ दशकों के राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक वातावरण को दो व्यक्तियों ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। पहले गांधीजी जिन्हें भारतीय जनमानस बलात ही महात्मा कहे बिना व्यक्त नहीं कर पाता है और दूजे बाबासाहेब अम्बेडकर जिन्हें बोधिसत्व कहे बिना उन्हें पुर्णतः प्रकट ही नहीं किया जा सकता! यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि बाबासाहेब और सुभाषचंद्र बोस के प्रति गांधीजी का व्यवहार उनके महात्मन भाव को कमतर कर रहा था; वहीं समस्त पीड़ाओं, उपेक्षाओं और अलगाव के बाद भी बाबासाहेब का देशप्रेम उन्हें बाबासाहेब से बोधिसत्व की ओर अग्रसर कर रहा था। गांधीजी को वैचारिक रूप और कृतित्व रूप में प्रकट करते समय कांग्रेस का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि गांधीजी के कृति रूप में आधा योगदान संस्थागत रूप से कांग्रेस जन्य रहा है। एक ध्रुव पर जहां कांग्रेस और गांधी के परस्पर गतिरोधों से राष्ट्रवाद की भावना आहत होती थी, वहीं दूसरे ध्रुव पर महात्मा गांधी और बाबासाहेब की वैचारिक भिन्नताएं देश में उहापोह की स्थिति निर्मित करती रहती थी।
महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में जहां कांग्रेस एक अभिन्न स्थान और योगदान रखती थीं, वहीं दूसरी ओर बाबासाहेब के व्यक्तिव को ऐसी किसी संस्था का मंच उपलब्ध नहीं था किंतु वे स्वयं एक संस्था के रूप में संघर्षों को सफलता दिलाते रहे थे। गांधीजी की अपेक्षा अम्बेडकरजी के पास राजनीतिक अवसरों का अभाव होता था। गांधीजी कांग्रेस प्रतिष्ठान के सर्वमान्य प्रतिमान थे वहीं अम्बेडकरजी अति तीक्ष्ण संघर्ष से करने के बाद ही किसी मंच पर अपनी जगह बना पाते थे। गांधीजी कांग्रेस के साथ-साथ धर्म नाम की संस्था का भी उपयोग सहजता, सफलता और चपलता से कर लेते थे, वहीं दूसरी ओर, बाबासाहेब के पास न तो कोई बड़ा मंच उपलब्ध था और न ही वे धर्म नाम की संस्था का लाभ उठा पाने की स्थिति में थे; अपितु वे तो धर्म के राजनीति में हस्तक्षेप के विरूद्ध बिगुल बजाए हुए थे।
बाबासाहेब धर्म के विरुद्ध नहीं थे किन्तु भारत में हिन्दुवाद के नाम पर चल रहे जातीय कुचक्र के कारण वे राजनीति, शासन और प्रशासन में धर्म निषेध के कट्टर पक्षधर हो गए थे। सामाजिक न्याय की उनकी अवधारणा में हिन्दू धर्म का विरोध नहीं बल्कि जातीय कुचक्र से बाहर निकल आने का मूल तत्व था। यह मूल तत्व गांधीजी और बाबासाहेब के मध्य मतभेदों में एक अनावश्यक वितंडा भर बनकर नहीं रहा तो इसका कारण केवल बाबा साहेब का तेजस अंतस और सहनशील स्वभाव रहा। पूना पैक्ट इन दोनों नेताओं के बीच एक ऐतिहासिक प्रसंग है जिससे इन दोनों नेताओं के कृति रूप प्राकट्य का एक महत्वपूर्ण भाग माना जाना चाहिए। जाति व्यवस्था को लेकर इस पैक्ट द्वारा जो आरक्षण की व्यवस्था की गई वह भारत का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक दस्तावेज है। इस पैक्ट में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था को एक अभिनव रूप दिया और यहीं से भारत राष्ट्र अपनी नागरिक ईकाई से मानसिकता के स्तर पर एक विशिष्ट अपेक्षा करता दृश्यगत हुआ।
पूना समझौते के पूर्व और पश्चात महात्मा गांधी और बाबासाहेब के मध्य जिस प्रकार का वैचारिक द्वंद प्रकट हुआ वह अनपेक्षित था। विद्यार्थी जीवन के पश्चात संभवतः इस द्वंद ने बाबासाहेब को सर्वाधिक प्रभावित किया होगा। यह समझौता दो व्यक्ति डॉ.भीमराव और मोहनदास गांधी के मध्य नहीं अपितु एक समाज के दो ध्रुवों के मध्य हो रहा था। इस समझौते में मृदुता का अभाव स्वातंत्र्योत्तर भारत में सामाजिक समरसता के ह्रास का एक बड़ा कारण बना। पूना पैक्ट तक की यात्रा तक में बाबासाहेब भारत की एक बड़े दलित राजनीतिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुके थे। ब्रिटिशर्स और गांधी दोनों के ही प्रति जातिगत व्यवस्थाओं में परिवर्तन को लेकर उदासीनता को लेकर वे खिन्नता प्रकट करते थे। दलितों की स्वतंत्र राजनीतिक परिभाषा और पहचान को लेकर वे संघर्ष को तीक्ष्ण कर रहे थे। उस दौर में बाबासाहेब ने गांधी के प्रति यह नाराजगी भी प्रकट की थी कि गांधीजी दलितों को हरिजन कहने के पीछे जिस भाव को प्रकट करते हैं, उससे दलित एक करुणा की वस्तु बनकर रह गए हैं। लंदन गोलमेज में उन्होंने दलितों, अछूतों को पृथक निर्वाचन अधिकार देने के लिए पुरजोर स्वर दिया, वहीं गांधी जाति के आधार पर निर्वाचन अधिकार दिए जाने को लेकर आशंका प्रकट कर रहे थे। अंततः 1932 में अंग्रेजों में दलितों को पृथक निर्वाचिका दे दी और इसके विरोध में महात्मा गांधी के पुणे की यरवडा जेल में किए आमरण अनशन ने इन दोनों नेताओं के बीच एक गहरी लकीर खींच दी। गांधीजी के साथ यरवडा में कुछ अनहोनी हो जाएगी, देश में ऐसा भय जागृत हो गया। सामान्य जनमानस में गांधी के प्रति सुहानुभूति और दलितों के प्रति रोष का भाव जन्मा और अनहोनी की स्थिति में दलितों की सुरक्षा खतरे में दिखने लगी।
इस महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम में बाबासाहेब ने गांधीजी के व दलितों के प्राणों के भय के अतीव दबाव में पृथक निर्वाचिका की मांग वापिस ली और तब गांधीजी ने अपना अनशन समाप्त किया। लंदन में इन दोनों नेताओं के मध्य खिंची लकीर यरवडा की घटना से हिन्दू समाज में एक लकीर के रूप में परिवर्तित हो जाएगी, ऐसा भय उस समय के बुद्धिजीवियों और समाज शास्त्रियों ने आभास किया। किन्तु समाज में खिंची इस विभाजनकारी लकीर की को उस समय आश्चर्यजनक रूप से अनदेखा किया गया! यद्दपि इस घटना के परिणामस्वरूप दलितों को सीटों के आरक्षण की बात स्वीकार कर ली गई थी, तथापि सामाजिक समरसता के स्तर पर इस घटना ने गहरी क्षति अंकित कर दी थी। यह क्षति ही बाद में जाकर बाबासाहेब के बौद्ध धर्म ग्रहण करने का कारण बनी और बाबासाहेब ने कहा – मैं “हिन्दू धर्म छोड़ दूंगा। हिन्दू समाज में आई विकृतियों से मेरा विरोध है, किन्तु मैं हिन्दुस्थान से प्रेम करता हूं। मैं जिऊंगा तो हिन्दुस्थान के लिए और मरूंगा तो हिन्दुस्थान के लिए।” इस क्रम में जो उन्होंने आगे कहा, उसे हिन्दुस्थान को सुरक्षित रखनेवाले तथ्य के रूप में मान्यता देने में किसी को भी संकोच नहीं हो सकता।
उन्होंने आगे कहा -“मैं हिन्दू धर्म छोड़ दूंगा किन्तु ऐसे धर्म को ही अंगीकार करूंगा, जो हिन्दुस्थान की धरती पर ही जन्मा हो। मुझे वही धर्म स्वीकार होगा जो आयातित न हो। संघर्ष के उन दिनों में जब महात्मा गांधी देश में सर्वाधिक स्वीकार्य थे और बाबासाहेब से उनके मतभेद सार्वजनिक थे तब डॉ. भीमराव देश में हिंदुत्व और जातिवाद के नाम पर पनपी सामाजिक विषमता व असुरक्षा के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए स्पष्टता से कह रहे थे कि उनका सामाजिक न्याय से आशय सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समानता और सामाजिक स्वतंत्रता से है। और सामाजिक सुरक्षा से आशय प्राण, परिजन, आजीविका और संपत्ति की सुरक्षा से है और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के निष्कंटक प्रवाह से है। बाबासाहेब की बड़ी ही स्पष्ट भाषा और अभिव्यक्ति के बाद भी संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता के चलते कांग्रेस के कई नेताओं ने उनकी भूमिका को संदिग्ध बनाने और इतर दलित समाज में उनकी स्वीकार्यता कम करने के लिए बदनाम किया।
कांग्रेस और वामपंथियों ने स्वतंत्रता पूर्व और प्रारम्भिक स्वातंत्र्योत्तर दौर में बाबासाहेब की सामाजिक न्याय की अवधारणा को वर्ग संघर्ष का नाम देने का जो दुष्प्रयास किया, वह बाद में देश की नसों में विष की भांति प्रवाहित हुआ। महाड़ आन्दोलन के पूर्व और बाद के बाबासाहेब में जो वैचारिक द्वंद रहा उसे देश के प्रतिष्ठित और परिपक्व नेता एक समरस दिशा दे सकते थे, किन्तु इस ओर गांधीजी सहित किसी ने भी बाबासाहेब की धर्मांतरण की धमकी तक और उसके बाद भी कोई प्रयास नहीं किया था। निस्संदेह, उनकी धमकी हिन्दुओं के सामाजिक और धार्मिक नेतृत्व को सामाजिक सुधारों के प्रति जागृत करने के सकारात्मक पुट के साथ थी। हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था को लेकर निर्धन, अधिकारहीन, अपमानभाव से भरे दलित समाज में निषेध का भाव होना स्वाभाविक ही था जिसे महात्मा गांधी ने पूर्व जन्म के फल और प्रारब्ध से जुड़े होने का कुतर्क दिया। गांधीजी का यही कुतर्क डॉ.भीमराव आम्बेडकर की सामाजिक न्याय की अवधारणा में कांटे की तरह चुभा और दशक दर दशक किस्से और कथाओं के कांटेदार मार्ग से होता हुआ दलित चिंतन का और सामाजिक न्याय अवधारणा का एक कटुक-बिटुक कथन बन गया। हिन्दू धर्म के अन्यायी होने और भेदभाव जन्य होने की बात समाज में एक ध्रुव बनी और दूसरा ध्रुव समाज के एक अंश को अछूत कहनेवालों का बना।
1924 में “बहिष्कृत हितकारिणी सभा के जन्म”, 1927 में “बहिष्कृत भारत” पत्रिका का प्रारम्भ, 1927 का ही महाड़ सत्यागृह, 1927 में ही मनुस्मृति को जलाना, 1930 में नासिक के मंदिर में अछूतों के प्रवेश के संघर्ष, 1930 में ही लेबर पार्टी की स्थापना, और अंततः 1935 में येवला जिले में हिन्दू धर्म में नहीं मरने तक की घोषणा के इन सम्पूर्ण संघर्षों में बाबासाहेब के संदेशों की तत्कालीन भारतीय राजनीति ने उपेक्षा की। दलित संघर्षों में समाहित पीड़ा व समरसता की आशा को गांधीजी उस दौर में क्यों समझ पाए, यह एक ऐतिहासिक प्रश्न भी है और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर एक स्पष्ट आक्षेप भी! गांधीजी द्वारा दलित समाज में जन्म लेने को पूर्व जन्मों के पापों का प्रतिफल बताना, उनकी एक ऐतिहासिक भूल सिद्ध हुआ। बाबासाहेब ने जिस प्रकार शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की स्थापना की, एक प्रयोग के रूप में अंग्रेजों की सरकार में श्रम मंत्री बनें वह सब एक संदेश प्रवाही व्यक्ति के जीवन का संवाद प्रयास था जिसे तत्कालीन नेतृत्व ने समझा नहीं। उनकी किताब “स्टेट्स एंड माइनारिटिज” एक सर्वोत्तम राजनीतिक अभिव्यक्ति और सामाजिक संवाद के रूप में प्रशंसित तो हुई किन्तु इस किताब के माध्यम से सतह के नीचे जिस सामाजिक समरसता की आशा उन्होंने की थी, वह अधूरी रही।
यदि गांधीजी उस दौर में बाबासाहेब के इन संदेशों के प्रति ऊर्जा संवेदी रहे होते तो आज भारत का सामाजिक वातावरण कुछ और होता! 1935 में येवला में हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा के बाद 21 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में अपने पांच लाख अनुयायीयों के साथ बोद्ध धर्म ग्रहण करने तक अर्थात 21 वर्षों के दीर्घ पीड़ादायी अंतराल तक इस अपने इस भीषणतम द्वंद को जिस प्रकार बाबासाहेब ने आत्मसात किए रखा, वह केवल किसी बोधिसत्व के वश की ही बात थी! आज यह स्पष्टतः आभास होता है कि गांधीजी और अन्य तत्कालीन राजनीतिक हस्तियों ने किस प्रकार बाबासाहेब को सप्रयास एकांगी किया था। किन्तु यह भी स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि डॉ.भीमराव अम्बेडकर से बाबासाहेब और बाबासाहेब से बोधिसत्व तक की यात्रा का पाथेय भी यही ऐतिहासिक उपेक्षा ही थी! बाबासाहेब के समकालीन और साथी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इतिहास के पन्नों में कितनी ही अन्य घटनाएं अलिखित भी हैं जो बाबासाहेब की आत्मा के बोधिसत्व तक के मार्ग में मील का पत्थर रहीं हैं।
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