भारत की वीर पुत्री भीकाजी कामा (मैडम कामा) / जन्म दिवस – 24 सितंबर 1861

भीकाजी कामा जो मैडम कामा के नाम से विख्यात है, भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन एक ऐसा नाम है, जिन्होंने भारत को परतन्त्रता से मुक्त कराने के साथ-साथ विदेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन में भी अहम योगदान दिया. एक पारसी टिप्पणीकार ने उनके बारे में कहा था उनका मन अपने आप में एक बालक की तरह अबोध है परन्तु एक युवा स्त्री के रूप में वे एक स्वतन्त्र विचारों वाली गर्म मिजाज महिला है. मैडम कामा को भारत की वीर पुत्री भी कहा जाता था.

मैडम कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 में एक रईस पारसी परिवार में हुआ था. उनके पिता सोरावजी फ्रांम जी पटेल बहुत बड़े व्यापारी थे. मैडम कामा का बचपन अंग्रेजी रहन-सहन के अनुसार ही बीता.  बचपन से ही स्वतन्त्र विचारों वाली मैडम कामा स्त्री षिक्षा की प्रबल समर्थक थी. उनका मानना था कि महिलाओं के बगैर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन सफल नहीं हो सकता.  उनका विचार था कि जब तक माताएं पढ़ी-लिखी शिक्षित नहीं होगी तब तक वे आने वाली पीढ़ी को सुशिक्षित और सुसंस्कारी नहीं बना पाएगी.

मुंबई में 1896 में भयंकर प्लेग फैला जिसमें मैडम कामा ने रोगियों की सेवा में नर्स के रूप में काम किया. लेकिन वे स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गई. उनकी गिरती सेहत को देखते हुए डॉक्टरों ने उन्हें विदेश  में इलाज कराने की सिफारिश  की. 1902 में मैडम कामा लन्दन चली गई. लेकिन यहाँ भी उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की अलख जगाए रखी. लन्दन में मैडम कामा दादाभाई नैरोजी के साथ काम करती रही. ब्रिटिश  विरोधी नीतियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने लंदन में उनकी हत्या करने की योजना बनाई. इसकी जानकारी मैडम कामा को मिलते ही वे फ्रान्स चली गई.

फ्रान्स में रहकर भी उन्होंने ब्रिटिश  हुकुमत के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी. फ्रांस से वे खिलौनों में रिवाल्वर छिपाकर भारत भेजती थी, इसके साथ ही वे हर तरीके से स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की मदद करती थी. ब्रिटिश  विरोधी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने फ्रान्स सरकार पर मैडम कामा को सौंपने का दबाव बनाया, लेकिन फ्रांस सरकार ने उसे खारिज कर दिया. मैडम कामा पहली ऐसी स्वतन्त्रता सेनानी थी जिन्होंने विदेशी धरती स्टुटगार्ड में भारत का राष्ट्रीय झंड़ा फहराया था.

सन् 1909 में मैडम कामा और उनके समर्थकों ने जिनेवा से वंदेमारम् नामक पत्रिका निकाली थी. पत्रिका के प्रथम अंक में स्वतन्त्रता के लिए त्रिस्तरीय फार्मूला बताया गया था. पहला लोगों को शिक्षित करना, दूसरा युद्ध और तीसरा पुनर्निर्माण . बर्लिन में सन् 1910 में प्रकाशित एक राष्ट्रवादी समाचार-पत्र तलवार में लिखी संपादकीय में भी वंदेमातरम् गुट की तारीफ की गई थी. वंदेमातरम् गुट वी.डी. सावरकर की अभिनव भारत सोसायटी से जुड़ा हुआ था. सोसायटी उग्रवादी हत्याओं को महिमा मंडति करती है. सोसायटी से जुड़ने के बाद मैडम कामा सशस्त्र विद्रोह की समर्थक हो गई थी. उनका मानना था कि जब हमारे शत्रु हमें हिंसा के लिए बाध्य करें तो फिर हम हिंसा करने से क्यों बाज आए?

अपने क्रान्तिकारी क्रियाकलापों की वजह से मैडम कामा ने ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ा दी थी. सन 1913 में सरकार ने मैडम कामा को क्रान्तिकारी आन्दोलन की मान्यता प्राप्त नेता बताया . उन्होंने यह भी कहा कि जनता उन्हें देवी काली की तरह पूजती है. 35 सालों तक लगातार मैडम कामा ने विदेशी भूमि से भारतीय स्वतन्त्रता की अलख जगाए रखी. 74 वर्ष की आयु में गिरते स्वास्य के चलते ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत लौटने की इजाजत दी. 1936 में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उनके द्वारा चलाया गया आन्दोलन लगातार चलता रहा जो स्वतन्त्र भारत में आकर ही थमा.

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