नई दिल्ली. श्रीराम जन्मभूमि की अपीलों की सुनवाई एक बार पुन: टाल दी गई.
हमारा यह संदेह कि विरोधी पक्ष अनावश्यक बहाने बाजी से, अपीलों की सुनवाई को टालने का प्रयास करेंगा, सत्य सिद्ध हुआ.
यह कहा जाना कि पाँच सदस्यीय बेंच के गठन हेतु कोई न्यायिक आदेश पारित किया जाए, यह विरोध बेतुका है. क्योंकि, यह स्थापित सत्य है कि मुख्य न्यायाधीश ही मास्टर ऑफ रोस्टर होते हैं और वे स्वयं ही यह निर्णय करते हैं कि पीठ में कितने और कौन जज रहेंगे.
दूसरा, न्यायमूर्ति यूयू ललित के पीठ में रहने का विरोध कष्टकारक है. न्यायमूर्ति श्री यूयू ललित ने श्रीराम जन्मभूमि वाद में ना तो कभी निचली अदालत में और ना ही किसी अपील में भाग लिया. उनके द्वारा 1997 में अवमानना के सन्दर्भ में श्री कल्याण सिंह के वकील के रूप में शामिल होने का इन याचिकाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह विरोध मामले को षडयंत्र पूर्वक विलंबित करने के अलावा कुछ नहीं है.
इन सब परिस्थितियों में सुनवाई की तिथि को 10 से सीधा 29 जनवरी तक ले जाना भी बहुत लंबा है. हिन्दू समाज अपने धैर्य व सहनशीलता के लिए जाना जाता है. न्यायिक व्यवस्था का फिर भी यह दायित्व है कि वह मामले पर बिना किसी और देरी के अविलम्ब निर्णय दे. देश को उम्मीद है कि माननीय मुख्य न्यायाधीश, जो इस वर्तमान पीठ का नेतृत्व कर रहे हैं, सुनवाई में रोड़े अटकाने वाले विरोधी पक्षकारों के विरुद्ध कड़े निर्णय लेंगे.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दो सदस्यों का पीठ में मुस्लिम जजों के न होने से सम्बंधित विरोध भी बेहद कष्टप्रद है. न्यायाधीशों को भी साम्प्रदायिक आधार पर मामलों की सुनवाई करने के लिए कहा जाए, इससे बड़ी दुःखद स्थिति और क्या हो सकती है? इस मामले में पीठ में जजों की नियुक्ति बहुत ही तार्किक तरह से हुई है. इसमें उन न्यायाधीशों को सामिल किया गया है जो अपने कार्यकाल में ही मुख्य न्यायाधीश बनेंगे. ‘फोरम शोपिंग’ का प्रयास निंदनीय है.