अग्रेजों की गुलामी का दौर था। 1910 के नवंबर की शुरुआत ही हुई थी। तबके बर्मा की मांडले जेल में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कैद थे। वहीं पर एक सुबह उन्होंने महसूस किया कि बरसों से जिस गीता पर लिखना चाहते थे, वह समय आ गया है।
अपने धुआंधार राजनीतिक जीवन से उiहें कोई वक्त मिल नहीं पाता था। लेकिन जब भी वह जेल में होते, तो गीता उनके जेहन में चली आती। वह गीता से बेहद प्रभावित थे। लेकिन उसकी व्यात्रया को ले कर परेशान रहते थे। अपने समय और समाज के मुताबिक गीता को देखना और समझना चाहते थे। एक थके हुए गुलाम समाज को जगाने के लिए वह गीता को संजीवनी बनाना चाहते थे।
जब उन्हें तीसरी बड़ी जेल हुई, तो उन्होंने उस पर काम शुरू कर दिया। वह काम, जिसकी नींव बहुत पहले शायद उनके मन पर पड़ गई थी। 16 साल की उम्र में अपने मरणासन्न पिता को मराठी में गीता सुनाई थी। तभी से गीता को लेकर एक किस्म का लगाव हो गया था। बाद में जब धीरे-धीरे उम्र पकने लगी और समझ बढ़ने लगी, तो गीता के तमाम रहस्य खुलने लगे। उन्हें दिक्कत यह हुई कि गीता की तमाम टीकाएं संसार से दूर ले जानेवाली यानी निवृत्ति मार्ग दिखाने वाली थीं। और तिलक का मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि गीता जैसी किताब आपको महज मोक्ष की ओर ले जाने वाली है। आखिर अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करनेवाली गीता निरे मोक्ष की बात कैसे कर सकती है! इसीलिए उन्होंने कहा, “मूल गीता निवृत्ति प्रधान नहीं है। वह तो कर्म प्रधान है।”
गीतारहस्य को महज पांच महीने में पेंसिल से ही उन्होंने लिख डाला था। एक दौर में लगता था कि शायद ब्रिटिश हुकूमत उनके लिखे को जब्त ही कर ले। लेकिन उन्हें अपनी याददाश्त पर बहुत भरोसा था। इसीलिए अपने बन्धुओं से कहा था, “डरने का कोई कारण नहीं। हालांकि बहियां सरकार के पास हैं। लेकिन तो भी ग्रंथ का एक-एक शब्द मेरे दिमाग में है। विश्राम के समय अपने बंगले में बैठकर मैं उसे फिर से लिख डालूंगा।”
तिलक ने गीतारहस्य लिखी ही इसलिए थी कि वह मान नहीं पा रहे थे कि गीता जैसी किताब महज मोक्ष की ओर ले जाती है। उसमें सिर्फ संसार छोड़ देने की अपील है। वह तो कर्म को केंद्र में लाना चाहते थे। वही शायद उस वक्त की मांग थी। जब देश गुलाम हो, तब आप अपने लोगों से मोक्ष की बात नहीं कर सकते। उन्हें तो कर्म में लगाना होता है। इस ग्रंथ में तिलक ने मनुष्य को उसके संसार में वास्तविक कर्तव्यों का बोध कराया है।