बात 1903 की है। मद्रास के प्रेसिडेन्सी कालेज में बी.ए. में पढ़ाते समय प्रोफेसर इलियट ने एक छोटे छात्र को देखा। उन्हें लगा कि यह शायद भूल से यहाँ आ गया है। उन्होंने पूछा, तो उस 14 वर्षीय छात्र चन्द्रशेखर वेंकटरामन ने सगर्व बताया कि वह इसी कक्षा का छात्र है। इतना ही नहीं, तो आगे चलकर उसने यह परीक्षा भौतिकी में स्वर्ण पदक लेकर उत्तीर्ण की।
वेंकटरामन का जन्म तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में 7 नवम्बर, 1888 को हुआ था। उसके पिता श्री चन्द्रशेखर अय्यर भौतिक शास्त्र के अध्यापक तथा प्रख्यात ज्योतिषी थे। माता पार्वती अम्मल भी एक धर्मपरायण तथा संगीतप्रेमी महिला थीं। इस प्रकार उनके घर में विज्ञान, संस्कृत और संगीत का मिलाजुला वातावरण था। उनकी बुद्धि की तीव्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस समय अन्य छात्र खेलकूद में ही व्यस्त होते हैं, उस समय वेंकटरामन का एक शोधपत्र प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित हो चुका था।
शिक्षा पूर्ण कर वेंकटरामन ने कोलकाता में लेखाकार की नौकरी कर ली। यह बड़े आराम की नौकरी थी; पर उनका मन तो भौतिक शास्त्र के अध्ययन और शोध में ही लगता था। अतः इस नौकरी को छोड़कर वे कोलकाता विश्वविद्यालय के साइंस कालेज में प्राध्यापक बन गये। इस दौरान उन्हें शोध का पर्याप्त समय मिला और उनके अनेक शोधपत्र विदेशी विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। वे काम के प्रति इतने समर्पित रहते थे कि पढ़ाने के बाद वे प्रयोगशाला में आ जाते थे और कई बार तो वहीं सो भी जाते थे।
किसी भी पुस्तक को पढ़ते समय जो बात समझ में नहीं आती थी, उसे चिन्हित कर वे हाशिये पर क्यों या कैसे लिख देते थे। इसके बाद वे उसकी खोज में जुट जाते थे। इसी जिज्ञासा ने उन्हें महान वैज्ञानिक बना दिया। एक बार इंग्लैण्ड से लौटते समय पानी के जहाज की डेक पर बैठे हुए उन्होंने सोचा कि समुद्र का जल नीला क्यों है ? उस समय यह धारणा थी कि नीले आकाश के प्रतिबिम्ब के कारण ऐसा है; पर उन्हें इससे सन्तुष्टि नहीं हुई। अपने स्वभाव के अनुसार वे इस सम्बन्ध में गहन शोध में लग गये।
सात वर्ष के लगातार शोध के बाद उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उसेे आगे चलकर प्रकाश और उसके रंगों पर ‘रमन प्रभाव’ कहा गया। 28 फरवरी, 1928 को उन्होंने अपनी इस खोज की घोषणा की। इससे विश्व भर के वैज्ञानिकों में तहलका मच गया। इससे ऊर्जा के भीतर परमाणुओं की स्थिति को समझने में बहुत सहायता मिली। इसके लिए 1930 में उन्हें भौतिकी का विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
1954 में भारत सरकार ने देश के प्रति उनकी सेवाओं को देखकर उन्हें ‘भारत रत्न’ प्रदान किया। यह कैसा आश्चर्य है कि जिस उपकरण की सहायता से उन्होंने यह खोज की, उसे बनाने में केवल 300 रु. खर्च हुए थे। नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी डा. रामन ने विदेशों की सेवा के बदले बंगलौर स्थित ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ़ साइंस’ में निदेशक के पद पर काम करना पसंद किया। इसके बाद वे ‘रमन रिसर्च इन्स्टीट्यूट’ के निदेशक बने। जीवन भर विज्ञान की सेवा करने वाले डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन ने
21 नवम्बर, 1970 को जीवन से ही पूर्णावकाश ले लिया। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 28 फरवरी को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ घोषित किया है।
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