वे पन्द्रह दिन… / 01 अगस्त, 1947 – प्रशांत पोळ

शुक्रवार, 01 अगस्त 1947. यह दिन अचानक ही महत्त्वपूर्ण बन गया. इस दिन कश्मीर के सम्बन्ध में दो प्रमुख घटनाएं घटीं, जो आगे चलकर बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होने वाली थीं. इन दोनों घटनाओं का आपस में वैसे तो कोई सम्बन्ध नहीं था, परन्तु आगे होने वाले रामायण-महाभारत में इनका स्थान आवश्यक होने वाला था.

स्वतंत्रता बस, एक पखवाड़े की दूरी पर थी. लेकिन फिर भी अभी तक कश्मीर ने अपना निर्णय घोषित नहीं किया था. इसीलिए गांधीजी भी नहीं चाहते थे कि उनके कश्मीर दौरे का अर्थ “उनके द्वारा कश्मीर के भारतीय संघ में शामिल होने हेतु कैम्पेन करना” निकाला जाए. क्योंकि यह बात उनके गढ़े हुए व्यक्तित्व और निर्माण की गई छवि के लिए मारक सिद्ध होती. 29 जुलाई को कश्मीर के दौरे के लिए निकलने से पहले दिल्ली की अपनी नियमित प्रार्थना सभा में कहा था – “मैं कश्मीर के महाराज से यह कहने नहीं जा रहा हूँ, कि वे भारत में शामिल हों, या पाकिस्तान में शामिल हों. क्योंकि कश्मीर के बारे में निर्णय लेने का अधिकार वास्तव में कश्मीरी जनता को है. उसी को यह तय करना चाहिए कि उन्हें कहां शामिल होना है. और इसीलिए मैं कश्मीर में कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं करने वाला हूँ… यहां तक की प्रार्थना भी… यह सब व्यक्तिगत रूप से ही करूंगा…”.

गांधी जी रावलपिंडी मार्ग से होते हुए 01 अगस्त को कश्मीर के श्रीनगर में दाखिल हुए. चूंकि इस बार उन्हें महाराजा ने निमंत्रण नहीं दिया था, इसलिए वे किशोरी लाल सेठी के घर ठहरे. उनका मकान भले ही किराए का था, परन्तु खासा बड़ा था. वर्तमान के श्रीनगर में जो बार्झुला का बोन एंड जॉइंट अस्पताल है, उसके एकदम नजदीक यह घर था. सेठी साहब जंगलों के ठेकेदार थे. ये साहब कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस दोनों के नजदीकी हुआ करते थे. परन्तु इस समय नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को महाराज ने जेल में डाल रखा था. नेशनल कांफ्रेंस के अनेक नेता कश्मीर से बाहर निकाल दिए गए थे. इन सभी नेताओं पर यह आरोप था कि वे शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में महाराज के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं.

इसीलिए जब एक अगस्त को गांधीजी रावलपिंडी मार्ग से श्रीनगर आ रहे थे, उस समय चकलाला में बख्शी गुलाम मोहम्मद और ख्वाजा गुलाम मोहम्मद सादिक, इन दोनों नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं ने उन्हें कोहला पुल तक छोड़ा और वापस लाहौर चले गए. गांधीजी के साथ उनके सचिव प्यारे लाल और दो भतीजियां थीं. श्रीनगर में प्रवेश के बाद गांधीजी सीधे किशोरीलाल सेठी के घर गए. थोड़ा विश्राम करने के बाद उनके दल को सरोवर पर ले जाया गया.

गांधीजी के इस सम्पूर्ण दौरे में नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता उनके आसपास बने हुए थे. ऐसा क्यों? क्योंकि कश्मीर के इस दौरे से पहले गांधीजी ने नेहरू के माध्यम से सारी जानकारी प्राप्त कर ली थी. कश्मीर में पंडित नेहरू के सबसे नजदीकी मित्र थे शेख अब्दुल्ला, जो कि जेल में बन्द थे. हालांकि फिर भी शेख साहब की बेगम तथा अन्य अनुयायियों ने गांधीजी की सारी व्यवस्थाओं को अंजाम दिया.

कश्मीर में गांधीजी से आधिकारिक रूप से भेंट करने वाले पहले शासकीय व्यक्ति थे, ‘रामचंद्र काक’. ये महाराज हरिसिंह के अत्यंत विश्वासपात्र थे. कश्मीर के प्रधान थे. नेहरू की “घृणा सूची” में सबसे पहला स्थान रखने वाले व्यक्ति थे. क्योंकि जब 15 मई 1946 में शेख अब्दुल्ला को उनके कश्मीर विरोधी कारस्तानी के लिए जेल में ठूंसा गया था, उस समय नेहरू ने उनका मुकदमा लड़ने के लिए वकील के रूप में कश्मीर आने की घोषणा की थी. तब इन काक महाशय ने नेहरू के कश्मीर में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा की और मुज़फ्फराबाद के पास नेहरू को गिरफ्तार भी कर लिया था. तभी से रामचंद्र काक, नेहरू को फूटी आँख नहीं सुहाते थे. रामचंद्र काक ने गांधीजी को महाराज हरिसिंह का लिखा हुआ एक पत्र दिया जो कि सीलबंद था. वास्तव में यह पत्र गांधीजी से भेंट का निमंत्रण ही था. महाराज के “हरिनिवास” स्थित आवास पर 03 अगस्त को यह भेंट होना तय हुआ.

नेहरू की ब्रीफिंग के अनुसार ही गांधीजी के इस सम्पूर्ण प्रवास में उनके चारों तरफ केवल नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता ही थे. शेख साहब की अनुपस्थिति में उनकी बेगम अकबर जहाँ और उनकी लड़की खालिदा ने गांधीजी के इस तीन दिवसीय प्रवास के दौरान कई बार भेंट की. परन्तु 01 अगस्त के दिन श्रीनगर में गांधीजी ने एक भी राष्ट्रवादी हिन्दू नेता से भेंट नहीं की.

मूलतः देखा जाए तो सम्पूर्ण एवं अखंड कश्मीर एक तरह से पृथ्वी पर स्वर्ग ही है. इसके अलावा सामरिक एवं सैन्य दृष्टि से कश्मीर बहुत ही महत्त्वपूर्ण राज्य था (और है). तीन देशों की सीमाएं इस राज्य से मिलती थीं. 1935 में दूसरा विश्वयुद्ध भले ही थोड़ा दूर था, लेकिन वैश्विक स्तर की राजनीति में बड़े परिवर्तन होने शुरू हो गए थे. रूस की शक्ति बढ़ रही थी. इसीलिए कश्मीर को रूस से जोड़ने वाला जो भाग था, अर्थात गिलगिट, उसे ब्रिटिश सत्ता ने महाराज हरिसिंह से छीन लिया. आगे चलकर झेलम में काफी पानी बह गया. दूसरा विश्वयुद्ध भी समाप्त हो गया. उस युद्ध में भाग लेने वाले सभी देश खोखले हो चुके थे. ब्रिटिश शासन ने भारत छोड़ने का निर्णय उसी समय ले लिया था. इस परिस्थिति को देखते हुए गिलगिट-बाल्टिस्तान नामक दुर्गम इलाके पर अपना नियंत्रण रखने में ब्रिटिशों की कोई रूचि नहीं बची थी. इसीलिए उन्होंने भारत को आधिकारिक रूप से स्वतंत्रता देने से पहले, 01 अगस्त के दिन गिलगिट प्रदेश, वापस महाराज हरिसिंह के हवाले कर दिया. 01 अगस्त 1947 का सूर्योदय होते ही गिलगित-बाल्टिस्तान के सभी जिला मुख्यालयों में अंग्रेजी हुकूमत का यूनियन जैक उतारकर कश्मीर का राजध्वज शान से फहराया गया. लेकिन इस हस्तांतरण के लिए महाराज हरिसिंह कितने तैयार थे? कुछ खास नहीं…. ऐसा क्यों?

क्योंकि इस इलाके की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन ने ‘गिलगिट स्काउट’ नामक एक बटालियन तैनात की थी. इसमें कुछ ब्रिटिश अधिकारी छोड़ दें, तो अधिकांश सैनिक मुसलमान ही थे. 01 अगस्त को गिलगिट के हस्तान्तरण के साथ ही मुस्लिमों की यह फ़ौज भी महाराज के पास आ गई. हरिसिंह ने ब्रिगेडियर घंसारा सिंह को इस प्रदेश का गवर्नर नियुक्त किया, और उनका साथ देने के लिए गिलगिट स्काउट के मेजर डबल्यू ए ब्राउन और कैप्टन एस. मेथिसन नामक अधिकारी नियुक्त किए.

गिलगिट स्काउट का सूबेदार अर्थात मेजर बाबर खान भी इन लोगों के साथ था. यह नियुक्तियां करते समय महाराज हरिसिंह को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि केवल दो माह तीन दिन के भीतर ही सम्पूर्ण गिलगिट स्काउट गद्दारी पर उतर आएगी. वैसा हुआ और इस टुकड़ी ने ब्रिगेडियर घंसारा सिंह को बंदी बना लिया. 01 अगस्त के दिन गिलगिट के हस्तान्तरण ने भविष्य की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का आलेख पहले से लिख दिया था.

अखंड हिन्दुस्तान की खंडित स्वतंत्रता जब देश की दहलीज पर खड़ी थी, उस समय पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर प्रचंड नरसंहार चल रहा था. स्वतंत्रता अर्थात, विभाजन का दिन जैसे-जैसे निकट आता जाएगा, वैसे-वैसे यह नरसंहार बढ़ता ही जाएगा ऐसा ब्रिटिश अधिकारियों का अनुमान था. इसीलिए उन्होंने इन दंगों की आग को कम करने हेतु हिन्दू, मुस्लिम और सिखों की सम्मिलित सेना का प्रस्ताव रखा. इसी के अनुसार “पंजाब बाउंड्री फ़ोर्स” नामक सेना का निर्माण किया गया. इसमें ग्यारह इन्फैंट्री शामिल थीं. इस टुकड़ी में पचास हजार सैनिक थे और इनका नेतृत्व करने के लिए चार ब्रिगेडियर थे, जिनके नाम थे, मोहम्मदअयूब खान, नासिरअहमद, दिगंबर बरार और थिमय्या. 01 अगस्त के दिन चारों ब्रिगेडियर्स ने लाहौर में उनके अस्थायी मुख्यालय में ‘पंजाब बाउंड्री फ़ोर्स’ बैनर तले अपने काम का प्रारम्भ किया. लेकिन किसे पता था कि केवल अगले पन्द्रह दिनों में ही इस सम्मिलित सेना को उनका लाहौर स्थित मुख्यालय धू-धू जलता हुआ देखना पड़ेगा.

इसी दौरान, सुदूर कलकत्ता में एक नया नाटक रचा जा रहा था….

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई अर्थात शरद चंद्र बोस ने 01 अगस्त को कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया. शरद चंद्र बोस एक विराट व्यक्तित्व के धनी थे. चालीस वर्षों तक कांग्रेस में रहकर ईमानदारी एवं जी जान से लड़ने वाले व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान थी. 1930 की ब्रिटिश इंटेलिजेंस की रिपोर्ट में उनका उल्लेख भी है. शरद चंद्र बोस और पंडित जवाहरलाल नेहरू में काफी कुछ समानता भी थी. जैसे कि दोनों का जन्म १८८९ में हुआ. दोनों की शिक्षा इंग्लैण्ड में हुई. दोनों ने वकालत की डिग्री इंग्लैण्ड से ही प्राप्त की. युवावस्था में दोनों के विचार वामपंथ की तरफ झुकते थे. आगे चलकर दोनों ही कांग्रेस में सक्रिय हुए एवं इन दोनों के आपसी सम्बन्ध काफी अच्छे थे.

लेकिन 1937 में यह समीकरण बदला, जब बंगाल के प्रान्तीय चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक 54 स्थान प्राप्त हुए. उसके बाद दूसरे नंबर पर ‘कृषक प्रजा पार्टी’ और मुस्लिम लीग, दोनों को 37-37 सीटें मिलीं. बंगाल में कांग्रेस के नेता के रूप में शरद चंद्र बोस ने कांग्रेस पार्टी और मुख्यतः नेहरू के सामने प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस और कृषक प्रजा पार्टी को मिलकर संयुक्त सरकार की स्थापना करनी चाहिए. परन्तु नेहरू ने यह प्रस्ताव अनसुना कर दिया.

सर्वाधिक सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा और कृषक प्रजा पार्टी ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना ली. ‘शेर-ए-बंगाल’ के नाम से मशहूर ए.के. फजलुल हक बंगाल के प्रधानमंत्री बने. उसी समय से कांग्रेस बंगाल में कमज़ोर होती चली गई. आगे चलकर नौ वर्षों के बाद इस गलती की परिणति मुस्लिम लीग के सुहरावर्दी जैसे कट्टर मुस्लिम व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने में हुई. सुहरावर्दी वह कुख्यात व्यक्ति था, जिसके नेतृत्व में 1946 में ‘डायरेक्ट-एक्शन-डे’ के नाम से पांच हजार निर्दोष हिंदुओं का नरसंहार किया गया.

उपरोक्त सारी घटनाएं शरद बाबू को व्यथित कर रही थीं. उन्होंने समय-समय पर इस सम्बन्ध में कांग्रेस नेतृत्व को, विशेषकर नेहरू को सूचित भी किया. परन्तु इसका कोई फायदा नहीं हो रहा था. नेहरू इस पर कतई ध्यान नहीं दे रहे थे. 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी (जबलपुर) अधिवेशन के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस के विरोध में जबरदस्त कटु प्रचार किया था, उस कारण शरद चंद्र बोस का और भी चिढ़ जाना एकदम स्वाभाविक ही था. इन सारी घटनाओं के ऊपर एक और प्रहार के रूप में गांधी-नेहरू द्वारा बंगाल के विभाजन को मान्यता दे दी गई, जो कि शरद बाबू को कतई रास नहीं आया. इसीलिए अंततः उन्होंने 01 अगस्त को अपने चालीस वर्षीय काँग्रेसी जीवन से त्यागपत्र दे दिया. 01 अगस्त को ही शरद चंद्र बोस ने ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ नामक पार्टी की स्थापना की एवं जनता को स्पष्ट रूप से यह बताने लगे कि देश का विभाजन एवं देश में जो अराजकता का वातावरण निर्मित हुआ है, उसके पीछे साफतौर पर नेहरू के नेतृत्व की विफलता है.

01 अगस्त… भारत में घटने वाली प्रचंड एवं तीव्र घटनाओं का यह दिन अब शाम में ढलने लगा था. पंजाब पूरी तरह आग और हिंसा के हवाले हो चुका था. रात के उस भयानक अंधेरे में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान के सैकड़ों गांवों से उठने वाली आग की लपटें, दूर-दूर तक दिखाई दे रही थीं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 58,000 स्वयंसेवक पूरे पंजाब में हिंदु-सिखों की रक्षा में दिन-रात एक किए हुए थे. ठीक इसी प्रकार बंगाल की परिस्थिति भी अराजकता की तरफ तेजी से बढ़ रही थी.

स्वतंत्रता एवं उसके साथ ही विभाजन, अब केवल चौदह दिन दूर था…!

प्रशांत पोळ

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