समर्थ गुरु स्वामी रामदास / पूण्य तिथि – 22 जनवरी

जय-जय श्री रघुवीर समर्थ

हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ स्वामी रामदास का नाम भारत के साधु-सन्तों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष हनुमान् जी के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है। उनके जन्मस्थान जाम्बगाँव में उनकी मूर्ति मन्दिर में स्थापित की गयी है।

यद्यपि मूर्ति स्थापना के समय अनेक विद्वानों ने कहा कि मनुष्यों की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा देवताओं के समान नहीं की जा सकती; पर हनुमान् जी के अवतार वाली जन मान्यता के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा।

स्वामी रामदास का जन्म चैत्र शुक्ल 9, विक्रम सम्वत् 1665 (1608 ई0) को दोपहर में हुआ था। यही समय श्रीराम के जन्म का भी है। सूर्याजी पन्त तथा राणूबाई के घर में जन्मे इस बालक का नाम नारायण रखा गया। नारायण बचपन में बहुत शरारती थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने हनुमान् जी को अपना गुरु मान लिया। इसके बाद तो उनका अधिकांश समय हनुमान् मन्दिर में पूजा में बीतने लगा।

एक बार उन्होंने निश्चय किया कि जब तक मुझे हनुमान् जी दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। यह संकल्प देखकर हनुमान् जी प्रकट हुए और उन्हें श्रीराम के दर्शन भी कराये। रामचन्द्र जी ने उनका नाम नारायण से बदलकर रामदास कर दिया।

जब घर वाले उनका विवाह करने लगे, तो वे मण्डप से भागकर गोदावरी के पास टाकली गाँव में एक गुफा में रहकर तप करने लगे। भिक्षा से जो सामग्री मिलती, उसी से वे अपना जीवनयापन करते थे। बारह साल तक कठोर तप करने के बाद वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। यात्रा में उन्होंने हिन्दुओं की दुर्दशा तथा उन पर हो रहे मुसलमानों के भीषण अत्याचार देखे। वे समझ गये कि हिन्दुओं के संगठन के बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता।

इस प्रवास में उन्होंने देश भर में 700 मठ बनाये। इनमें श्रीराम और हनुमान् जी की पूजा के साथ ही युवक कुश्ती तथा शस्त्र स॰चालन का अभ्यास करते थे। इस प्रकार उन्होंने युवकों की एक अच्छी टोली खड़ी कर दी। चाफल केन्द्र से वे इनका संचालन करते थे। ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’ उनका उद्घोष था। इसी से लोग उन्हें ‘समर्थ स्वामी’ कहने लगे। जब शिवाजी ने आदर्श हिन्दू राज्य स्थापित करने के प्रयास प्रारम्भ किये, तो उन्होंने समर्थ स्वामी को अपना गुरु और मार्गदर्शक बनाया।

समर्थ स्वामी की जीवन यात्रा के अनुभव मुख्यतः ‘दासबोध’ नामक ग्रन्थ में संकलित हैं। ऐसी मान्यता है यह उन्होंने शिवाजी के मार्गदर्शन के लिए लिखा था। उनके शिष्य उनके प्रवचनों को लिखते रहते थे। यह सब अन्य अनेक ग्रन्थों में संकलित हैं। 1680 में शिवाजी के देहान्त के बाद उनके पुत्र शम्भाजी का अनुचित व्यवहार देखकर स्वामी जी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने पत्र लिखकर उसे समझाया; पर उसने ध्यान नहीं दिया।

स्वामी जी को लगा कि जिस काम के लिए प्रभु ने उन्हें शरीर दिया था, वह उसे यथाशक्ति पूरा कर चुके हैं। अतः उन्होंने स्वयं को समेटना शुरू किया। जब अश्रुपूरित शिष्यों ने उनसे पूछा कि आपके बाद हमें मार्गदर्शन कौन देगा, तो उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘दासबोध’ की ओर संकेत किया। माघ कृष्ण 9, विक्रम सम्वत् 1739 (22 जनवरी, 1682 ई.) को राम-नाम लेते हुए समर्थ स्वामी रामदास ने अपना शरीर त्याग दिया।

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