पटना (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले जी ने कहा कि स्वाधीन देश को अपने स्वत्व और अपनी आत्मा को पहचान कर तथा अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने स्वभावानुसार व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए. जिस तरह परकीय व्यवस्था राष्ट्र की आत्मा, राष्ट्र के स्वत्व के सुचारू विचार के लिए बाधक है, उसी तरह ही स्वकीय व्यवस्था भी यदि स्वत्वहीन, अर्थहीन हो जाए अथवा वर्तमान समय की आवश्यकताओं को पूरा न करे या समाज के समस्त वर्ग आयामों के विकास की चिंता न करे तो भी उस तथाकथित स्वकीय व्यवस्था को बदल कर कालसुसंगत नई व्यवस्था को स्थापित करना समाज, राष्ट्र के लिए अवश्यम्भावी हो जाता है.
देश में व्यवस्था परिवर्तन समय की मांग है. सत्ता से व्यवस्था परिवर्तन नहीं होगा, व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाज की सोच में परिवर्तन आवश्यक है. वर्तमान सरकारें आम आदमी के जीवन स्तर में परिवर्तन के लिए सुराज ( Good Governance ) की बात करती हैं, लेकिन कुछ सुधारों से जीवन स्तर में परिवर्तन नहीं आ सकता है. जब तक की पूरी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो जाए. सरकारें व्यवस्था में तत्कालीक सुधार लाकर परिवर्तन करना चाहती हैं, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की सोच दूरगामी परिवर्तन से आएगी. जिस तरह व्यवस्थाओं में कालानुसार बदलाव होना जरूरी है, वैसे ही अपने देश की चुनावी व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली, प्रशासन-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था आदि में भी राष्ट्र का स्वत्व प्रकट होने वाले और जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले परिवर्तन की आज आवश्यकता है. सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले जी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् द्वारा प्रकाशित ‘व्यवस्था परिवर्तन’ नामक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में संबोधित कर रहे थे. ‘व्यवस्था-परिवर्तन’ नामक पुस्तक का लोकार्पण समारोह बीआईए हॉल में संपन्न हुआ. लोकार्पण समारोह का शुभारंभ सह सरकार्यवाह जी ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया.
लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आंबेकर जी ने कहा कि व्यवस्था परिवर्तन की बहस पूर्वाग्रह मुक्त होना चाहिए. ‘व्यवस्था परिवर्तन’, संपूर्ण क्रांति, समग्र क्रांति, हिंद स्वराज, राष्ट्रीय पुनर्निमाण जैसे अनेक शब्दों में परिवर्तन की ध्वनि है. समाज के अंदर चल रहे परिवर्तन-चक्र को सही, सकारात्मक और रचनात्मक दिशा देना तथा आवश्यक गति प्रदान करना भी व्यवस्था परिवर्तन है. इसमें समय तो लगेगा, किंतु यह कार्य न राजनीतिक दबंगता से होगा, न नक्सलियों की हिंसा से होगा, यह कार्य न तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के ढोंग करने से होगा और न ही मानवाधिकार के कथित ठेकेदारों के विलाप करने से होगा. वर्ष 1974 के बिहार के छात्र आंदोलन ने देश में व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई की शुरूआत की. आज देश में विद्यार्थी परिषद् व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढ़ा रही है. उन्होंने कहा कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लंबी है, जिसका दूरगामी परिणाम है. अतः हमें धैर्यपूर्वक लड़ाई को लड़ना होगा ताकि हम सफल हो सकें. वर्ष 1974 की व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में अपना रास्ता भटकने के बावजूद देश के छात्रों ने कई मौकों पर परिवर्तन के लिए स्वयं को खड़ा किया.
लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीके कुठियाला ने कहा कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए केवल चिंता नहीं चिंतन करने की आवश्यकता है. इस पर खुली बहस होनी चाहिए, आंदोलन, सत्ता-परिवर्तन और व्यवस्था-परिवर्तन, ये एक ही प्रक्रिया के तीन चरण हैं. परंतु यदि आंदोलन का वैचारिक आधार और समाज में उसकी पैठ गहरी हो जाए तो वह आंदोलन देश में व्यवस्थाओं में सुधार ला सकता है. आज देश में बुद्धिजीवी दो धारा में बंट चुके हैं, इनके बीच कोई संवाद नहीं है. देश हित में विचारों का द्वंद ठीक नहीं है. राष्ट्रवाद ही देश का यथार्थ है.
इस अवसर पर पुस्तक के संपादक डॉ. अरूण कुमार भगत एवं शिवेंद्र सुमन ने भी अपने विचार व्यक्त किए. पुस्तक के सह लेखक डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद तथा विधान पार्षद हरेंद्र प्रताप समेत अन्य सह लेखकों को शॉल एवं पुष्प गुच्छ से समारोह में सम्मानित किया गया. समारोह का संचालन राष्ट्रीय मंत्री निखिल रंजन तथा धन्यवाद ज्ञापन पप्पू वर्मा ने किया. लोकार्पण समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख स्वांत रंजन, क्षेत्र प्रचारक रामदत्त चक्रधर, क्षेत्र कार्यवाह डॉ. मोहन सिंह सहित अन्य उपस्थित थे.