जन्म – 14 जून सन 1899 ई. बगूना, सांबा, जम्मू संभाग.
बलिदान पर्व – 27 अक्टूबर सन 1947 ई. सेरी, उडी सेक्टर, जम्मू कश्मीर.
22 अक्टूबर सन 1947 को महाराज हरिसिंह ने जब मुजफ्फराबाद पर पाक सेना के कब्जे की खबर सुनी, तो उन्होंने खुद दुश्मन से मोर्चा लेने का फैसला करते हुए सैन्य वर्दी पहनकर ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को बुलाया. सिंह ने महाराजा को मोर्चे से दूर रहने के लिए मनाते हुए खुद दुश्मन का आगे जाकर मुकाबला करने का निर्णय लिया. राजेंद्र सिंह महाराजा के साथ बैठक के बाद जब बादामी बाग पहुंचे तो वहां 100 के करीब सिपाही मिले. उन्होंने सैन्य मुख्यालय को संपर्क कर अपने लिए अतिरिक्त सैनिक मांगे. मुख्यालय में मौजूद ब्रिगेडियर फकीर सिंह ने उन्हें 70 जवान और भेजने का यकीन दिलाया, इसी दौरान महाराजा ने खुद मुख्यालय में कमान संभालते हुए कैप्टन ज्वालासिंह को एक लिखित आदेश के संग उड़ी भेजा. इसमें कहा गया था –
“ब्रिगेडियर राजेंद्रसिंह को आदेश दिया जाता है, कि वह हर हाल में दुश्मन को आखिरी सांस और आखिरी जवान तक उड़ी के पास ही रोके रखें.”
कैप्टन सिंह 24 अक्टूबर की सुबह एक छोटी सैन्य टुकड़ी के संग उड़ी पहुंचे. उन्होंने सैन्य टुकड़ी ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को सौंपते हुए महाराजा का आदेश सुनाते हुए खत थमाया. हालात को पूरी तरह से विपरीत और दुश्मन को मजबूत समझते हुए ब्रिगेडियर ने कैप्टन नसीब सिंह को उड़ी नाले पर बने एक पुल को उड़ाने का हुक्म सुनाया, ताकि दुश्मन को रोका जा सके. इससे दुश्मन कुछ देर के लिए रुक गया, लेकिन जल्द ही वहां गोलियों की बौछार शुरू हो गई. करीब दो घंटे बाद दुश्मन ने फिर हमला बोल दिया.
दुश्मन की इस चाल को भांपते हुए ब्रिगेडियर सिंह के आदेश पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने सभी पुलों को उड़ा दिया. यह काम शाम साढ़े चार बजे तक समाप्त हो चुका था, लेकिन कई कबाइली पहले ही इस तरफ आ चुके थे. इसके बाद ब्रिगेडियर ने रामपुर में दुश्मन को रोकने का फैसला किया और रात को ही वहां पहुंचकर उन्होंने अपने लिए खंदकें खोदीं. रात भर खंदकें खोदने वाले जवानों को सुबह तड़के ही दुश्मन की गोलीबारी झेलनी पड़ी. मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी कि पूरा दिन दुश्मन गोलाबारी करने के बावजूद एक इंच नहीं बढ़ पाया.
दुश्मन की एक टुकड़ी ने पीछे से आकर सड़क पर अवरोधक तैयार कर दिए, ताकि महाराज के सिपाहियों को वहां से निकलने का मौका नहीं मिले, ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को दुश्मन की योजना का पता चल गया और उन्होंने 27 अक्टूबर की सुबह एक बजे अपने सिपाहियों को पीछे हटने और सेरी पुल पर डट जाने को कहा. पहला अवरोधक तो उन्होंने आसानी से हटा लिया, लेकिन बोनियार मंदिर के पास दुश्मन की फायरिंग की चपेट में आकर सिपाहियों के वाहनों का काफिला थम गया.
पहले वाहन का चालक दुश्मन की फायरिंग में शहीद हो गया. इस पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने अपनी गाड़ी से नीचे आकर जब देखा तो पहले तीनों वाहनों के चालक मारे जा चुके थे, उन्हें ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह नजर नहीं आए, वह अपने वाहन चालक के शहीद होने पर खुद ही वाहन लेकर आगे निकल गए थे. सेरी पुल के पास दुश्मन की गोलियों का जवाब देते हुए वह बुरी तरह जख्मी हो गए. उनकी दाई टांग पूरी तरह जख्मी थी. उन्होंने उसी समय अपने जवानों को आदेश दिया कि वह पीछे हटें और दुश्मन को रोकें. उन्हें जब सिपाहियों ने उठाने का प्रयास किया तो वह नहीं माने और उन्होंने कहा कि वह उन्हें पुलिया के नीचे आड़ में लिटाएं और वह वहीं से दुश्मन को राकेंगे. 27 अक्टूबर सन 1947 की दोपहर को सेरी पुल के पास ही उन्होंने दुश्मन से लड़ते हुए वीरगति पाई.
अलबत्ता, 26 अक्टूबर सन 1947 की शाम को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर समझौता हो चुका था और 27 अक्टूबर को जब राजेंद्र सिंह मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदान हुए तो उस समय कर्नल रंजीत राय भारतीय फौज का नेतृत्व करते हुए श्रीनगर एयरपोर्ट पर पहुंच चुके थे.
युद्ध विशेषज्ञों का दावा है कि अगर वह पीछे नहीं हटते तो कबाइली 23 अक्टूबर की रात को ही श्रीनगर में होते. ब्रिगेडियर राजेंद्रसिंह ने जो फैसला लिया था वह कोई चालाक और युद्ध रणनीति में माहिर व्यक्ति ही ले सकता था. उनके इसी फैसले और शहादत के कारण कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनने से बचा है.
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को मरणोपरांत देश के पहले महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. फील्ड मार्शल के.एम.करिअप्पा ने 30 दिसंबर सन 1949 को जम्मू संभाग में बगूना सांबा के इस सपूत की वीर पत्नी रामदेई को सम्मानित किया था.