नब्बे के दशक में श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन जब अपने यौवन पर था, उन दिनों जिनकी सिंह गर्जना से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, उन श्री अशोक सिंहल को संन्यासी योद्धा भी कह सकते हैं और सन्त सिपाही भी; पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते हैं।
अशोक जी का जन्म 27 सितम्बर, 1926 को आगरा में एक सम्पन्न उद्योगपति परिवार में हुआ। परिवार का वातावरण धार्मिक होने के कारण उनके मन में बालपन से ही हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। उनके घर संन्यासी तथा धार्मिक विद्वान आते रहते थे। कक्षा नौ में उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी पढ़ी। उससे भारत के हर क्षेत्र में सन्तों की समृद्ध परम्परा एवं आध्यात्मिक शक्ति से उनका परिचय हुआ।
1942 में प्रयाग में पढ़ते समय रज्जू भैया ने उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कराया। वे भी उन दिनों वहीं पढ़ते थे। उन्होंने अशोक जी की माता जी को संघ के बारे में बताया और संघ की प्रार्थना सुनाई। इससे माता जी प्रभावित हुईं और उन्होंने अशोक जी को शाखा जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार शाखा जाने का जो क्रम शुरू हुआ, तो फिर वह बढ़ता ही गया।
1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता सत्ता प्राप्ति की खुशी मना रहे थे; पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोक जी भी उन देशभक्त युवकों में थे। उन्होंने संकल्प लिया कि ऐसे धूर्तों से मातृभूमि को मुक्त कराना ही होगा। इसके लिए उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित करने का निश्चय कर लिया। बचपन से ही अशोक जी की रुचि शास्त्रीय गायन में रही, संघ के अनेक गीतों की लय उन्होंने ही बनाई है।
1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो अशोक जी सत्याग्रह कर जेल गये। वहाँ से आकर उन्होंने बी.ई अन्तिम वर्ष की परीक्षा दी और प्रचारक बन गये। अशोक जी की सरसंघचालक श्री गुरुजी से बहुत घनिष्ठता रही। प्रचारक जीवन में लम्बे समय तक वे कानपुर रहे। यहाँ उनका सम्पर्क श्री रामचन्द्र तिवारी नामक एक विद्वान से हुआ। वे गृहस्थ होते हुए भी सिद्ध सन्त थे। वेदों के प्रति उनका ज्ञान विलक्षण था। अशोक जी अपने जीवन में इन दोनों महापुरुषों का प्रभाव स्पष्टतः स्वीकार करते हैं।
1975 से 1977 तक देश में आपातकाल और संघ पर प्रतिबन्ध रहा। इस दौरान अशोक जी इन्दिरा गान्धी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे। आपातकाल के बाद वे दिल्ली के प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1981 में डा. कर्णसिंह के नेतृत्व में दिल्ली में एक विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोक जी और संघ की थी। उसके बाद अशोक जी को ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में लगा दिया गया।
इसके बाद परिषद के काम में धर्म जागरण, सेवा, संस्कृत, परावर्तन आदि अनेक नये आयाम जुड़े। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन, जिससे परिषद का काम गाँव-गाँव तक पहुँच गया। इसने देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा बदल दी। भारतीय इतिहास में यह आन्दोलन एक मील का पत्थर है। आज विहिप की जो अन्तरराष्ट्रीय ख्याति है, उसमें अशोक जी का योगदान सर्वाधिक है। ईश्वर से प्रार्थना है कि अशोक जी स्वस्थ रहते हुए इसी प्रकार देश और धर्म की सेवा करते रहें।
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