टीपू के महीमामंडन का रोग – दिलीप धारूरकर

इस देश के सभी वामपंथी, समाजवादी और अवसरवादी कांग्रेसी एक रोग से पीड़ीत है। जैसे जैसे इस देश में हिंदूवादी संगठनों और हिंदुवादी राजनीतिक दलों को जनता का समर्थन मिलने लगा है, यह रोग और भी बढ़ रहा है। ‘जो जो हिंदुओं के हीत में और गौरवमय हो उसे कमतर और असहिष्णु साबित करना और इतिहास से जो भी हिंदुविरोधी, विकृत, विनाशकारी, असहिष्णु मिले उसे महान और उदार साबित कर उसका महीमामंडन करना,’ यह इस रोग का रुप है। किसी फोबिया की तरह यह रोग अधिकाधिक बढ़ रहा है। बेशरमी से सार्वजनिक रूप में प्रकट हो रहा है। कर्नाटक के अत्यंत क्रूर और सांप्रदायिक टिपू सुलतान की जन्मतिथि मनाकर उसका महीमामंडन करने की जिद इसी मानसिकता के कारण इन लोगों ने पकड़ी है। इस मामले का विरोध होते ही ये लोग भड़क उठे है। वामपंथी और समाजवादी लोगों के मठाधीश समझे जानेवाले गिरीश कर्नाड महोदय बिनावजह इस विवाद में नाक ड़ालकर इस रोग के और भी नीचले स्तर पर पहुंच चुके है। इस स्तर पर पहुंचते हुए बिना किसी कारण, देश के युगपुरुष छत्रपती शिवाजी महाराज से टिपू सुलतान की तुलना करने की धृष्टता उन्होंने की है। बेंगलुरु शहर बसानेवाले कैंपेगौडा की किमत कम आंकते हुए उन्हें टिपू सुलतान से कमतर मानने की उद्दंडता भी उन्होंने की है। हिंदूओं से तिरस्कार के बुखार से तपतपाने के बाद ये लोग कितने बेकाबू हो जाते है, यह इसका उत्तम उदाहरण है। यह बात सच है, कि टिपू सुलतान ने अंग्रेजों से लढ़ाई की थी। लेकिन सिर्फ इन लढ़ाईयों करने के कारण उसे तुरंत स्वतंत्रता सेनानियों की पंक्ती में ले जाकर बिठाना आवश्यक नहीं है। उसने ये लढ़ाईयां अपना राज और संस्थान टिकाने के लिए लढ़ी थी। लेकिन अंग्रेजों से की हुई लढ़ाईयों को छोड़ दे, तो बाकी बातों में उसने जो कारगुजारियां की है उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। टिपू सुलतान की कार्यपद्धति कौन सी थी और उसने किस तरह धर्मांधता के चलते अत्याचार किए, इसे देखने पर यह ध्यान में आता है, कि इस व्यक्ति का नाम लेकर मल्टिकम्युनल नग्ननृत्य करनेवाले और उसकी जन्मतिथि सरकारी खर्चे से करनेवाले कितने नादान और संकुचित है।

ब्रिटिश सरकारी अधिकारी और लेखक विल्यम लोगान ने अपने ‘मलबार मॅन्युअल’ नामक पुस्तक में लिखा है, ‘टिपू सुलतान ने अपने ३० हजार सैनिकों के साथ कालिकत में हाहाकार मचा दिया। टिपू हाथी पर बैठा था और उसके पीछे उसकी विशाल सेना चल रही थी। मार्ग में धर्मांतरण करने से नकार देनेवाले हिंदू पुरुष और महिलाओं को सीधे सीधे फांसी दी जा रही थी। उनके बच्चों को भी उनके गले से बांधकर फांसी पर लटकाया जा रहा था।’ इसी पुस्तक में विल्यम लिखते है, ‘कालिकत में मंदिर और चर्चेस तोड़ने के आदेश दिए गए। हिंदू और ईसाई युवा महिलाओं को पकड़कर मुस्लिम युवकों से उनके जबरदस्ती निकाह करवाए गए। मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए कहा गया। जिन्होंने नकार दिया उन्हें मारा गया।’

टिपू सुलतान द्वारा अपने अधिकारी जमान खान और सईद अब्दुल दुलाई को लिखे पत्र उपलब्ध है जिसमें टिपू लिखता है, ‘पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह की कयांच्या कृपा से कालिकत के सभी हिंदुओं को मुसलमान बनाया गया है। केवल कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ लोगों का धर्मांतरण अभी करना बाकी है। इसमें भी मुझे जल्द ही सफलता मिलेगी।’

१९६४ में ‘लाईफ ऑफ टिपू सुलतान’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में उल्लेख है, कि, मालाबार हिस्सें में एक लाख से अधिक हिंदू और ७० हजार से अधिक ईसाईयों को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए टिपू ने मजबूर किया। धर्म परिवर्तन ही टिपू सुलतान का मुख्य उद्देश था। जिन्होंने मुस्लिम धर्म अपनाया उनके बच्चों को जबरदस्ती मुस्लिम धर्म की शिक्षा (तालीम) दी गई। टिपू की सेना में उन्हें अच्छे पदों पर नियुक्त किया गया।’

हैदर के बाद गद्दी संभालते ही टिपू सुलतान ने अपना राज्य मुस्लिम राज्य घोषित किया। एक दरबार में घोषणा की गई, कि ‘‘मैं सभी काफिरों को (मुस्लिमों के अलावा मूर्तिपूजक) मुसलमान बनाऊंगा ही।’’ तुरंत ही उसने सभी हिंदुओं के लिए फतवा जारी किया। गांव-गांव के मुस्लिम अधिकारियों के सूचित किया गया, कि ‘गांव के सभी हिंदुओं का धर्मांतरण करे। जो स्वेच्छा से मुसलमान ना बने उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाओ। जो मर्द विरोध करते है उनकी कत्तल करो। उनकी पत्नियों को पकड़कर उन्हें दासी बनवाकर मुसलमानों में बांट दो।’ फिर इस आदेश के अनुसार इतना हाहाकार हुआ, कि कईयों ने मुस्लिम धर्मांतरण टालने के लिए नदी में कूदकर अथवा अग्निप्रवेश कर अपना जीवन समाप्त किया। ‘फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल’ नामक  पुस्तक में टिपू के कथना का उल्लेख है। वह कहता है, ‘‘सारी दुनिया अगर मुझे मिल जाए, तो भी  मैं हिंदुओं के ये मंदिर नष्ट करना नहीं रोकूंगा।’’

‘द म्हैसूर गॅझेटिअर’में लिखा है, कि ‘टिपू सुलतान ने लगभग एक हजार मंदिरे तोड़ दिए।’

टिपू सुलतान ने अपने सेनापती अब्दुल कादिर को २२ मार्च १७२७ के दिन लिखा हुआ एक पत्र उपलब्ध है जिसमें वह लिखता है, कि ‘बारा हजार से अधिक हिंदुओं को मुसलमान बनाया है।’

१४ डिसेंबर को अपने सेनापती को उसने पत्र में लिखा है, ‘मैं तुम्हारे पास मीर हुसेन के साथ कुछ लोगों को भेज रहा हूं। इन सबको कैद करो। जो २० वर्ष से कम आयुवाले है उन्हें गुलाम बनाकर काम पर लगाओ। बाकी सबको पेड़ से लटकाकर फांसी दो।’

टिपू ने अपनी तलवार पर जो वाक्य खुदवा लिया था वह इस प्रकार था, ‘मेरे मालिक मेरी सहायता कर, कि मैं संसार के काफिरों को समाप्त कर दूँ।’

टिपू ने कई गावों के नाम बदल दिए। मंगलोर को जलालाबाद किया, मैसूर का नजाराबाद, बेपूर का सुल्तानपट्टण, केन्नानौर का कुशानाबाद, गुटी का फैजहिसार, धारवाड का कुर्शैद-शबाद, रत्नागिरी को मुस्तफाबाद और कोझीकोड को इस्लामाबाद बनाया। यह इतिहास है जिसे कोई नकार नहीं सकता।

टिपू को गैर-सांप्रदायिक साबित करने की जद्दोजहद करनेवाले टिपू द्वारा शंकराचार्य के मठ को मदद देने और कुछ मंदिरों को मदद दिए जाने के सबूत देते है। यह बिलकुल मामुली है और वे भी अंधविश्वास के चलते पापक्षालन की भूमिका से टिपू द्वारा किए गए दान के है।

इनाम के टुकड़ों के लिए इमान बेचे जानेवाले उस समय में स्वार्थी जमीनदारों की तरह टिपू द्वारा बर्ताव किए जाने के भी प्रमाण है। उसके पत्रों में फ्रेंच लोगों से गठबंधन बनाकर अंग्रेजों को भगाने और बाद में भारत का बंटवारा दोनों में करने के उल्लेख मिलते है। इतना ही नही, सबसे आपत्तिजनक बात यह, कि अफगाणिस्तान के तत्कालीन शासक जमान शाह को भारत पर आक्रमण करने का न्यौता देकर भारत में इस्लाम के विस्तार को गति देने की अपील टिपू सुलतान ने किया था। सीरिया में 200 छोटे बच्चों पर पिस्तौल की गोलियां दागनेवाले आईएसआईएस की मानसिकता भी टिपू की मानसिकता से मिलतीजुलती है। ऐसे सांप्रदायिक, अत्याचारी, हिंसक, विदेशों से संपर्क कर मातृभूमि का सौदा करने की मानसिकता रखनेवाले टिपू की जन्मतिथि सरकारी खर्चे से मनाना, क्या यही सहिष्णुता है?

गिरीश कर्नाड तो आम समाजवादी शैली में निम्न स्तर तक चले गए। उन्होंने टिपू की तुलना सीधे शिवाजी महाराज से की। उन्होंने कहा, कि टिपू अगर हिंदू होता तो उसे शिवाजी महाराज के बराबर आदर मिला होता। यह कहते हुए इस व्यक्ति की ज़बान चली भी तो कैसे? आबाजी सोनदेव ने जब कल्याण के सुभेदार की बहू को पकड़कर उसे महाराज के सामने पेश किया, तब कहते है, कि छत्रपति ने कहा था ‘ऐसी ही सुंदर हमारी मां होती, तो हम भी खूबसुरत होते’। इस तरह का वर्णन जिनका किया गया है उस शिवाजी महाराज के साथ इस धर्मांध, अत्याचारी टिपू की तुलना? हिंदू धर्म पर, गायों पर, मंदिर पर हुए तत्कालीन आक्रमणों का शिवाजी महाराज ने बहादुरी से विरोध केला, लेकिन ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, कि किसी परधर्मी व्यक्ति पर महाराज ने किसी भी कारण से धर्मांतरण के लिए, सांप्रदायिक विरोध के लिए आक्रमण अथवा अत्याचार किया हो। सहिष्णुता क्या होती है, यह किसी को समझना हो तो उसे शिवचरित्र पढ़ना चाहिए और असहिष्णुता क्या होती है, यह समझना हो तो टिपू सुलतान को उक्त संदर्भ देखे। टिपू सुलतान से छत्रपति शिवाजी की तुलना करना शिवाजी का घोर अपमान है।

सहिष्णुता और असहिष्णुता इन शब्दों का बिल्कुल उल्टे अर्थों से प्रयोग कैसे किया जाता है, यह देखना हो तो गिरीश कर्नाड महोदय द्वारा किया गया वक्तव्य देखें! गिरीश कर्नाड केवल टिपू सुलतान से शिवाजी महाराज की तुलना कर नहीं रूके, बल्कि बेंगलुरू के हवाई अड्डे को बेंगलुरू शहर बसानेवाले कैम्पेगौडा का नाम न देते हुए टिपू सुलतान का नाम दिया जाए, यह बिना  मांगी हुई सलाह भी दे दी! कैम्पेगौडा के समर्थकों से जब इस वक्तव्य की जबरदस्त प्रतिक्रिया आई, तब कर्नाड ने पल्टी मारते हुए तुरंत माफी मांगने का नाटक किया। असहिष्णुता की दुहाई देकर पुरस्कार लौटानेवाले वामपंथी, समाजवादी लोगों की मानसिकता गिरीश कर्नाड जैसी ही है। हिंदुत्व के प्रति तिरस्कार उनकी रोम रोम में बसा है। इसके लिए किसी भी स्तर तक जाकर झूठ फैलाने की, इतिहास को विकृत करने की उनकी तैयारी है।

टिपू सुलतान का महीमामंडन, अफज़ल खान की समाधि का महीमामंडन, औरंगजेब का महीमामंडन यानि सहिष्णुता, यह जैसे इनकी सहिष्णुता की व्याख्या है। किसी भी प्रार्थना पद्धति का आदर करनेवाले, किसी भी मार्ग से साधना करने की स्वतंत्रता देनेवाले हिंदू विचारों का पुरस्कार करना ही असहिष्णुता, यह जैसे इनका नया दृष्टिकोण है। सांप्रदायिकों को महान कहना सहिष्णुता और सांप्रदायिकों को अत्याचारी कहना असहिष्णुता, यह इनकी अजब परिभाषा है।

गैर-सांप्रदायिकता, सहिष्णुता इन शब्दों के अर्थ और संदर्भ ही इन लोगों ने बदल ड़ाले है। ऐसे शब्दों का बार-बार प्रयोग कर इतिहास के सांप्रदायिक, अत्याचारी राक्षसों को आदर्श सिद्ध करने का उनका षडयंत्र है। वहीं इस देश की अस्मिता धारण करनेवाले नायकों, धर्मसंस्थापकों तथा महापुरुषों को संकुचित, असहिष्णू साबित करने का उनका कुटिल षडयंत्र है। इन्हें विरोध करते हुए जहां के वहां रोकना होगा। शब्दों के अर्थ बदलकर समाज पर थोपने का उनका षडयंत्र निरस्त करना ही होगा।।।

– दिलीप धारूरकर

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इमेल :- dilip.dharurkar@gmail.com

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