मौलाना अबुल कलाम आज़ाद – जन्म दिवस 11 नवम्बर, 1888

मौलाना अबुलकलाम मुहीउद्दीन अहमद (जन्म- 11 नवम्बर, 1888; मृत्यु- 22 फ़रवरी, 1958) एक मुस्लिम विद्वान् थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। वह वरिष्ठ राजनीतिक नेता थे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया और सांप्रदायिकता पर आधारित देश के विभाजन का विरोध किया। स्वतंत्र भारत में वह भारत सरकार के पहले शिक्षा मंत्री थे। उन्हें ‘मौलाना आज़ाद’ के नाम से जाना जाता है। ‘आज़ाद’ उनका उपनाम है।

अबुल के पिता ‘मौलाना खैरूद्दीन’ एक विख्यात विद्वान् थे, जो बंगाल में रहते थे। उनकी माँ ‘आलिया’ एक अरब थी और मदीन के शेख़ मोहम्मद ज़ाहिर वत्री की भतीजी थी। अरब देश के पवित्र मक्का में रहने वाले एक भारतीय पिता और अरबी माता के घर में उनका जन्म हुआ। पिता मौलाना खैरूद्दीन ने उनका नाम मोहिउद्दीन अहमद या फ़िरोज़ बख़्त (खुश-क़िस्मत) रक्खा। आगे चलकर वे ‘मौलाना अबुलकलाम आज़ाद’ या ‘मौलाना साहब’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। बचपन से ही उनमें कुछ ख़ास बातें नज़र आने लगी थीं, जो जीवन भर उनके साथ रहीं। मौलाना आज़ाद को एक ‘राष्ट्रीय नेता’ के रूप में जाना जाता हैं। वास्तव में राष्टीय नेता तो वह थे, लेकिन वह नेता बनना चाहते ही नहीं थे।
आज़ाद के पास बहुत सी किताबें थीं और बड़े-बड़े विद्वान् शिक्षक उन्हें अरबी, फ़ारसी, उर्दू और धार्मिक विषयों के साथ-साथ गणित, यूनानी चिकित्सा पद्धति, सुलेखन और दूसरे विषयों की शिक्षा देते थे। अंग्रेज़ी सीखना तो मानों मना ही था। क्योंकि वह तो ‘घृणित फिरंगियों’ की भाषा थी। भाग्य से ऐसे एक आदमी से भेंट हो गई जो अंग्रेज़ी भाषा जानते थे। आज़ाद ने कुछ दिनों में उनसे अंग्रेज़ी वर्णमाला और पहली कक्षा की किताब पढ़ना सीख लिया। कुछ ही समय बाद उन्होंने शब्दकोश के सहारे बाइबिल और अंग्रेज़ी अखबार पढ़ना शुरू कर दिया। मोमबत्ती की हल्की रोशनी में वह रात में देर तक पढ़ते रहते थे। सवेरे जल्दी उठकर भी वह पढ़ते थे और कभी-कभी तो वह खाना भी भूल जाते थे। अकसर अपने पैसे वह किताबों पर ही खर्च कर देते थे।आज़ाद ने राजनीति में उस समय प्रवेश किया जब ब्रिटिश शासन ने 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया था। मुस्लिम मध्यम वर्ग ने इस विभाजन को समर्थन दिया किन्तु आज़ाद इस विभाजन के विरोध में थे। आज़ाद ने स्वतत्रता आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। वह गुप्त सभाओं और क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए। तत्पश्चात् आज़ाद अरबिंद घोष और ‘श्यामसुंदर चक्रवर्ती’ के संपर्क में आए, और वे अखण्ड भारत के निर्माण में लग गये।वह जोशीले भाषण देते, उत्तेजना भरे लेख लिखते और पढ़े-लिखे मुसलमानों के साथ सम्पर्क बढ़ा रहे थे।

बंगाल के क्रांतिकारी श्यामसुन्दर चक्रवर्ती से उन्होंने क्रांन्ति के लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया था और उसकी ही सहायता से सन् 1905 में महान् क्रांतिकारी अरविन्द घोष से उनकी मुलाकात हुई थी। मुसलमानों के कुछ गुप्त मंडलों की भी उन्होंने स्थापना की थी। मौलाना को लगा कि कुछ ऐसे कारण है जिनको लेकर सन् 1857 की आज़ादी की लड़ाई के बाद मुसलमान बहुत सी बातों में अपने दूसरे देशवासियों से पीछे रह गए हैं। बहुत से मुसलमान ऐसा सोच रहे थे कि भारत में हमेशा अंग्रेज़ों का ही राज बना रहेगा और इसलिए उनको अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अपने लेखों द्वारा मौलाना ने उन्हें समझाया कि विदेशी सरकार की ग़ुलामी से छुटकारा पाना सिर्फ़ राष्ट्रीय ध्येय ही नहीं है बल्कि यह उनका धार्मिक कर्तव्य भी है।

एक बार उन्होंने घोषणा की- “मुसलमानों के लिए बिच्छू और साँप से सुलह कर लेना, पहाड़, ग़ुफा और बिलों के भीतर घूमना और वहाँ जंगली जानवरों के साथ चैन से रहना आसान है, लेकिन उनके लिए अंग्रेज़ों के साथ संधि के लिए हाथ बढ़ाना मुमकिन नहीं है।”

अपने इस संदेश को फैलाने के लिए सन् 1912 में उन्होंने अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखबार ‘अल-हिलाल’ आरम्भ किया।जब कांग्रेसी नेताओं ने 1947 के विभाजन को स्वीकार कर लिया था किंतु मौलाना इसका विरोध करते रहे। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर उनका विश्वास था।

वे कहते है – अगर एक देवदूत स्वर्ग से उतरकर क़ुतुब मीनार की ऊंचाई से यह घोषणा करता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को नकार दें तो 24 घंटे के भीतर स्वराज तुम्हारा हो जाएगा, तो मैं इस स्वराज को लेने से इंकार करूंगा, लेकिन अपने रुख़ से एक इंच भी नहीं हटूंगा, क्योंकि स्वराज से इंकार सिर्फ़ भारत को प्रभावित करेगा लेकिन हमारी एकता की समाप्ति से हमारे समूचे मानव जगत् को हानि होगी।

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