अखिल भारतीय काँग्रेस ने माउण्टबेटन की भारत विभाजन की योजना स्वीकारी / 15 जून, 1947

जनवरी 1946 को दस सदस्यीय ब्रिटिश सांसदों का प्रतिनिधि मंडल भारत आया और प्रमुख नेताओं से मिला। जनवरी 25 को वह महात्मा गांधी से मिला और फरवरी 10 को इंग्लैण्ड लौट गया। 17 फरवरी महात्मा गांधी मुम्बई लौटे। उन दिनों भारत में ब्रिटिश विरोधी भावनाएँ अपनी चरम पर थीं। साथ ही भारतीय नौ सेना व वायु सेना में प्रश्न खड़ा हुआ कि-‘‘ब्रिटिश सेनाएँ तो अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए लड़ रहीं है, हम किसके लिए लड़ रहे हैं ? और परिणामस्वरूप भारतीय नौ-सेना दल में मुंबई में और भारतीय वायुसेना दल में दिल्ली में 17-18 फरवरी को विद्रोह की आग भड़क उठी। अँग्र्रेजों ने शाही भारतीय सेना को उन पर गोली चलाने के लिए कहा तो अपने नौ सैनिक भाईयों पर गोली चलाने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। अँग्रेजों का भारतीय सेना पर कोई नियंत्रण नहीं रहा। उन्होंने सोचा कि जिस सेना के बलबूते पर आज तक हम इस देश पर राज्य करते आए हैं वही जब हमारे विरुद्ध हो गई तो हमारे दिन कितने बचे हैं ?

14-15 जून 1947 को अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की बैठक में जहाँ गोविन्दवल्लभ पंत ने कहा कि-‘3 जून योजना और आत्महत्या’ में से उन्होंने 3 जून को चुना है। मौलाना आजाद ने कहा कि मैंने भी अनुभव किया कि-‘‘तत्काल समझौते की आवश्यकता है किन्तु आशा करता हूँ कि विभाजन अधिक देर नहीं टिकेगा।’’ किन्तु श्री चोइथराम गिडवानी ने आलोचना करते हुए कहा कि प्रस्ताव तो लीग की हिंसावृत्ति के आगे आत्मसमर्पण है। श्री जगत्नारायण ने स्मरण कराया कि मई 1942 में अखिल भारतीय काँग्रेस समिति ने डंके की चोट पर कहा था कि विभाजन की हर योजना का विरोध करेगी- अब वह पीछे नहीं हट सकती। समाजवादी काँग्रेसी विभाजन का बराबर कड़ा विरोध करते रहे थे। डाक्टर राममनोहर लोहिया ने विभाजन की योजना से असहमत होते हुए भी इसीलिए तटस्थता की भूमिका स्वीकार की क्योंकि विभाजन-योजना तथ्य रूप धारण कर चुकी थी। अनोखा तर्क था।

वरिष्ठ काँग्रेसियों में केवल बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन ही ऐसे थे जिन्होंने अंत तक प्रस्ताव का ढृढ़ता से विरोध किया। उन्होंने कहा कि नेहरू सरकार मुस्लिम लीग के आतंककारी हथकंडों से हतोत्साह हो गयी है, विभाजन की स्वीकृति देना विश्वासघात और आत्मसमर्पण करना होगा। अपने भाषण के अंत में उन्होंने आवेगपूर्ण भाव से आग्रह किया-‘‘भले ही हमें कुछ और समय तक ब्रिटिश राज्य के अधीन कष्ट उठाने पड़ें पर हमें अखण्ड भारत के चिरपोषित लक्ष्य की बलि नहीं देना चाहिए। आइए, हम युद्ध के लिए कटिबद्ध हों, यदि आवश्यकता पड़े तो अँग्रेजों और लीग दोनों से लोहा लें और देश को खण्डित होने से बचाएँ।’’ समिति के सदस्यों ने तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट से टंडन जी के भाषण का समर्थन किया। काँग्रेसी सदस्यों की डूबती हुई आस्था को आधार मिल गया और प्रस्ताव का भविष्य अधर में लटक गया।

इस निर्णायक घड़ी में गांधी जी का तर्क यह था कि-‘‘योजना की स्वीकृति में काँग्रेस कार्यकारिणी ही एक मात्र पक्ष नहीं है, दो अन्य पक्ष ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग भी संबंधित हैं। ऐसी स्थिति में काँग्रेस समिति अपनी कार्यकारिणी के निर्णय को ठुकरा दे तो संसार क्या सोचेगा ?….. वर्तमान घड़ी में देश में शान्ति-स्थापना का भारी महत्व है। काँग्रेस सदा ही पाकिस्तान का विरोध करती रही है ….पर कभी-कभी हमें बड़े ही अरुचिकर निर्णय करने पड़ते हैं। …. यदि मेरे पास समय होता तो क्या मैं इसका विरोध नहीं करता ? किन्तु मैं काँग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को चुनौती नहीं दे सकता और लोगों की उनके प्रति आस्था को नष्ट नहीं कर सकता। ऐसा तभी मैं करुँगा जब मैं उनसे कह सकूंगा, ‘लीजिए, यह रहा वैकल्पिक नेतृत्व’। ऐसे विकल्प के निर्माण के लिए मेरे पास समय नहीं रह गया है। …. आज मुझ में वैसी शक्ति नहीं रह गई है। अन्यथा मैं अकेला ही विद्रोह की घोषणा कर देता।’’

गांधी जी की उपर्युक्त टिप्पणी के प्रसंग में यह जान लेना उपयुक्त रहेगा कि पंडित नेहरू ने लियोनार्ड मोसले से क्या कहा था ? विभाजन की स्वीकृति के कारणों पर प्रकाश डालने के बाद नेहरू ने कहा था कि-‘‘गांधी जी हमसे कहते कि विभाजन स्वीकार न किया जाए तो हम लड़ाई चालू रखते, प्रतीक्षा करते।’’ गांधी के हस्तक्षेप के कारण प्रस्ताव के पक्ष में 157 मत पड़े, विपक्ष में 29 और तटस्थ रहे 32। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सर्वाधिक मूल और महत्वपूर्ण प्रश्न पर काँग्रेस की सर्वोच्च संस्था ने आत्मसमर्पण कर दिया और विभाजन के दुःखान्त नाटक के अंतिम दृष्य का पटाक्षेप हुआ।

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