स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है जब उसके साथ बंधुता हो – श्री मोहनजी भागवत

दिनांक 10 अप्रैल, रविवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कर्णावती महानगर द्वारा आयोजित वर्षप्रतिपदा उत्सव के अवसर पर अपने उद्बोधन मे श्री मोहनजी भागवत ने कहाँ कि संघ मे हम लोग उत्सवो का जो निर्वहन करते है वो सारे उत्सव इस देश मे सदीओ से चलते आये हुए उत्सव है.संघ जिन छ उत्सवो की पालना करता है उनको उनके राष्ट्रीय आशय के साथ जोड़कर उनको संपन्न करता है.  अपने राष्ट्रीय ईतिहास के किसी घटना विशेष को लेकर उस घटना विशेष की तिथि पर उस घटना विशेष पर जो भाव उत्पन्न हुए उन  विचारो का  एकबार फिर से स्मरण करना और उसको अपन जीवन मे उतरना इसके लिए उत्सवो की प्रासंगिकता होती है.

वर्षप्रतिपदा संकल्प का दिवस है. प्राचीनतम घटना के अनुसार वर्षप्रतिपदा श्रुष्टि का प्रारंभ है  रूपक के रूप मे कथा बताई जाती है कि मिट्टी के सैनिको मे प्राण फूंक एक बालक ने  शकों के शक्तिशाली किन्तु भ्रष्ट शासन को उखाड फेका. उसे शालिवाहन सम्राट के विजय का प्रारंभ वर्षप्रतिपदा है. लेकिन हुआ यह था की मिटटी के पलिंदे जैसा समाज पड़ा था शालिवाहन ने उस समाज के मन मे स्वाभिमान जगाया और उस समाज की संगठित शक्ति के आधार पर शको को अपनी भूमि से खदेड़ दिया. विजय ध्वज फहराया.

संयोग से वर्षप्रतिपदा संघ के संस्थापक परमपूज्य डा. हेडगेवार जी का जन्म है. भारत के नवोत्थान का संकल्प जो नियति के रूप मे आया वही डॉ. साहब का रूप लेकर जन्मा.  नवोत्थान का संकल्प किस लिए तो डा. आंबेडकर जी ने संविधान सभा हमारा संविधान प्रस्तुत करते हुए कहाँ था कि हमारा देश किसी विदेशी शक्ति ने अपने बलबूते पर नहीं जीता बल्कि अपने छोटे छोटे संकीर्ण स्वार्थो के कारण आपस मे झगड़ते हुए हम लोगो ने अपने भेदों के कारण देश को गुलाम बनाने में परकियो की मदद की.  डॉ. आंबेडकर ने कहाँ कि हमसब एक है लेकिन स्वतंत्रता और समता को लेकर तरह तरह के पंथो को लेकर अलग अलग शिबिर बनाकर बैठे है. उन्होंने कहाँ के स्वतंत्रता, समता और बंधुता मैंने इस मिटटी मे उपजे बुद्ध के विचार से मैंने उनको स्वीकार किया है. लेकिन स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है जब उसके साथ बंधुता हो बंधुभाव हो. उस बंधुभाव को ही धम्म कहा गया है. ऐसा डॉ. आंबेडकरजी ने कहाँ. यही धर्म है. उनको भी यह चिंता थी उन्होंने कहाँ आपस के भेदों को भूलकर एक देश के नाते यदि हमने अपने जीवन को जीया नहीं तो मात्र यह संविधान आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा.

डॉ. हेडगेवारजी के मन मे भी यही प्रश्न था. डा. हेडगेवार जी ने आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करते हुए संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित किया और यह शिक्षा दी की संपूर्ण समाज को गुण संपन्न, देश भक्त और संगठित करना है तथा भारत वर्ष को परम वैभव पर पहुँचाना है. देश के महापुरुषों से संपर्क के कारण उनके ध्यान मे यह ध्यान मे आया कि गुलामी का कारण हमारे अंदरूनी दोष है उन दोषों को दूर कर इस देश के लिए जीने मरने वाला संगठित समाज खड़ा करना. इसके लिये उन्होंने एक पद्धति का निर्माण किया जिसका नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक. अपने इस संकल्प को पूर्णता की ओर जाता देखने के बाद ही उन्होंने मृत्यु का वरण किया.

वर्षप्रतिपदा पर हमारा संकल्प क्या हो, उसकी सिद्धि कैसे हो ? हमारे संकल्प के बारे तो किसी के मन मे कोई शंका नहीं है. रोज शाखा मे अपने संकल्प का सामूहिक उच्चारण हमसब लोग करते है. समाज की संगठित शक्ति के आधार पर नित्य विजय प्राप्त करते हुए भारतवर्ष का दुनिया को जो मूलभूत और महत्वपूर्ण अवदान है धर्म उसकी सुरक्षा करते हुए हम लोग इस राष्ट्र को परम वैभव संपन्न बनाने के लिए समर्थ होना चाहते है. यह काम हमें करना है और इसके लिए सारे समाज को राष्ट्रभक्ति के सूत्र मे आबद्ध करते हुए समाज के लिए देश के लिए संगठित गुणसंपन्न बनाना है. सारी दुनिया मे भारत माता की जय हो. संघ मे एक ही जयकारा चलता है भारत माता की जय और कुछ नहीं.

लेकिन संकल्प की सिद्धि तब होती है जब संकल्प के पीछे आचरण होता है. प्रत्येक स्वयंसेवक को जैसा विश्व होना चाहिए जैसा भारत का समाज होना चाहिए वैसा बनाना पड़ेगा. हमें अपने आचरण को समाज के सामने स्थापित करना है. संघ का प्रभाव बढ़ा है लेकिन प्रभाव से भी ज्यादा लोगो मे संघ का विश्वास बढ़ा है. हमारे आचरण मे हमको राष्ट्रीयता का स्पष्ट परिचय देना होगा. अपने जीवन के उद्घोष मे राष्ट्रीयता का बिल्कुल संकोच नहीं होना चाहिए.

हमारी हिंदू संस्कृति का विचार संकुचित नहीं है हम सर्व समाज को संगठित करना चाहते है हमें तप, स्वाध्याय, शौर्य, धर्म के लक्षणों का पालन करते हुए और सभी को जोड़ते हुए विश्व कल्याण का विचार करना है. इस विचार का बल हमें भारत माता से मिलता है. संघ में स्वयंसेवक किसी स्वार्थ के लिए नहीं आता यहाँ सिर्फ देना होता है और यहाँ आत्मीयता के द्वारा निर्बल को भी सबल बनाने की प्रेरणा देता है.

हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और आजीविका इन चारो पहलुओ मे सेवाभाव प्रकट होना चाहिए और यह सेवा भाव ऐसा है जो सेवा करते करते अन्य को भी सेवाभावी बना देता है ऐसी सेवा करने वाले हम स्वयंसेवक है ऐसा आत्मविश्वास के साथ कहते बनना चाहिए हर परिस्थिति मे हर जगह तब हम स्वयंसेवक है और हम संघ है. हमें अपने आचरण का उदहारण प्रस्तुत करना होगा. तभी विश्व मे सभी कंठो से अपने आप जयकार फूटेगी “भारत माता की जय” यह हमको करना है यह हमारा व्यक्तिगत, सामूहिक संकल्प है. विषम परिस्थिति मे भी अपने धैर्य कायम रखते हुए कटुता मिटाते हुए आचरण करना है संपूर्ण दुनिया को सुखी करने का संकल्प हमने लिया है. उसी ओर प्रयासरत रहना है अनुकूलता इतनी है कि ऐसा हम आज करना प्रारंभ करेगे तो निकट भविष्य मे हम लोग ऐसे भारत वर्ष का उदय और उत्कर्ष होते हुए देख लेगे हम सबको उस ओर बढ़ने की सदबुद्धि आज अपने संकल्प के स्मरण के कारण हो इतनी प्रार्थना के साथ मे अपने चार शब्द समाप्त करता हूँ.

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