सीमा पर रहने वाले भारतीय किसान हिन्दुस्तान की पहचान भी हैं
आशुतोष भटनागर (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के सचिव हैं)
नई दिल्ली. दूर-दूर तक रेत के पहाड़ और उनके बीच निःशब्दता को भंग करती सिंधु और उसकी सहायक नदियां – श्योक और जंस्कार. श्योक और जंस्कार को भी समृद्ध करने वाली छोटी नदियां नुब्रा, सरू, डोडा और लुंगनक और छोटी-बड़ी जलधाराएं. भारत के सीमांत पर उत्तर-पश्चिम का लद्दाख क्षेत्र है यह.
इन नदियों ने अपने साथ लायी मिट्टी से इस रेगिस्तान में जगह-जगह उपजाऊ मैदानों का निर्माण किया है. मीलों तक फैले हरे-भरे चरागाह इस क्षेत्र के पशुओं को जीवन देते हैं. इन्हीं के बीच बसे हैं छोटे-छोटे गांव, जिनमें भारत के किसी भी अन्य गांव की तरह कृषि और पशुपालन से अपना जीवन निर्वाह करते ग्रामीण. अंतर यह है कि यहां प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य है, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण है तो अति कठिन परिस्थिति भी है.
वर्ष में प्रायः आठ महीने तक यह इलाके बर्फ की चादर से ढके रहते हैं. उस समय सब कुछ ठप हो जाता है. तापमान शून्य से 20 से 30 डिग्री नीचे रहता है. एकमात्र गतिविधि अपने और पशुओं के जीवन को बचाये रहना होता है. मार्च के बाद जब बर्फ पिघलनी शुरू होती है तो गांव जागते हैं और शुरू होती है खेतों में हलचल. अप्रैल-मई में यहां गेहूं बोया जाता है जो अगस्त में पकता है. एक ही फसल होती है जिसमें मनुष्य और पशु, दोनों के लिये ही साल भर की व्यवस्था करनी होती है.
बर्फ के पिघलने के यहां दो अर्थ हैं. पहला, मनुष्यों के लिये फसल और पशुओं के लिये ताजे चारे की उम्मीद, वहीं दूसरी ओर सीमा पार से चीन के पशुपालकों और उनके पीछे लाल सेना की घुसपैठ. चीनी चरवाहे भारतीय चरागाहों में घुस कर अपनी भेड़-बकरियों को चराते हैं और भारतीय ग्रामीणों द्वारा रोकने पर उन्हें धमकाते भी हैं. चीनी सेना का इन्हें संरक्षण प्राप्त होता है. चीनी सैनिक अपनी मर्जी से आते हैं और अपनी शर्तों पर वापस जाते हैं. संघर्ष टालने के नाम पर भारत की ओर से आम तौर पर प्रतिरोध नहीं किया जाता.
चीनी चरवाहों द्वारा भारतीय चरागाहों पर लगातार हो रहे कब्जे का मतलब इन भोले-भाले ग्रामीणों के लिये राजनीति नहीं, विदेश नीति नहीं, सीमा विवाद भी नहीं. उनके लिये तो यह अर्थशास्त्र है, समाजशास्त्र है. इन ग्रामीणों की पीड़ा को तो मान, मराक, स्पांगमिक या चुशूल गांवों के निवासियों की जगह अपने को रख कर सोचा जाये, तभी महसूस किया जा सकता है. जिन चरागाहों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपनी भेड़-बकरियां चराते रहे हैं, आज उन पर चीन का कब्जा है और निगाह के सामने चरागाह होते हुए भी उनके पशु भूख से तड़प कर जान दे रहे हैं. पशुओं का मरना उनके लिये किसी त्रासदी से कम नहीं है क्योंकि वही उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत हैं. वे जानते हैं कि जिनके पशु भूख से मरते हैं, उनका खुद का भविष्य भी ‘भूख’ ही है. नतीजा यह है कि दस साल पहले जिनके पास हजार भेड़ें थी, आज दो सौ से भी कम हैं.
पुरानी पीढ़ी, संतोष ही जिनकी पूंजी है, ‘जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये’ की तर्ज पर सोचती है. लेकिन कहीं न कहीं एक दबी हुई वेदना है जो अगली पीढ़ी को इस पीड़ा की विरासत सौंपने से रोकती है और वह अपनी बकरियां बेच कर बच्चों को पढ़ने के लिये चंड़ीगढ़ या दिल्ली भेज देता है. उनके लिये यह ‘भारत’ है. यह कुछ अलग है, थोड़ा पराया सा है, पर जैसा भी है, यहीं ठौर मिलता है. इसलिये अपने गांवों को छोड़कर लोग अनजान भविष्य की तलाश में चल पड़ते हैं.
सिंधु के तट पर उपजी संस्कृति के वाहक जब मैदानों में उतर आये तो सिंधु से अपना रिश्ता ही तोड़ बैठे. आज स्कूलों में बच्चों को सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों के खुदाई में मिलने की बात पाठ्यक्रम में इस तरह पढ़ाई जाती है जैसे वह भी यूनान, मिस्र और रोम की विनष्ट सभ्यता हो, पर यह नहीं बताया जाता कि सिंधु आज भी भारत में बहती है और उसके तट पर आज भी हमारे अपने बंधु रहते हैं, जिनसे हमारे सैकड़ों पीढ़ी पुराने खून के रिश्ते हैं. भारत उनको अपना लगे, इसके लिये सदियों से कोई पहल भारत ने नहीं की, आजाद भारत में भी नहीं. प्रगति मैदान में होने वाले तमाशों में उनका नाम ले लेने भर से सरकार अपने कर्तव्य को पूरा मानती है.
लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. भारत में जो लोग अपने आप को अजनबी पाते हैं, पड़ोसी देशों की नजर में उनके गांव ही ‘भारत’ है. हिमालय के अनंत विस्तार में पसरी निर्जनता हिन्दुस्तान नहीं हो सकती. हिन्दुस्तान वहीं है, जहां अपने आप को भारतीय कहने वाले लोग बसते हैं. इसलिये ही यह लोग और यह गांव पाकिस्तान और चीन की नजर में खटकते हैं. सीमा पर भारत की उपस्थिति के प्रतीक यह गांव जब तक मौजूद हैं, तभी तक वह भू-भाग भारत है. सिंधु की लहरों को स्पर्श करके आने वाली हवा से जब फसल हिलोरती है तो उसमें किसान को गेंहू की बाली झूमती दिखती है. किन्तु चीन और पाकिस्तान को उन्हीं बालियों में तिरंगा लहराता नजर आता है.
स्वतंत्रता के इस सातवें दशक में भी उस क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंच सकी हैं. आजीविका के परंपरागत साधन भी सिमटते जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में पलायन स्वाभाविक है. चीन और पाकिस्तान भी चाहते हैं कि यह पलायन तेज हो ताकि वे भारत में और गहरे तक अपनी पहुंच बना सकें. लेकिन स्थानीय आबादी के इस पलायन की तुलना यूपी-बिहार से दिल्ली आने वाले लोगों से नहीं की जा सकती. यह सीमांत से ‘भारत’ का पलायन है. इसे रोकना ही होगा. जिन सुविधाओं के लिये वे अपने गांव-खेत छोड़ने को मजबूर होते हैं, वे सुविधाएं उन्हें तुरंत पहुंचानी होंगी. इनर लाइन परमिट जैसी निरर्थक व्यवस्थाएं समाप्त करनी होंगी ताकि लोगों के बीच संवाद स्थापित हो सके. इसके लिये सत्ता प्रतिष्ठान को पहले स्वयं यह स्वीकार करना होगा कि सीमा पर रहने वाले यह भारतीय किसान ही नहीं, हिन्दुस्तान की पहचान भी हैं.