स्रोत: न्यूज़ भारती हिंदी
तिब्बतियों के आध्यात्मिक गुरू, १४वें दलाई लामा अपने जीवन के ८० साल पूर्ण कर रहें हैं| दलाई लामा द्वारा प्रदर्शित आध्यात्मिक विवेक, वैश्विक शांति के लिए अथक प्रयास आदि अनेकानेक घटनाओं से उनका जीवन भरा हुआ है| ६ जुलाई २०१५ को, दलाई लामा का जन्मदिन अमेरिका के अरिझोना प्रांत में ‘इंटरनॅशनल सेंटर ऑफ स्पिरिच्युअल ऍण्ड ऍन्सेस्ट्रल विजडम, सेदोना द्वारा ‘वैश्विक करुणा संगोष्ठी’ के रूप में मनाया गया| परमपावन दलाई लामा का रा. स्व. संघ से काफी पुराना तथा सफल संबंध रहा है| इस संबंध का सिंहावलोकन करते हुए वह बौद्ध तथा हिंदूओं में आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक बंध मजबूत करने में कितना सहयोगी रहा, इसका यह अनुवर्ति प्रयास है-सम्पादक
ईशान्य एशिया के हिमालय पर्वतश्रेणी में रणनीतिक महत्त्वपूर्ण स्थान पर पर तिब्बत बसा है| प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इसे ‘त्रिविष्टप’ तथा ‘देवता भूमि’ नाम से जाना जाता है| अवलोकितेश्वर बुद्ध के शांतिप्रेमी अनुयायों का यह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर प्रदेश, चिनि आक्रांता माओ जेडांग के दानवी कब्जे में आने से पहले, भारत और चीन में एक ‘आघात-प्रतिबंधक’ (बफर स्टेट) भूमी के नाते पहचाना जाता था|
तिब्बति परंपरा
दलाई लामा तिब्बति बौद्धों की परंपरा है| दलाई लामा पद पर आसीन व्यक्ति तिब्बति लोगों का आध्यात्मिक तथा राजनीतिक आस्था का सर्वोच्च प्रतीक बनता है| इस परंपरा में वर्तमान दलाई लामा चौदहवे तथा अबतक के सर्वाधिक समय पदासीन लामा है| वर्तमान दलाई लामा, जिनका मूल नामाभिधान तेनजिंग गॅत्सो, जो जेत्सुन जैम्फैल गवॉंग लोबसांग येशे तेनजिंग गॅत्सो का संक्षिप्त रूप है, का जन्म ५ जुलाई १९३५ में ल्हामो दोन्दरुप जन्मनाम से हुआ था| दलाई लामा गेलुग संप्रदाय के महत्त्वपूर्ण संन्यासी होते है| वर्तमान दलाई लामा को १९८९ में नोबेल शांति पुरस्कार से अलंकृत किया गया है और वे तिब्बतियों की वर्तमान दशा तथा पीड़ा को विश्वभर में हार्दिक करुणा से प्रचारित करने के लिए तथा आधुनिक विज्ञान के प्रशंसक के नाते ख्यातिप्राप्त है|
परंपरा के अनुसार, दो वर्ष की आयु में ही, १९३७ में वे १३वें दलाई लामा द्वारा उत्तराधिकारी इस नाते चुने गए थे| दलाई लामा के नाते उनका पदारोहण संस्कार २२ फरवरी १९४० में ल्हासा में सम्पन्न हुआ| चीन के तिब्बत पर आक्रमण के बाद १७ नवम्बर १९५० में उन्हें दलाई लामा के संपूर्ण अधिकार प्राप्त हुए|
१९५९ के तिब्बती उठाव के समय, दलाई लामा तिब्बत छोड़ भारत आये और अबतक वे भारत में शरणार्थि के रूप में निवास कर रहें है| तब से वे सारे विश्व में भ्रमण कर रहें है| तिब्बतियों के कल्याण की पैरवी करते रहें, तिब्बति बौद्ध धर्म का प्रचार करते रहें, बौद्ध तथा विज्ञान में की समानता की खोज करते रहें और सुखी जीवन के लिए करुणा का महत्त्व प्रतिपादित करते रहें हैं| चिनी दबाव के चलते विश्व में उन्हें स्वीकारने में संस्थाओं को कठिनाई आ रहीं है|
पंचशील तथा तिब्बत की बलि
चिनी आक्रमण के पूर्व तिब्बत हमारा एक स्वतंत्र पड़ोसी देश था| अंग्रेजों के राज में भी उन्होंने तिब्बत की स्वायत्तता को छेड़ा नहीं था| भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु तथा चीन के प्रधानमंत्री जाऊ-एन-लाय के बीच हुआ भ्रामक ‘पंचशील’ करार तथा चीन की साम्राज्यवादी और विस्तारवादी मन्शा को समझने में भारतीय नेतृत्व की असफलता के चलते तिब्बत की बलि गयी| चीन की लाल सेना ने तिब्बत पर आक्रमण किया और ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के नाम से माओ जिडांग के नेतृत्व में चीन ने तिब्बत पर कब्जा जमाया| १९४९ में तिब्बत पर जबरदस्ती कब्जा जमाने के २६ साल से चीन ने तिब्बति लोगों पर लगातार कहर ढाया है| भयानक, अमानवी यातनाएँ, मौत के घाट उतारना आदि ज्यादतियों के कारण लाखो तिब्बति जनता ने भारत में शरण ली है| चीन ने जानबुझकर हान और हुई वंश के चिनी लोगों को तिब्बत में बसाया और स्थानीय बौद्ध महिलाओं से जबरदस्ती विवाह कराने का षडयंत्र चलाया ताकि भविष्य में तिब्बत चिनी बहुसंख्यक प्रदेश बन सके|
चिनी आक्रमण के बाद चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी की चंगुल से बचने के लिए पलायन करने वाले हजारो तिब्बति लोगों ने अपनी जान गवायी है| हजारों को मरने के लिए श्रम छावनीयों में भेज दिया गया| कथित सांस्कृतिक क्रांति के समय माओ जिडांग ने तिब्बत की प्राचीन रीतिरिवाज, श्रद्धा, संकल्पना तथा आदतों को नष्ट करने के लिए लोगों को उकसाया| इस सांस्कृतिक क्रांति ने तिब्बत को नरक के गहरे गर्त में ढ़केल दिया|
१९७६ में माओ जिडांग के मृत्युपश्चात यह कथित सांस्कृतिक क्रांति का नाटक समाप्त हुआ| लेकिन इस कालखण्ड में किमान ६ हजार बौद्ध मठ ध्वस्त कर दिये गए थे| अब केवल १२ बचें हैं| सारांश में, माओ ने तिब्बत की देवता बुद्ध का स्थान लेने का प्रयास किया| और यह प्रयास माओ के निधन के बाद भी जांग क्विंगली द्वारा काफी सालों तक चलता रहा, जो तिब्बत स्वायत्तता परिषद का विवादास्पद कट्टर कम्युनिस्ट शासक था| २००८ में उसने कहा था कि ‘चिनी कम्युनिस्ट पार्टी ही तिब्बत का असली बुद्ध है|’
भारत में शरण
चीन के साथ वार्ता करने के दलाई लामा के लगातार प्रयास नकारे गए| १९५० में १५ वर्षीय दलाई लामा को तिब्बत का पूर्ण नेतृत्व प्रदान किया गया और १९५१ में एक तिब्बति प्रतिनिधि मंडल को १७ सूत्रीय करार पर स्वाक्षरी के लिए बाध्य किया गया| इस करार के अनुसार, तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के लिए प्रयास करने का आश्वासन दिया गया| १९५९ में, दलाई लामा सत्ताधीश माओ जिडांग से बात करने चीन में गए| माओ ने उन्हें बताया- ‘‘धर्म जहर होता है… तिब्बत तथा मंगोलिया इस जहर से ग्रस्त हैं|’’ इसी वर्ष में चीन ने तिब्बति प्रतिरोध को कुचल दिया, जिसमें ८७ हजार तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया गया| १७ मार्च १९५९ को दलाई लामा को उनकी पुण्यभूमी छोड़ भारत में पलायन करना पड़ा और उन्होंने भारत में राजनीतिक शरण ली| हजारो तिब्बति शरणार्थि भारत में आने लगे तो चीन ने तिब्बत में मार्शल लॉ लगा दिया|
भारत में आने के बाद भारत सरकार ने तिब्बति बौद्धों को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर में तथा भारत के अन्यान्य स्थानों पर बसाया| धर्मशाला में दलाई लामा ने उनकी निर्वासित सरकार स्थापन कर दी| तब से दलाई लामा लगातार विश्व भ्रमण कर तिब्बतियों की पीड़ा को दुनिया के सामने लाने का तथा विश्व का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास कर रहें है| लेकिन चीन के दबाव के कारण उन्हें समर्थन प्राप्त करने में कठनाई हो रही है|
केंद्रीय तिब्बति प्रशासन से निवृत्त होने तक दलाई लामा की नीति यह रहीं कि, वे तिब्बत की सार्वभौमता की मांग नहीं करते रहे| बल्कि, तिब्बत चीन गणतंत्र का एक सही मायने में स्वायत्त प्रदेश बना रहें, इसे वे स्वीकार करने तो तैयार थे| वे अक्सर पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, महिलाओं के अधिकार, अहिंसा, आंतरधर्मीय वार्तालाप, भौतिकविज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, बौद्धमत और विज्ञान, संज्ञानात्मक मस्तिष्कविज्ञान, प्रसवशील स्वास्थ्य और लैंगिकता इन विषयों के साथ महायान और वज्रयान के विविध विषयोंपर चर्चा, प्रवचन करते रहें हैं|
तिब्बत समस्या और संघ
साम्यवादी चीन की विस्तारवादी नीतियों (विशेषत: तिब्बत के संदर्भ में) के बारे में भारतीय नेतृत्व को पूर्वसूचित करनेवाले स्वामी विवेकांनद के बाद रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक मा. स. गोलवलकर उपाख्य गुरुजी ही शायद प्रथम व्यक्ति होंगे| लेकिन मीडिया ने गुरुजी को ‘युद्धपिपासू’ कह कर उनकी बात को कचरे की टोकरी में डालने का काम किया| लेकिन बाद की घटनाओं ने साबित कर दिया कि गुरुजी कितने सही थे| भारतीय सरकार पूरी तरह बेखबर रही और उधर चीन ने तिब्बत को पादाक्रांत कर अलंघ्य हिमायल को पार कर भारतीय कब्जेवाले नेफा तथा लद्दाख पर आक्रमण कर दिया| तब से, रा. स्व. संघ न केवल तिब्बतियों के तथा तिब्बत के स्वतंत्रता के मुद्देपर सहानुभूतिपूर्ण है, वह उनके हर मुद्दे पर समर्थन करता रहा है|
तिब्बत तथा चीन के मुद्देपर संघ की चिंता
इस तरह तिब्बतियों तथा उनके नेताओं से संघ का, जो हिंदुत्व के प्रयोजन का समर्थक रहा है और बौद्ध मत को हिंदू दर्शन की एक शाखा मानता है, संबंध शुरू हुआ| तिब्बतियों ने, विशेषत: दलाई लामा ने भारत, हिंदू परंपरा तथा दर्शन के प्रति उनका अतीव पूज्यभाव कभीभी छिपा कर नहीं रखा|
रा. स्व. संघ के अखिल भारतीय प्रतिनिधि मंडल ने १९५९ में ‘चीनि आक्रमण के संदर्भ में भारतीय नीति’ विषय पर एक प्रस्ताव पारित किया था| उस प्रस्ताव में कहा था- ‘‘चीन के साथ मित्रता बढ़ाने में उतावली हो रही हमारी सरकार, चीन के विस्तारवादी मन्शा से बिल्कुल बेखबर दिखती है और उसने तिब्बत पर चिनी कब्जे के को, प्रतिवाद का अस्पष्टसा स्वर भी न निकालते हुए मान्य कर लिया लगता है| परिणामत:, तिब्बत, जो सदियों से भारत के साथ अपने गहरे सांस्कृतिक बंध से जुड़ा था, ने न केवल अपनी स्वतंत्रता खो दी है, बल्कि भारत और चीन के बीच में एक अन्तस्थ राज्य (बफर स्टेट) को हमने खो दिया है| इस कारण, चिनी सेना को हमारी सीमापर बेरोकटोक उपस्थित होने का मार्ग हमने खुला कर दिया है|’’
१९६२ के चिनी आक्रमण के बाद फिर से संघ के अ. भा. प्रतिनिधि सभा ने तिब्बत की मुक्ति को अधोरेखित करके प्रस्ताव पारित किया| प्रस्ताव में कहा गया था- ‘‘अगर चीन के विस्तारवाद को रोकना है, अगर प्रत्येक राष्ट्र के स्वतंत्र अस्तित्व का हम अनुमोदन करते हैं और भारत की सीमाओं की कायम सुरक्षा चाहते है, तो भारत की भूमि मुक्त करने के साथ तिब्बत की स्वतंत्रता भी आवश्यक है| तिब्बत के संदर्भ में दिए गये सभी आश्वासनों को चीन ने भुला दिया है| भारत ने अपने अधिकार में, जों कि उसका कर्तव्य भी है, तिब्बत मुक्ति संग्राम को संपूर्ण मदत करनी चाहिए| इसलिए अभी के जो हालात है, उससे भारत के कम्युनिस्ट चीन के साथ जो राजनयिक संबंध हैं वे अनुरूप नहीं हैं| ये संबंध तुरन्त तोड़ देना चाहिए|’’
चीन के भारत पर आक्रमण के ५० वे साल में- २०१२ में रा. स्व. संघ के अ. भा. प्रतिनिधि सभा में तिब्बत मुद्दे को फिर से उठाया गया और लोगों को चीन की असली मन्शा के बारे में सचेत किया गया| भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा की एक व्यापक नीति विशेषत: चीन के सन्दर्भ में, तैयार करने की आवश्यकता प्रतिपादित की गयी|
दलाई लामा और संघ
रा. स्व. संघ तथा विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने नेताओं ने दलाई लामा और उनके करीबी लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाये है| दलाई लामा और संघ के नेतागण शायद १९७९ में पहली बार एक मंच पर आये थे| इस साल प्रयाग में विहिप ने द्वितीय विश्व हिंदू सम्मेलन आयोजित किया था और इसका उद्घाटन दलाई लामा करें ऐसा उन्हें अनुरोध किया था| तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस भी इस सम्मेलन में उपस्थित थे|
अपने संबोधन में दलाई लामा ने कहा, ‘‘मेरी इस सम्मेलन में उपस्थिति किसी को खल सकती है| लेकिन व्यापक दृष्टि से देखें तो, इसमें कुछ असंगति नही है| कारण, इस सम्मेलन में हिंदू और भारत-मूल के जितने भी संप्रदाय है उनके अनुयायी सहभागी हो रहे हैं| बौद्ध संप्रदाय, जो कि भारतीय संप्रदाय है जिसे भगवान बुद्ध ने खुद आगे बढाया, का तिब्बत में विकास हुआ है| वह अपने जन्मभूमि में सुरक्षित नहीं रह सका| लेकिन हमनें उसे न केवल सुरक्षित रखा, बल्कि उसका विकास भी किया|
भारत के बुद्धिजीवियों से चर्चा करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि, हमारे और उनमें कोई मतभेद नहीं है; ना तत्त्वज्ञान में और ना ही आचरण में| गत हजार वर्षों में हमारे पास जो खजाना जमा हुआ है, वह मूलत: केवल भारत का ही है| सभी मत-संप्रदायों का एकही मुख्य लक्ष्य है कि, मनुष्य प्राणि को उसके दु:ख, दर्द से मुक्ति दिलाए| उनके मार्ग भिन्न हो सकते हैं, लेकिन लक्ष्य एकही है- सभी पर शांति तथा सुख की वर्षा करना| इसलिए, अगर भारत-मूल के सभी संप्रदायों के अनुयायी, सभी को सुख और सभी का कल्याण करने के हेतु एकत्रित मिलते हैं, तो यह अत्यंत प्रासंगिक और आवश्यक भी है| इसलिए इस सम्मेलन में सहभागी होने से मुझे हृदय से अत्यंत हर्ष हो रहा है|
यह विश्व हिंदू सम्मेलन अपनेआप में एक ऐतिहासिक घटना है| यह जो कदम उठाया गया है उसकी सार्थकता और अधिक बढ़ जायेगी, जब भारत-मूल के सभी संप्रदायों में बढ़ी हुई अप्रासंगिक चीजें हटाने के लिए निर्भीक कदम उठाये जायेंगे, जब सभी संप्रदायों के अनुयायी पारस्परिक सद्भाव की इच्छा से एकत्रित होंगे, और पूरे विश्व में व्याप्त भय, असमानता, गुलामगिरी तथा शोषण आदि सभी दु:खों को पीछे छोडते हुए सभी के लिए सुख और शांति का मार्ग प्रशस्त करेंगे| इसकी सफलता के लिए मैं त्रिरत्न से प्रार्थना करता हूं|’’
दलाई लामा द्वारा संघ की प्रशंसा
दौरे का अपना कार्यक्रम बदलने पर आये सभी दबावों को ठुकराकर दलाई लामा ने १० जनवारी २०१४ में नागपुर के संघ मुख्यालय को भेट दी| संघ के सभी वरिष्ठ नेतागण बैठक के लिए हैदराबाद गए थे इसलिए दलाई लामा का स्वागत संघ के स्थानीय नेताओं ने किया और उन्हें रेशिमबाग स्थित संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार तथा द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी की समाधिस्थल ले गए| इन नेताओं को श्रद्धांजलि अर्पण करने के बाद मीडिया से बातचित में उन्होंने तिब्बत मुद्दे पर समर्थन के लिए संघ की प्रशंसा की| विहिप के अशोक सिंघल तथा संघ के भूतपूर्व सरसंघचालक कुप्प. सी. सुदर्शनजी से अपने संबंधों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि, हम जिस प्रकार तिब्बत में काम कर रहें है, उसी समर्पण भाव से संघ भारत में कार्यरत है| ‘‘संघ ने हमेशा तिब्बत को समर्थन दिया है और इसलिए मुझे संघ के प्रति हमेशा प्रेमभाव रहा है| संघ केवल भारत के लिए नहीं सोचता, तो सारे विश्व के लिए सोचता है|’’
संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत नागपुर के बाहर होने के कारण वे उनसे मिल नहीं सके, लेक़िन दोनों ने फोनपर बात की| डॉ. भागवत ने कहा, ‘‘भारत और तिब्बत में आध्यात्मिक संबंध है और दोनो देश लोगों के कल्याण पर विश्वास करते हैं|’’ डॉ. भागवत ने दलाई लामा को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘संघ हमेशा तिब्बति लोगों के संघर्ष में उनके साथ रहेगा|’’
संघ नेताओं से चर्चा
‘तिब्बत पोस्ट इंटरनैशनल’ के अनुसार, संघ के एक नेता इंद्रेश कुमार दलाई लामा से मिलते रहते है| ऐसीही एक भेट २६ मई २०११ को हुई, जिसमें इंद्रेश कुमार ने दलाई लामा से तिब्बत की मौजूदा हालात पर चर्चा की|
तिब्बति लोग तथा भारतीयों के बीच मित्रता, समझदारी और पारस्परिक सहयोग बढ़ाने के लिए स्थापित ‘भारत-तिब्बत सहयोग मंच’ की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले इंद्रेश कुमार ने बाद में, निष्कासित तिब्बति सरकार के नवनिर्वाचित प्रधान मंत्री डॉ. लोबसांग सांगय से मुलाकात की और उन्हें निर्वाचन के लिए बधाई दी|
९० के दशक में दलाई लामा ने कानपुर तथा धर्मशाला में हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) के वार्षिक सम्मेलन का भी उद्घाटन किया है| स्वतंत्र तिब्बत के लिए जनजागरण करने में अभाविप ने सक्रिय सहभाग लिया था| इतना ही नहीं, तिब्बत युथ कांग्रेस से अभाविप के अच्छे संबंध है, यह ‘रेडिफ डॉट कॉम’ के १२ मार्च १९९९ के समाचार के कहा गया है|
तिब्बत निष्कासित सरकार के भूतपूर्व प्रधान मंत्री प्रो. सामदोंग रिंगपोछे, रा. स्व. संघ के विजयादशमी उत्सव के मुख्य अतिथि भी रह चुके है| संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री सुदर्शनजी ने उन्हे आमंत्रित किया था और उन्होंने आमंत्रण स्वीकार किया था| संघ परिवार की ‘इंटरनैशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडिज’ द्वारा २००९ में नागपुर में आयोजित तिसरी आंतरराष्ट्रीय ‘एल्डर्स ऍण्ड ऍन्शिएन्ट ट्रेडिशन्स कॉन्फरन्स’ के उद्घाटन समारोह में भी प्रो. रिंगपोछे उपस्थित थे| उसी प्रकार, कुछ साल पहले, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित एक सेमिनार में विद्यमान प्रधान मंत्री डॉ. लोबसांग सांगय, श्री सुदर्शनजी समवेत एक मंच पर उपस्थित थे|
दलाई लामा और विश्व हिंदू कांग्रेस
इस संबध को उजागर करने वाली अभी नजीक की घटना याने गत साल नई दिल्ली में आयोजित विश्व हिंदू कांग्रेस| विश्व हिंदू कांग्रेस का आयोजन विहिप तथा रा. स्व. संघ के सहयोग से किया गया था और उसका उद्घाटन दलाई लामा द्वारा हुआ था, जिसमें रा. स्व. संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत तथा विहिप के अशोक सिंघल भी उपस्थित थे| दलाई लामा ने कहा कि, भारत ने अपनी सांप्रदायिक सद्भाव तथा सहिष्णुता की महान परंपरा का सतत स्मरण करना चाहिए और इसे अधिक मजबूत बनाना चाहिए| तिब्बत और बौद्धजनों को जो कुछ भी ज्ञान है उसका श्रेय भारत को देते हुए उन्होंने कहा कि, प्राचीन भारत उनका गुरु था| ‘‘प्राचीन भारत हमारा गुरु था; आधुनिक भारत नहीं, वह काफी पश्चिमी हो गया है… पूजा और कर्मकांड चालू रखना केवल पर्याप्त नही है| इस देश ने महान विचारक पैदा किए| अब हर चौराहे पर मंदिर है; लेकिन ऐसी जगह बिरलीही है जहां बैठ कर चर्चा या चिंतन किया जा सकता|’’ चिनी लोग जहां भी जाते है वहां ‘चायना टाऊन’ बनाते है, इसका संदर्भ लेते हुए दलाई लामा ने संघ से अपेक्षा करते हुए कहा कि, भारत ने विश्व भर में ‘इंडिया टाऊन’ निर्माण करने की सोचना चाहिए| वहां उन्होने मंदिर के बजाय सांस्कृतिक केंद्र खोलने चाहिए और अहिंसा तथा सांप्रदायिक सद्भाव की बात करनी चाहिए|
दलाई लामा के भाषण के बाद अपनी बात रखते हुए संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दलाई लामा के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए कहा, ‘‘वे ऐसे इन्सान है जो हमेशा वैविध्य में एकता देखते हैं|’’
विश्व हिंदू कांग्रेस में दलाई लामा का सम्मान भी किया गया| मानपत्र में कहा गया कि, दलाई लामा अवलोकितेश्वर (करुणा के बोधिसत्त्व) का प्रकटीकरण है| उन्हें पहले ही नोबेल शांति पुरस्कार तथा मॅगसेसे पुरस्कार से अलंकृत किया गया है| उन्होंने ‘लायब्ररी ऑफ तिबेटियन वर्क्स ऍण्ड आर्काइव्हज’ जैसी संस्थाएं, मठ और विद्यालयों की स्थापना की है तथा उन्होंने सत्य और करुणा के धर्म को हमेशा प्रतिपादित किया है|’’
५० देशों से आये १८०० प्रतिनिधियों के समुदाय को संबोधित करते हुए दलाई लामा ने हिंदुत्व तथा बौद्धमत के बारे में विचार रखें, जो आध्यात्मिक बंधु के समान है| उन्होंने पुन:घोषणा की कि, सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएं करुणा, क्षमा और आत्मानुशासन सिखाती हैं| सभी विविध धार्मिक परंपराओं का मानव का कल्याण यही एक लक्ष्य है| उन्होंने कहा कि, विविध तात्त्विक मतभेद होने के बावजूद, वे सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं को, मन:शांति में सहायक के रूप में देखते है| ‘‘हम सब समान हैं| एकही प्रकार से पैदा हुए हैं| कभी कभी हम मानवता की समानता को भूल जाते हैं और भेदों की चर्चा करते हैं; ‘हम’ और ‘वे’ ऐसे शब्दों में… विश्व की ७०० करोड़ लोगों में एकत्व की अनुभूति करना आवश्यक है|’’
ऐसा महान नेता, शांति और बंधुता, अहिंसा और राग की साकार दन्तकथा हमारे बीच विद्यमान है जो उज्ज्वल भविष्य के लिए हमें मार्गदर्शन कर रहे हैं| ८० वें जन्मदिन पर उन्हें दीर्घ, स्वस्थ तथा प्रेरक आयु प्राप्त हो, ऐसी हम प्रार्थना करें| पुन: एक बार हिंसामुक्त, शांतिपूर्ण तथा अनुरागी विश्व को सुनिश्चित करने के लिए तिब्बति बौद्ध और हिंदूओं में आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक बंधों की अधिक मजबूती के लिए उनके शब्द सतत प्रेरणादायी रहेंगे, इसमें कोई शक नहीं|