’परमवीर’ ने अकेले उड़ाए थे पाक के 60 टैंक, गोली खाकर भी चलाते रहे बंदूक
कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुरजोरजी तारापोर – वे जख्मी थे, फिर भी लड़ते रहे। उन्हें ऑर्डर मिले थे पीछे हटने के, पर नहीं हटे। लौटते तो अपनी जान बचा सकते थे, लेकिन उन्होंने आगे बढ़ना स्वीकारा। उन्हें गोली लगी थी, पर वे दुश्मन को ख़ाक करने में जुटे हुए थे और तब तक जुटे रहे जब तक खुद ख़ाक नहीं हो गए। युद्ध में उन्होंने पाकिस्तान के 60 टैंकों को नष्ट कर दिया था। आज ही के दिन 16 सिंतबर को वे युद्ध करते हुए शहीद हो गए थे। अपनी यूनिट के लिए मरणोपरांत भी वे प्रेरक बने रहे आैर उनकी यूनिट अकेले ही पाकिस्तान से मुकाबला करती रही। भारतीय सेना तब लगभग 35 किलोमीटर पाकिस्तानी सीमा के अंदर थी।
यहां पर भी तारापोर की यूनिट का मुकाबला पैटन टैंकों के साथ था। भारत के पास सैंचुरियन टैंक्स थे। तारापोर पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे हैवी आर्टिलरी अटैक की चिंता किए बिना आगे बढ़ रहे थे। वे पाकिस्तान की जमीन पर डटे हुए थे आैर पैटन टैकों को भी मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे। इसी बीच उन्हें पीछे हटने के आदेश मिले। तारापोर ने अपने जवानों से कहा कि हम जीत के करीब हैं, अगर अब पीछे हटे तो हार का मुंह देखना पड़ेगा, इसलिए मैंने पीछे न हटने का फैंसला किया है।
ज़ख्मी हालत में भी पीछे नहीं हटे तारापोर
तारापोर को गोली लगी थी, वे ज़ख्मी थे और ज़ख्मी हालत में भी उन्होंने पीछे न हटने का फैसला लिया था। बीते पांच दिनों से सियालकोट सेक्टर में यह जंग जारी थी। जंग का छठा दिन था। दुश्मन के टैंक सुबह से गोले बरसा रहे थे। दोपहर होने को आई थी। तारापोर अपने टैंक में थे आैर दुश्मन से भिड़ते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। अब तक तारापोर का टैंक कई बार हिट हो चुका था, लेकिन वे हिम्मत न हारकर लड़ते जा रहे थे। अब शाम हो चली थी। इतने में एक गोला तारापोर के टैंक पर आ गिरा और टैंक को आग लग गई, जो उनके लिए घातक सिद्ध हुई।
अकेले नष्ट किए पाकिस्तान के 60 टैंक
अपने ज़ज्बे के बलबूते तारापोर अब तक पाकिस्तान के 60 टैंक बर्बाद कर चुके थे, जबकि भारत के सिर्फ 9 टैंक ही बर्बाद हुए थे। तारापोर के पास विकल्प था कि वे पीछे लौटते और अपनी जान बचा लेते, लेकिन उन्होंने आगे बढ़ना स्वीकारा। भारतीय सेना तकरीबन 35 किलोमीटर पाकिस्तानी सीमा के अंदर थी। तारापोर एक अच्छे लीडर भी थे, उनके हौंसले आैर ज़ज्बे से पूरी यूनिट प्रेरित थी। अपनी यूनिट के लिए मरणोपरांत भी वे प्रेरक बने रहे आैर उनकी यूनिट ने अकेले ही पाकिस्तानी सेना के साथ मुकाबला किया। सियालकोट सेक्टर में लड़ी गई फिलौरा और चविंडा की इस लड़ाई को सेना इतिहास में सबसे भीषण टैंकों की जंग कहा गया।
क्या थी तारापोर की अंतिम ख्वाहिश
अब वक्त आ चुका था, तारापोर की अंतिम ख्वाहिश को पूरा करने का। यह वही ख्वाहिश थी, जिसे उन्होंने बीच युद्ध में अपने साथियों से जाहिर किया था। तारापोर चाहते थे कि अगर वे जिंदा नहीं रहे तो उनका अंतिम संस्कार इसी युद्ध के मैदान में किया जाए। यह इच्छा अंत में पूरी की गई थी। तारापोर को प्यार से उनके क़रीबी लोग एडी के नाम से पुकारते थे। उनका परिवार पूना में था जब वे शहीद हुए। उनकी बेटी ज़रीन बॉयस अब भी वहीं रहती हैं। उन्होंने बताया पापा हमें अक्सर टैंक राइड कराया करते थे। वे बहादुर थे, यह मैं पहले से जानती थी।
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