देवतात्मा हिमालय ने पर्यटकों तथा अध्यात्म प्रेमियों को सदा अपनी ओर खींचा है; पर 20 फरवरी, 1926 को आगरा (उ.प्र.) में जन्मे डा. नित्यानन्द ने हिमालय को सेवाकार्य के लिए अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। आगरा में 1940 में विभाग प्रचारक श्री नरहरि नारायण ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ा; पर श्री दीनदयाल उपाध्याय से हुई भेंट ने उनका जीवन बदल दिया और उन्होंने संघ के माध्यम से समाज सेवा करने का व्रत ले लिया।
1944 में आगरा से बी.ए. कर वे भाऊराव देवरस की प्रेरणा से प्रचारक बने तथा आगरा व फिरोजाबाद में कार्यरत रहे। नौ वर्ष बाद उन्होंने फिर से पढ़ाई प्रारम्भ की और 1954 में भूगोल से प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। घरेलू जिम्मेदारियों के कारण वे अध्यापक बने; पर उन्होंने अविवाहित रहने का निर्णय लिया, जिससे शेष सारा समय संघ को दे सकें। 1960 में अलीगढ़ से भूगोल में ही पी-एच.डी. कर वे कई स्थानों पर अध्यापक रहे। 1965 में नियति उन्हें देहरादून ले आयी। 1965 से 1985 तक वे देहरादून के डी.बी.एस.कॉलिज में भूगोल के विभागाध्यक्ष और गढ़वाल विश्वविद्यालय में रीडर रहे।
इस दौरान उन्होंने हिमालय के दुर्गम स्थानों का गहन अध्ययन किया। पहाड़ के लोगों के दुरुह जीवन, निर्धनता, बेरोजगारी, युवकों का पलायन आदि समस्याओं ने उनके संवेदनशील मन को झकझोर दिया। आपातकाल में नौकरी की चिन्ता किये बिना वे सहर्ष कारावास में रहे। उन्होंने कहीं कोई घर नहीं बनाया। इसीलिए सेवानिवृत्त होकर वे देहरादून के संघ कार्यालय पर ही रहने लगे। उन पर जिले से लेकर प्रान्त कार्यवाह तक के दायित्व रहे। दिसम्बर, 1969 में लखनऊ में सम्पन्न हुए उ.प्र. के 15,000 स्वयंसेवकों के विशाल शिविर के मुख्यशिक्षक वही थे। उनका विश्वास है कि संघस्थान के शारीरिक कार्यक्रमों की रगड़ से ही अच्छे कार्यकर्ता बनते हैं।
20 अक्तूबर, 1991 को हिमालय में विनाशकारी भूकम्प आया। इससे सर्वाधिक हानि उत्तरकाशी में हुई। डा. नित्यानन्द जी ने संघ की योजना से वहाँ होने वाले पुनर्निमाण कार्य का नेतृत्व किया। उत्तरकाशी से गंगोत्री मार्ग पर मनेरी ग्राम में इसका केन्द्र बनाया गया। अब वह ‘सेवा आश्रम’ के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने अपनी माता जी के नाम से एक न्यास बनाया है। उसमें वे स्वयं तथा उनके परिजन सहयोग करते हैं। इस न्यास की ओर से 22 लाख रुपये खर्च कर उन्होंने मनेरी में एक छात्रावास बनाया है, जिसमें रहकर गंगोत्री क्षेत्र के दूरस्थ गांवों के छात्र केवल भोजन शुल्क देकर कक्षा बारह तक की शिक्षा पाते हैं। इसके साथ ही वहां से ग्राम्य विकास, शिक्षा, रोजगार, शराबबन्दी तथा कुरीति उन्मूलन के अनेक प्रकल्प चलाये जा रहे हैं।
जिन दिनों ‘उत्तराखंड आन्दोलन’ अपने चरम पर था, तो उसे वामपन्थियों तथा नक्सलियों के हाथ में जाते देख उन्होंने संघ के वरिष्ठजनों को इसके समर्थन के लिए तैयार किया। संघ के सक्रिय होते ही देशद्रोही तत्व भाग खड़े हुए। हिमाचल की तरह इस क्षेत्र को ‘उत्तरांचल’ नाम भी उन्होंने ही दिया, जिसे गठबंधन की मजबूरियों के कारण भाजपा शासन ने ही ‘उत्तराखंड’ कर दिया।
केन्द्र में अटल जी की सरकार बनने पर अलग राज्य का निर्माण हुआ; पर उन्होंने स्वयं को सेवा कार्य तक ही सीमित रखा। उत्तरकाशी की गंगा घाटी पहले ‘लाल घाटी’ कहलाती थी; पर अब वह ‘भगवा घाटी’ कहलाने लगी है। उत्तरकाशी की दूरस्थ तमसा (टौंस) घाटी में भी उन्होंने एक छात्रावास खोला है।
उत्तराखंड में आने वाली हर प्राकृतिक आपदा में वे सक्रिय रहते हैं। देश की अनेक संस्थाओं ने सेवा कार्यों के लिए उन्हें सम्मानित किया है। उन्होंने इतिहास और भूगोल से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं। अत्यधिक वृद्ध होने पर भी वे ‘सेवा आश्रम’ में छात्रों के बीच ही रहना पसंद करते हैं।
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