प्राकृतिक संसाधन समाजरूपी ईश्वर का है हम तो केवल उसके ट्रस्टी है – मा. बजरंगलालजी गुप्त .

चिल्ड्रन्स यूनिवर्सिटी एवं भारतीय विचार मंच, गुजरात द्वारा दिनांक 9 अगस्त, रविवार को गांधीनगर मे “एकात्म मानवदर्शन : सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया.

परिसंवाद का उद्घाटन करते हुए गुजरात के महामहिम राज्यपाल श्री ओ.पी.कोहली जी ने कहा कि समस्त जीवन का उदगम एक से ही है. जो कुछ है वह ब्रह्म है. सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुम्बकं, सबमें एक ही तत्व विद्यमान है. भूमि हमारी माता है अतः हम सब आपस मे बंधू है यही वह सूत्र है जिस पर दीनदयालजी का भवन खड़ा है और यदि यह हमारे आचरण, अनुभूति, व्यवहार एवं सोच मे उतर जाए तो समाज मे व्याप्त सभी विषमताए समाप्त हो जाएँगी.

उन्होंने कहाँ कि दीनदयाल जी का चिंतन आज के युग के अनुरूप है. दीनदयालजी के अनुसार व्यवस्था उपर से थोपी हुई नहीं बल्कि भीतर से पैदा होनी चाहिए, नीति क्या है वह है धर्म और धर्म का मतलब है कर्तव्य.

एकात्म मानवदर्शन  सामाजिक परिप्रेक्ष्य –

परिसंवाद  मे एकात्म मानवदर्शन  सामाजिक परिप्रेक्ष्य मे विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए डॉ. महेशचन्द्रजी शर्मा ( अध्यक्ष, दीनदयाल शोध संस्थान) ने कहाँ कि इतिहास मे एक ऐसा दौर आया जब यूरोपियन देशो का शासन एशिया/ अफ्रीका के देशो में आया. तब पश्चिम को ही विश्व समझा गया और उस विचारधारा में मानव एक व्यक्ति है. समाज क्या है? तो समाज कुछ नहीं है. उनके अनुसार समाज एक स्वाभाविक ईकाई नहीं है कृत्रिम ईकाई है. परिणाम क्या आया भौतिकवाद बढ़ा व्यक्ति की आजादी उपभोग की आजादी बन गई.

भारतीय मनीषा मे समाज – सम+अज सम्यक् रूप से उत्पन्न हुइ ईकाई है. समाज की जरुरत के अनुसार ज्ञान, सुरक्षा, व्यापार व अन्य कार्यो के लिये वर्ण व्यवस्था कर प्रयोग किया गया. कालान्तर मे इस व्यवस्था मे खामियों  के कारण जातिवाद पैदा हुआ. जिसे पश्चिम शिक्षण मे बताया गया कि भारत का सबसे बडा दोष वर्णव्यवस्था है. वास्तव मे हमारी व्यवस्था के कारण बेरोजगारी जैसा शब्द हमारे यहा था ही नहि. परंपरागत काम चलता आता था जैसे परंपरा से निष्णात बना है सुनार, लुहार, कृषक आदि. सवर्ण व् अवर्ण जाति जैसे शब्द आज़ादी के बाद पैदा हुए. कुल, वंश, जाति आदि संस्थाए भारत की चिती में है. हमें पश्चिम से निजात पानी होगी. जो स्वदेशी है उसे युगानुकुल बनाकर व् जो विदेशी है उसे स्वदेशानुकुल बनाकर ग्रहण करना चाहिए.

एकात्म मानवदर्शन के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य-

एकात्म मानवदर्शन के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए श्री वासुदेवजी प्रजापति (सदस्य, पुनरुत्थान विद्यापीठ) ने कहाँ कि समग्रता की दृष्टी एवं मौलिक चिंतन दीनदयालजी की विशेषता थी. प्रत्येक राष्ट्र का एक मूल स्वभाव होता है जिसे चिती कहते है और राष्ट्र की अनिष्टो से रक्षा करने वाली शक्ति(क्षमता) को विराट कहाँ जाता है.

वैदिक काल मे इस देश का पुरुष कहता था मै देवपुत्र हूँ क्योकि देश का विराट जागृत था. मध्य काल मे इस देश का पुरुष स्वयं को पापी कहने लगा क्योकि देश का विराट सुप्त था. हमारी शिक्षा व्यवस्था चिती और विराट को पुष्ट करने वाली होनी चाहिए.

आज की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से यांत्रिक है. व्यक्ति को Expert बनाना चाहती है. जिसके लिए विभिन्न यंत्रो का उपयोग हो रहा है. मूल बात यह है कि व्यक्ति यंत्र नहीं जीवमान ईकाई है. उसका पंचकोषीय विकास यानि शरीर, प्राण, बुद्धि, मन एवं आत्मा का विकास होना चाहिए. आज की विकास की अवधारणा एक रेखीय है यानि साधनों को बढ़ाना है. हमारे यहाँ विकास चक्रीय है यानि जिस बिंदु से जीवन प्रारंभ होता है वही आकर चक्र पूरा होता है. व्यक्ति जन्म से ही कुछ क्षमता लेकर जन्मा है उन क्षमता की पूर्ण अभिव्यक्ति ही हमारे यहाँ विकास है.

एकात्म मानवदर्शन आर्थिक परिप्रेक्ष्य

एकात्म मानवदर्शन आर्थिक परिप्रेक्ष्य मे विषय पर बोलते हुए मा. बजरंगलालजी गुप्त (वरिष्ठ अर्थशास्त्री, चिंतक) ने कहा कि 1947 से 2015 तक हमारी अर्थरचना अधिकाधिक विदेशी रही है, स्वेदेशी नहीं है अतः हम परावलंबी है. पिछले दिनों जनगणना के आकड़े प्रकाशित हुए जिन्हें देखने से ध्यान में आता है कि आय मे न्यूनतम और अधिकतम के बीच बहुत बड़ा अंतर है. दीनदयाल जी के अनुसार न तो हमें भारत को पुराने ज़माने की प्रतिछाया बनाना है, न ही रूस अमेरिका की प्रतिकृति. हमें अपने देश की व्यवस्था के आधार पर अपनी आर्थिक नीति अपनानी है.

देश मे रहेने वालो की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति की यानि भोजन, कपडा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा इन छ आवश्यकताओ की पूर्ति होनी चाहिए. भूटान ने विश्व के समक्ष Gross National Happiness (GNH) का एक सुन्दर उदाहरण रखा है. हमें केवल GDP का विचार न करते हुए मूल्यांकन पद्धति को बदलना होगा.

बजरंगलालजी ने कहाँ कि हमारी आर्थिक व्यवस्था अर्थायाम होनी चाहिए यानि न अर्थ का अभाव  हो, न अर्थ का प्रभाव हो. अर्थ के उत्पादन, वितरण, उपभोग में सामंजस्य हो. संयमित, सीमित, सदाचारी जीवनशैली अपनानी पड़ेगी. हमें अर्थ विकृति से अर्थ संस्कृति की ओर जाना होगा.

हमें जितनी आवश्यकता है उतना ही प्रकृति से लेना है, प्रकृति का शोषण नहीं होना चाहिए. हम यह भूल गए है कि प्राकृतिक संसाधन समाजरूपी ईश्वर का है हम तो केवल उसके ट्रस्टी है. आज मनुष्य मनुष्य न रहकर संख्या (Numbers) बन गया है. मनुष्य की गरिमा नहीं रहीं है. Technology को हमें देशानुकुल व् युगानुकुल बनाकर ग्रहण करना होगा. उन्होंने कहाँ कि एकात्म मानव दर्शन का बार बार स्मरण, विचार, चिंतन करने से यह नए प्रकार से दृष्टी देने वाला लगेगा.

अंत मे उन्होंने कहा कि “अतीत का गौरव ,वर्तमान का यथार्थ  आकलन कर भविष्य  की महत्वकांक्षा के साथ ले चिति के प्रकाश में निराश हुए बिना नवरचना का प्रयास करते रहना ही एकात्म मानव दर्शन है.”

कार्यक्रम के अंत मे मा. श्री भूपेन्द्रसिंह चुडासमा ( शिक्षण मंत्री, गुजारत) ने सरकार द्वारा दीनदयाल जी के विचारों का कैसे अमलीकरण किया जा रहा है इस संबंध मे जानकारी देते हुए बताया कि 2003 मे शाला प्रवेशोत्सव मे नामांकन दर 75% था जो आज बढ़कर 99% हो गया है. इसके अलावा गरीब कल्याण मेला, बीपीएल लाभार्थियों के लिए मकान के लिए सरकार द्वारा जमीन देने संबंधी योजनाओ से अवगत कराया.

एक दिवसीय परिसंवाद मे चिल्ड्रन्स यूनिवर्सिटी, गुजरात के कार्यकारी कुलपति श्री दिव्यांशुभाई दवे ने मंचस्थ महानुभवो का शाब्दिक स्वागत किया गया तथा प्रोफेसर डॉ. अशोकभाई प्रजापति द्वारा आभार विधि संपन्न की गई.

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