इतिहासाचार्य विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे / पूण्य तिथि – 31, दिसम्बर

विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े का जन्म 24 जून 1863 को महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले के वरसई गाँव में हुआ था। विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे  के प्रसिद्ध इतिहासकार, विद्वान, लेखक तथा वक्ता थे। वे ‘इतिहासाचार्य राजवाडे’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। वह संस्कृत भाषा और व्याकरण के भी प्रकांड पंडित थे, जिसका प्रमाण उनकी सुप्रसिद्ध कृतियाँ ‘राजवाडे धातुकोश’ तथा ‘संस्कृत भाषेचा उलगडा’, आदि हैं। उन्होने ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ (मराठी:) नामक प्रसिद्ध इतिहासग्रन्थ की रचना की। आद्य समाज के विकास के इतिहास के प्रति गहन अनुसंधानात्मक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण की परिचायक यह ग्रन्थ इतिहासाचार्य राजवाडे के व्यापक अध्ययन और चिन्तन की एक अनूठी उपलब्धि है।

स्वर्गीय विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे के बारे में जैसा कि कहा गया है: ”जैसे ही उन्हें पता चलता कि किसी जगह पर पुराने (इतिहास सम्बन्धी) कागज-पत्र मिलने की सम्भावना है, वह धोती, लम्बा काला कोट, सिर पर साफा पहने, अपने लिए भोजन पकाने के इने-गिने बर्तनों का थैला कन्धे पर डाले निकल पड़ते और उन्हें प्राप्त करने के लिए अथक परिश्रम करते।”  वे इतिहास संकलन मण्डल, पुणे के संस्थापक सदस्यों में से थे।

विशुद्ध अनुसंधान की धुन में राजवाड़े ने महाराष्ट्र भर में गाँव-गाँव घूमकर संस्कृत की पांडुलिपियों और मराठा इतिहास के स्रोत जमा किये। इस सामग्री को बाईस खण्डों में प्रकाशित किया गया। वैदिक तथा अन्य शास्त्रों के ठोस आधार पर आधारित राजवाड़े द्वारा मराठी में लिखित ‘भारतीय विवाह संस्थेचा इतिहास’ (1926) एक सर्वकालीन प्रासंगिक ग्रंथ है। ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ हिंदी में भी काफ़ी पढ़ी जाने वाली पुस्तक है।

प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज तक की उच्च शिक्षा से संबंधित अपने अनुभव को राजवाड़े ने ग्रंथमाला मासिक पत्रिका में ‘कनिष्ठ, मध्यम व उच्च शालान्तीत स्वानुभव’ (प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्चशालाओं के मेरे अनुभव) शीर्षक निबंध द्वारा प्रस्तुत किया। इस रचना में उन्होंने शिक्षा के व्यावसायिक हितों को सामाजिक उत्तरदायित्वों पर वरीयता देने की तत्कालीन परम्परा की कठोर आलोचना की। 1894 में अनुवाद आधारित ‘भाषांतर’ नामक मराठी पत्रिका सम्पादित करने के अलावा 1910 में उन्होंने पुणे में भारत इतिहास संशोधक मण्डल की स्थापना की और अपने द्वारा इकट्ठे किये गये ऐतिहासिक स्रोतों, कृतियों और स्वयं द्वारा किये गये ऐतिहासिक कायों को मण्डल के सुपुर्द कर दिया। उच्च रक्तचाप से ग्रस्त राजवाड़े 1926 के मार्च महीने में टिप्पणियों से भरे ट्रंक के साथ धुले गये। वहीं इस महान अन्वेषक, वैयाकरण, मानवशास्त्री और इतिहासकार का 31 दिसम्बर 1926 को देहांत हुआ।

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