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स्वामी लक्ष्मणानंद बलिदान दिवस : अविस्मर्णीय धर्म यौद्धा की गाथा 

आज स्वामी लक्ष्मणानंद जी का बलिदान दिवस है. स्वामी जी भारत में धर्मांतरण के विरुद्ध एक मशाल थे. भारत में कन्वर्जन ने हमारे प्रतिमान नष्ट किए, हमारी परंपराओं को बाधित किया, हमारे समाज की दशा-दिशा बदली और इसके कारण ही न जाने कितने हिंदुओं का नरसंहार हुआ और न जाने कितने महापुरुषों ने कन्वर्जन के विरोध में कार्य करते करते अपने प्राण बलिदान कर दिए. ऐसे ही स्वामी लक्ष्मणानंद जी के आज बलिदान दिवस के दिन उनकी नृशंस हत्याकांड की कटुक स्मृतियाँ ध्यान में आती है. “ट्रुथ बिहाइंड द मर्डर ऑफ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती” नामक पुस्तक में उनकी हत्या की त्रासदी का उल्लेख है.

स्वामीजी कन्वर्जन के विरोध में मुखर थे, इस कारण उन पर कई बार प्राणघातक हमले हुए. यद्दपि स्वामी जी इन जानलेवा हमलों से भयभीत नहीं हुए तथापि ध्यान देने योग्य बात यह है कि किस प्रकार मुट्ठी भर की जनसँख्या वाले ईसाई समुदाय के लोग उन पर आठ बार प्राणघातक वार करने का दुस्साहस करते रहे. भारतीय समाज के समाज के समक्ष आज भी यह यक्षप्रश्न है कि उस कालखंड में देश में अंततः ऐसा क्या चल रहा था कि ईसाई मिशनरियां इतनी निर्भीक और अपराधी चरित्र वाली हो गई थी. 1969 में भी रूपगांव चर्च  पादरी ने ईसाइयों के साथ उन पर हमला किया था. 2008 के जन्माष्टमी की रात्रि के समय हत्याकांड में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्वामी जी के साथ भक्तिमयी माता, अमृतानंद बाबा, किशोर बाबा और पुरुबग्रंथी जी की भी हत्या करा दी गई थी. 84 वर्षीय इस संत से ईसाई मिशनरियां अत्यंत भयभीत रहती थी जिसके परिणाम स्वरुप उनकी हत्या कर दी गई. स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या के दिन उनके पास कोई सुरक्षा गार्ड नहीं था, क्या यह मात्र संयोग था या कोई षड्यंत्र? हत्या के समय केंद्र में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार थी. इस सरकार की ओर से स्वामी जी की हत्या के सम्बन्ध में जो व्यक्तव्य जारी हुआ वह ईसाईयों के पक्ष में था. स्वामी लक्ष्मणानन्द के हत्यारों की गिरफ्तारी और उनके अवैध हथियारों की व्यवस्थित जांच नहीं हुई थी. इस हत्याकांड में एक ईसाई एनजीओ के संलिप्त होने की संभावना पता चली थी. तुर्रा यह रहा कि स्वामी जी की हत्या के बाद जो प्रतिक्रिया हुई उसके लिए इन ईसाई संस्थाओं, चर्चों और संदिग्धों को भी केंद्र सरकार की ओर से राहत राशि प्रदान की गई थी. उनके संघर्षशील स्वभाव का ही परिणाम था कि गोवर्धन पीठ के पूज्य शंकराचार्य जी ने उन्हें “विधर्मी कुचक्र विदारण महारथी” की उपाधि दी थी. वे जनजातीय समाज को निर्भय, शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत बनाना चाहते थे. उन्होंने कृषि की नई तकनीको और तरीकों से जनजातीय समाज को परिचित कराया और कंधमाल के चकपाद में गुरुकुल पद्धति पर आधारित एक विद्यालय, महाविद्यालय और कन्याश्रम प्रारंभ किया. कटिंगिया ग्राम में में सब्जी सहकारी समिति का गठन भी कराया. उनके इन प्रयासों से जनजाति समाज शिक्षित और आर्थिक मोर्चे पर समृद्ध हुआ. जनजाति समाज के बीच उन्होंने अनवरत चार दशक तक काम किया.

उड़ीसा के जनजातीय क्षेत्रों में भगवान की तरह पूजे जाने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद जी वेदांत दर्शन और संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य विद्वान थे, उन्हें “वेदांत केसरी” के नाम से जाना जाता था. उनके समाज जागरण के कार्यों ने कंधमाल क्षेत्र में हिंदू बंधुओं की जीवन शैली को बदल दिया था. स्वामी लक्ष्मणानंद जी के कार्यों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अत्यंत प्रभावित हुआ. संघ ने स्वामी जी की राष्ट्रीयता से ओत प्रोत मानसिकता को पहचानकर प्रारंभ से ही उनकी गतिविधियों को आदर सम्मान के साथ समर्थन देना प्रारंभ कर दिया था. उनके कंधमाल मे  जनजातीय क्षेत्र में सक्रिय होते से ही से ही आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक श्री रघुनाथ सेठी का संग साथ मिलने लगा था. संघ ने अपने स्वयंसेवकों के माध्यम से स्वामीजी की गतिविधियों व प्रकल्पों की बड़ी ही गंभीर और चैतन्य देख रेख व चिंता की. 

जनजातीय क्षेत्र में स्वामी जी ने शिक्षा के प्रति ऐसा आग्रह उत्पन्न किया कि वहां रात्रि विद्यालय प्रारंभ हुए फलस्वरूप कंधमाल में धर्मांतरण की गतिविधियाँ प्रभावित होने लगी. इस क्षेत्र में विदेशी धन से संचालित और कार्यरत मिशनरी संस्थाओं ने वनवासियों को बहला फुसलाकर धर्म परिवर्तन का जो जाल फैला रखा था, स्वामी जी के जन जागरण के कार्यक्रमों से वह जाल कटने लगा.  उनके प्रयासों से ही उदयगिर और रायकिया के कृषक सेम फल्ली का गुणवत्तापूर्ण और बड़ी मात्रा का रिकार्ड उत्पादन करने में सक्षम हैं. कम ही लोगो को पता है कि संयुक्त वन प्रबंधन प्रणाली का पहलेपहल प्रयोग स्वामी जी ने 1970 में किया था. धर्म के माध्यम से वनों व् पर्यावरण की रक्षा हेतु उन्होंने अनेकों स्थानों पर वनवासी देव स्थान (धर्माणीपेनू) की और इन देवस्थानों को अपनी गतिविधियों का संपर्क केंद्र बनाया. वे अपने उद्बोधनों में वनवासियों के आसूं और रक्त  गिरने को क्षेत्र के लिए अपशगुन बताते थे.  वे प्रायः कहा करते थे कि जहां वनवासी का आंसू या खून गिरता है वह क्षेत्र समृद्ध नहीं होगा. उनके सभी कार्यों के केंद्र में गौरक्षा और कन्वर्जन के विरुद्ध जनजागरण आवश्यक रूप से रहता था. 

ओडिशा के वन प्रधान जिले फूलबनी (कंधमाल) के ग्राम गुरजंग में 1924 में जन्मे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती बाल्यकाल से ही समाज कार्य में लीन हो गए थे. स्वामी जी ने न केवल आध्यात्मिकता के महासागर में गहरे पैठ धर्म के मर्म को समझा अपितु साथ साथ वे एक दिन हिमालय की ओर प्रयाण भी कर गये. हिमालय में साधना के पश्चात जब स्वामी जी 1965 में लौटे तो गोरक्षा आंदोलन से जुड़ गए. हिमालय से लौटकर स्वामी जी ने वनग्राम  फुलबनी (कंधमाल) के चकपाद गांव को अपना केंद्र बनाया. वन्य क्षेत्रों में जनजातीय बंधुओं हेतु उन्होंने सेवाकार्य संचालित प्रारंभ कर दिए. उनके सेवा कार्यों की ख्याति कंधमाल के वनग्रामों से निकलकर भुवनेश्वर तक पहुंचने लगी. उनके सेवा प्रकल्पों ने ऐसे एतिहासिक सेवा कार्य किये कि स्वामी जी आमूलचूल कंधमाल के हो गए और कंधमाल का कण कण, जन जन स्वामी का हो गया. इसके बाद तो सेवा और जनजातीय क्षेत्रों में धर्म जागरण का उनका यज्ञ चार दशकों तक अनवरत चला. स्वयं के प्रति उपजी इस क्षेत्र वासियों की श्रद्दा और विश्वास के आधार पर उन्होंने उन्होंने उपेक्षित व जीर्ण शीर्ण बिरुपाक्ष्य, कुमारेश्वर और जोगेश्वर मंदिरों का जीर्णोद्धार कार्य भी किया. इन मंदिरों से न केवल समाज जागरण हुआ बल्कि इस समूचे क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों को एक बड़ी चुनौती भी मिली. आज बलिदान दिवस के दिन उन्हें अनंत प्रणाम. 

प्रवीण गुगनानी, guni.pra@gmail.com 9425002270 

विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार 

बुद्ध जयंती, बुद्ध पूर्णिमा, वेसाक या हनमतसूरी समूचे भारत वर्ष के लिए एक महत्वपूर्ण, आस्था जन्य और उल्लासपूर्वक मनाया जाने वाला पर्व है। विश्व के अनेक भागों में फैले हुए हिंदू, बौद्ध इस पर्व को वेसाक (हिंदू कैलेंडर के वैशाख का अप्रभंश) के नाम से भी जानतें हैं। भगवान् बुद्ध के अवतरण के संग संग यह उनके ज्ञान प्राप्ति का दिवस भी माना जाता है। 483 ईसा पूर्व भारत मे जन्मे भगवान बुद्ध की जयंती का भारत के साथ साथ चीन, तिब्बत, जापान, कोरिया, नेपाल, सिंगापुर, विएतनाम, थाईलैंड, लाओस, कम्बोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, ताइवान, हांगकांग, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, रूस, तुर्किस्तान, मंगोलिया बांग्लादेश आदि अनेक देशों में मनाया जाना हमारे प्राचीन काल से विश्वगुरु होने का प्रामाणिक चिन्ह है। यह हमारी प्राचीन काल से विश्वगुरु होने की अवधारणा को सुस्पष्ट और संपुष्ट करता है। इन देशों का राजनैतिक नेतृत्व परिस्थिति और सामरिकता वश भारत के प्रति चाहे जैसी भी कुटनीतिक या राजनयिक भाषा बोले किन्तु इन देशों के आस्था वान बौद्ध बंधू भारत भूमि के प्रति अपने बौद्धजन्य आदर को कभी भी विस्मृत नहीं कर हैं।

इन देशों में बौद्ध धर्म पहली शताब्दी में ही प्रवेश कर गया था। इन देशों में हजारों की संख्या में सांस्कृतिक और धार्मिक स्मारक, पूजन स्थान, ग्रन्थ, संस्थान, शिलालेख, खगोलीय अनुसंधान केंद्र, ज्योतिषीय संस्थान, व्याकरण सिद्धांत, गणितीय सिद्धांत, विशाल प्रस्तर निर्माण आदि ऐसे अमिट और अक्षुण्ण श्रद्धा केंद्र हैं जो यहां भारत का नाम बरबस ही नहीं अपितु श्रद्धापूर्वक लेते रहने को विवश करते हैं। हजारो वर्षों से इन देशों में ये बौद्ध और हिंदुत्व आधारित विचार संस्थान प्रज्ञा, संज्ञा और विज्ञा के प्रवाह को सतत बनाए हुए है जिसके सकारात्मक उपयोग का समय अब आ समय अब आ गया है।  अवसर है कि इन देशों मे हिंदुत्व जनित बुद्धत्व के प्रवाह का उपयोग भारत को पुनः विश्वगुरु बनानें की दिशा में पुनः प्रारम्भ हो। हिंदू-बौद्ध संयुक्त रूप में हम विश्व के दुसरे सबसे बड़े धर्म के रूप में स्थापित हैं किन्तु बौद्ध और हिंदू को अलग अलग देखे जाने की षडयंत्रकारी दृष्टि से हम विश्व मे चौथे स्थान पर देखे जाते हैं

विश्व के प्रथम पांच विशाल धर्मों में से दो धर्म भारत भूमि से उत्पन्न हैं, एक हिंदुत्व और दूजा हिंदुत्व से उपजा बुद्धत्व। हम हिंदू और बौद्ध  मिलकर विश्व के सबसे बड़े धर्म के रूप में स्वीकार्य और मान्य हैं।  सम्पूर्ण विश्व में संस्कृति स्त्रोत और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में हमें जो वैश्विक मान्यता और आस्था प्राप्त है उसमें एक बड़ा कारण हिंदुत्व जनित बौद्ध धर्म ही है। भारत की विश्वगुरु की पृष्ठभूमि और इतिहास की वैश्विक मान्यता हिन्दू-बौद्ध की संयुक्त सांस्कृतिक पीठ का ही परिणाम है। भारत के विभिन्न जगत प्रसिद्द शैक्षणिक संस्थानों के विषय में भी यही तथ्य शत प्रतिशत पुनरावृत्त होते हैं। आज भारत वैश्विक राजनीति में अपनी भूमिका को नए सिरे से तराश रहा है। आज भारत अपनें अतीत के अनुरूप विश्व का नेता नहीं बल्कि पुनः विश्वगुरु या जगतगुरु बनना चाह रहा है, और हम इन परिस्थितियों में भारत भूमि या हिंदू जनित बौद्ध धर्म के विश्व भर में फैले अनुयायी, ग्रन्थ, संस्थान और विचार संपदा भारत को गुरुतर स्थान पर विराजित करते दृष्टिगत होतें हैं। बौद्ध धर्म आधारित चार आर्य सत्य एवं आर्य समूचे आर्यावर्त ही नहीं अपितु कई यूरोपीय देशों में भी अपनें विचार प्रभाव का विस्तार करता दृष्टिगत हो रहा है। यदि हम इन मूल सनातन, वैदिक व वेदजनित बौद्ध सिद्धांतों पर विचार करें तो हमें स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि वैश्विक स्तर पर हम किस प्रकार सहज स्वीकार्य ही नहीं वरन श्रद्धेय व पीठाधीश की भूमिका में हैं।

आज सम्पूर्ण विश्व में अनेकों राष्ट्र जिन चार बौद्ध जनित आर्य सत्य के मार्ग पर चल रहें हैं वे हैं – दुःख, दुःख कारण, दुःख निरोध तथा दुःख निरोध का मार्ग। इस आर्य सत्य सिद्धांत की वैज्ञानिकता ने विश्व भर में भारतीयता को श्रद्धा से देखनें की दृष्टि विकसित कर दी है किन्तु यह दुखद ही रहा कि इस विश्व भर में विस्तारित इस श्रद्धा भाव को हम पिछले कुछ सौ वर्षों के कालखंड में नेतृत्व का  भाव नहीं दे पाए हैं। बुद्ध धर्म में आर्य अष्टांग मार्ग में प्रस्तुत किये हैं जो सूत्र दिए हैं उनकी आज वैज्ञानिक मान्यता निर्विवाद हो गई है। ये अष्टांग मार्गहैं – सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि। जीवन के प्रारम्भ से लेकर समाधि तक के प्रत्येक अंश को अपनें में समाहित कर लेनें वाले यह आर्य अष्टांग मार्ग अपनें आप में एक ऐसी जीवन शैली को समेटें हुए हैं जो आगामी कई हजार वर्षों की अति विकसित होनें वाली जीवन शैली में और अधिक से अधिक प्रभावी, प्रासंगिक और प्रदीप्त होते जायेंगे। प्रज्ञा, शील और समाधि आधारित विचार हमें अरिहंत भाव भी देते हैं और अद्भुत विश्वविजेता होने का भाव भी। इसके भाव हमें समूचे विश्व को ही नहीं अपितु ब्रह्माण्ड का सकारात्मक वैचारिक और सकारात्मक उपयोग कर लेनें का विचार और क्षमता दोनों भी प्रदान करते हैं। कालातीत या हर समय में संवेदनशील, सटीक और समर्थ जीवन शैली को जन्म देनें वाले हमारें हिंदू-बौद्ध सिद्धांत और संस्कार हमें विश्व नेतृत्व की अद्भुत क्षमता प्रदान करतें हैं। 

आज के नरेंद्र मोदी कालखंड मे भारतीय विदेश नीति में दो शब्द निर्भीकता और बहुलता से कहे जा रहें है, “लिंक वेस्ट एंड लुक ईस्ट” अर्थात पश्चिम से जुड़ों और पूर्व की ओर देखो अर्थात पश्चिम के तकनीकी सकारात्मक पक्ष को अपनाते चलो और उसमें सांस्कृतिक, शैक्षणिक, विश्व शांति और पर्यावरण आधारित सकारात्मकता प्रवाहित करते चलो। मोदी जी की ईस्ट अर्थात पूर्व की ओर देखते रहनें और संवाद बढानें की इस नीति के अंतर्गत आनें वाले अधिकाँश देशों में बौद्ध धर्म का प्रभाव और भगवान बुद्ध के भारत से जुड़े होनें के कारण भारत के प्रति आदर और श्रद्धा भाव इस नीति को परिणामों की ओर तेजी से अग्रसर कर सकता है। दक्षिण प्रशांत महासागरीय 13 देशों का समूह राष्ट्र संघ में एक मुश्त बड़े समर्थन के रूप में काम आ सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद् में स्थायी सीट के लिए दशकों से प्रयास रत भारत के लिए इन 13 देशों से सांस्कृतिक रूप जुड़े होनें को राजनैतिक व कूटनीतिक बायस से देखनें और तराशनें की आवश्यकता है और जो कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सतत चल रही है।

भारतीय वैदेशिक गलियारों में जो दूसरा सकारात्मक शब्द इन दिनों बहुलता से चल रहा है वह है “बौद्ध सर्किट”। हिंदू बौद्ध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए देशों को बौद्ध सर्किट से जोड़ना और नए सांस्कृतिक, शैक्षणिक आयामों पर काम करते हुए एक नए नहीं अपितु प्राचीनतम आयाम के नए स्वरूपों पर काम करना अभूतपूर्व अवसरों को जन्म दे रहा है। वस्तुतः हाल के चार-पांच सौ वर्षों की वैश्विक राजनीति सैन्य, आर्थिक, तकनीक और अन्य प्रकार के भौतिकता वादी दृष्टिकोणों से बेतरह प्रभावित रही है। इस प्रकार की राजनीति में परस्पर प्रेम, अहिंसा, गुरुतर भाव, सांस्कृतिक विकास, शैक्षणिक आदान प्रदान आदि शब्दों का प्रचलन कम से कमतर ही नहीं अपितु समाप्त प्राय ही हो गया है। यही वह कोण है जहां से भारत को हिन्दू-बौद्ध पृष्ठभूमि उसे सम्पूर्ण विश्व में चौतरफा संदेशवाही हो जानें के अवसर प्राप्त हो रहें हैं। बौद्ध सर्किट के राजनैतिक सिद्धांत पर अधिकतम काम से भारत को वैश्विक नेतृत्व की पीठ का स्वाभाविक और नेसर्गिक अधिकारी समझनें के अवसर उत्पन्न किये जा सकतें हैं। भारत-चीन के मध्य आ गए सैन्य और संप्रभुता आधारित तनाव को भी (अति सतर्कता और सचेत रहकर) यदि बुद्धत्व के आधार पर सुलझानें के नए कोणों से प्रयास हो तो यह समूचे विश्व के लिए नूतन और प्रेरणास्पद हो सकता है। 

प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार मे राजभाषा सलाहकार 9425002270 

भारत में सार्वजनिक गणेशोत्सव सातवाहन, राष्ट्रकूट और चालुक्य वंशो से लेकर शिवाजी के शासन तक निर्बाध चलता रहा है। पेशवाओं के समय पर तो गणेशोत्सव को राष्ट्रदेवता की मान्यता के साथ मनाया जाता था। ब्रिटिशकाल में गणेश स्थापना व विसर्जन की परंपरा पर रोक लगने लगी और यह क्रम कहीं मद्धम पड़ा तो कहीं बंद हो गया। लोकमान्य तिलक ने वर्ष 1893 में दशकों बाद पहली बार सार्वजनिक गणेशोत्सव मनाया। गणेश स्थापना और विसर्जन के मध्य के ये दस दिन स्वतंत्रता सेनानियों के मिलन, चिंतन, बैठक स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु योजना गढ़ने व उन्हें क्रियान्वित करने के दिन बन गए। लोकमान्य तिलक व वीर सावरकर ने प्रथमपूज्य गणेश को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बना दिया। श्रीगणेश स्वाधीनता के देवता बन गए। यह अवसर धार्मिक पूजापाठ के साथ साथ अंग्रेजों के विरोध, सामाजिक समरसता के निर्माण, अस्पृश्यता व अन्य सामाजिक बुराइयों के विरोध का भव्य अवसर बन गया। विभिन्न समाजों व सामाजिक संगठनों के एकमंच पर आकर विमर्श करने, संगठित होने, संवाद करने व मतभेद दूर करने हेतु गणेशोत्सव का भरपूर उपयोग हुआ। प्रमुखतः महाराष्ट्र, समूचे हिंदी प्रदेशों और कहीं कहीं दक्षिणी राज्यों में भी गणेशोत्सव के मंच पर राष्ट्रीयता और स्वशासन के स्वर मुखर होना प्रारंभ हो गए थे। दक्षिणी राज्यों में गणेश जी का “कला शिरोमणि” नाम इस कालखंड में नए सिरे से स्थापित हुआ। वीर सावरकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्टर चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू जैसे अनेक नेताओं ने प्रतिवर्ष गणेशोत्सव में भाषण दिए। गणेश पंडाल जनप्रबोधन के जागृत केंद्र बन गए। 

               सर्वप्रथम श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी ने पुणे में 1892 में सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारंभ कर स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देने का प्रयास किया। इस मंच से गोवा मुक्ति संग्राम के क्रांतिकारियों को प्रेरणा व शक्ति देने के भी सार्थक प्रयास हुए। उस कालखंड में भाउसाहेब रंगारी के बाड़े को क्रांतिकारियों का मायका कहा जाने लगा था। 

          1893 में लोकमान्य ने श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई के माध्यम से एक बड़ा गणेश पंडाल प्रारंभ करवाया व उसमें वे स्वयं उपस्थित रहे। इस पंडाल से स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने हेतु अनेक युवाओं, संतो, नेताओं व पहलवानों को संगठित किया गया। बाद में लोकमान्य तिलक ने धरोहर नाम से प्रसिद्ध केसरबाड़ा में 1894 में सार्वजनिक गणेशोत्सव की भी स्थापना की। 

पुणे के कसबा पेठ गणपति पंडाल में 1904 में हुए संस्कृत श्लोक पाठ के कार्यक्रम में अमर स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर उपस्थित थे। इस पंडाल से  हिंदवी स्वराज स्थापना जैसे विषयों पर कई जन प्रबोधन हुए जिनसे समूचे राष्ट्र में जागृति आई। 

             तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा का नारा देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी पुणे यात्रा के दौरान शनिवार वाडा पर जनसमुदाय से आर्थिक सहयोग का आग्रह रखा था। तब गंगूबाई नामदेवराव मते ने एक क्षण में अपने सोने के कंगन और कानों की बालियां उतारकर नेताजी के हाथों में रख दी थी। फिर तो राशि, आभूषण, संपत्ति आदि दान देने वालो का तांता लग गया था वहां। पुणे व्यापारी मंडल के सदस्यों ने भी न केवल नगद राशि और सोना दिया अपितु स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भाग भी लिया। 

               देश भर के गणेश पंडाल पुणे के गणेशोत्सव से प्रेरणा लेकर अपनी झांकियां व शोभा यात्राएं आदि निकालने लगे। 1945 में पुणे की एक झांकी में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को स्वाधीनता के सूर्योदय के रथ के सारथी के रूप में बताया गया। रथ में श्रीगणेश विराजमान थे। यह झांकी इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसे देखने देश भर से लोग आने लगे। जनता के आग्रह पर और दर्शानार्थियों का तांता देखकर इस झांकी को 10 दिन के स्थान 45 दिन बाद विसर्जित किया गया था। 

              गणेशोत्सव में देश भर के स्वातंत्र्य यौद्धा, विचारक चिंतक द्वारा जा जाकर भाषण देने व जनजागरण करने का कार्य अद्भुत रूप से गति पकड़ चुका था। इन गणेश पंडालों में एक ओर रात्रि में ब्रिटिश शासन विरोधी, अस्पृश्यता विरोधी, जातिवादी विरोधी भाषण होते थे तो दिनभर भी बड़ी सक्रियता बनी रहती थी। दिन में यहां दंड (लाठी), मलखंभ, कुश्ती, तलवारबाजी, निशानेबाजी के प्रदर्शन व प्रशिक्षण होते थे।  

               गणेशोत्सव के इस बढ़ते स्वरूप से अंग्रेज घबराने लगे। रोलेट कमेटी ने इस पर चिंता व्यक्त की। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों और बच्चों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेज विरोधी गीत गाती हैं और पर्चे वितरित करती हैं। इन पर्चों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का संदेश होता था। स्वाधीनता आंदोलन को धर्म के माध्यम से एक नई शक्ति, संगठन व ऊर्जा देने की प्रेरणा दी जाती थी।

        इस प्रकार गणेशोत्सव को प्रमुखतः लोकमान्य बालगंगाधर तिलक व वीर सावरकर द्वारा एक अभियान के रूप में स्थापित किया गया। स्वाधीनता आंदोलन को गति देने व समूचे राष्ट्र को जागृत करने के गुण के कारण यह उत्सव सर्वधर्म प्रिय राष्ट्रीय उत्सव बन गया था। स्वराज के ध्येय को इन गणेश पंडालों के माध्यम से ही राष्ट्रीय ध्येय बना दिया गया और अद्भुत समाज जागरण का कार्य हुआ। 

         गणेशोत्सव की चर्चा बाल गंगाधर तिलक के बिना प्रारंभ नहीं होती व वीर सावरकर व कवि गोविंद की चर्चा के बिना समाप्त नहीं हो सकती। वीर सावरकर जी ने तिलक जी के ध्येय को आगे बढ़ाते हुये “मित्रमेला” नाम की एक संस्था बनाई थी जिसका प्रमुख कार्य था पोवाड़े गाना। पोवाड़े एक प्रकार के मराठी लोकगीत होते हैं। इस संस्था के पोवाड़े गायन ने समूचे महाराष्ट्र विशेषतः पश्चिमी महाराष्ट्र मे बड़ा ही उल्लेखनीय समाजजागरण किया व चहुं ओर अंग्रेजों के विरुद्ध हल्ला बोल जैसी स्थिति का निर्माण कर दिया था। मित्रमेला के मंच पर कवि गोविंद के पोवाड़े सुनने हेतु कई कई नगर उमड़ घुमड़ जाते थे।

            इस प्रकार वीर सावरकर और लोकमान्य तिलक द्वारा प्रज्ज्वलित गणेश उत्सव की यह ज्योति बाद में ज्वाला बन गई थी। वर्तमान में इस गणेशोत्सव के लगभग 50 हजार पंडाल केवल महाराष्ट्र मे ही लगते हैं व संपूर्ण भारत मे लगभग तीन लाख पंडाल गणेश लगते हैं। इस उत्सव से लगभग दो करोड़ मानव दिवस के रोजगार की उत्पत्ति होती है व अरबों रुपयों का कारोबार इस दस दिवसीय उत्सव से होता है।

           इस प्रकार हमारे गणेश उत्सव का धार्मिक ही नहीं अपितु सामाजिक व राष्ट्रीय महत्त्व रहा है। इस उत्सव को मनाने वाले हम हिंदू बंधुओं का भी दायित्व बनता है कि हम इस उत्सव को सामाजिक समरसता स्थापित करने, जातिगत भेदभाव मिटाने और राष्ट्रीयता के भाव को स्थापित करने की दिशा में एक शस्त्र की तरह उपयोग करें। आज के दौर में आवश्यकता है कि इस उत्सव के  माध्यम से हिंदुत्व के परम प्रयोगवादी, प्रगतिवादी व परम प्रासंगिक रहने के सारस्वत भाव की प्राण प्रतिष्ठा की जाए। गणेश पंडालों से, स्थापना व विसर्जन की शोभायात्राओं को फ़िल्मी गीतों, नृत्योंम शराब व अन्य व्यसनों से दूर रखा जाए; यही लोकमान्य तिलक व वीर सावरकर जैसे अनेक स्वातंत्र्य योद्धाओं को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

        महाराष्ट्र के लगभग 50 हजार सार्वजनिक गणेश पंडाल व देश भर के लगभग तीन लाख पंडालों में स्वाधीनता के अमृत महोत्सव को भी उत्साह के साथ मनाया जाए तो राष्ट्रीयता को नए प्राणतत्व मिलेंगे। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हम गणपति बप्पा से आराधना करें कि स्वतंत्रता के सौवें वर्ष के आने से पूर्व भारत माता अपने परम वैभव के शिखर पर विराजमान हो व हम एक विकसित व सर्वशक्तिशाली राष्ट्र बन जाए। 

प्रवीण गुगनानी, 

लेखक विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार हैं 

जनजातीय मुद्दों पर प्रतिदिन अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले विभिन्न संगठन व राजनैतिक दल डिलिस्टिंग जैसे संवेदनशील मुद्दे पर चुप क्यों हैं? स्पष्ट है कि वे कथित धर्मान्तरित होकर जनजातीय समाज के साथ छलावा और धोखा देनें वाले लोगों के साथ खड़े हैं. ये कथित दल, संगठन और एनजीओ भोले भाले वनवासी जनजातीय समाज के साथ नहीं बल्कि उन लोगों के साथ खड़े हैं जो धर्मांतरण करके  जनजातीय परम्पराओं को छोड़ चुके हैं और आरक्षण का 80 प्रतिशत लाभ केवल अपने परिवार, कुनबे और आसपास के 20 प्रतिशत लोगों को दिला रहे हैं. इन कथित नकली जनजातीय समाज के लोगों के कारण आरक्षण का लाभ हमारे वास्तविक और सच्चे वनवासी समाज को मिल ही नहीं पा रहा है. आरक्षण की आत्मा व मूल तत्व को इन लोगों ने नष्ट कर दिया है. कवि दुष्यंत की ये पंक्तियाँ यहां पूरी तरह चरितार्थ होती है – यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।  

                आज जबकि देश में एक बड़ा ही सकारात्मक शब्द गुंजायमान हो रहा है – डिलिस्टिंग.   ग्रामसभा, पंचायत, चौपाल, विधानसभा, लोकसभा और समूचा समाज इन दिनों डिलिस्टिंग की चर्चा कर रहा है. जनजातीय विषयों पर बड़ी मुखरता से बोलने वाले और इनके कंधों पर अपनी बंदूक रखकर राजनीति करने वाले व्यक्ति, संगठन, राजनैतिक दल, एनजीओ सभी इस विषय पर चुप हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार को छोड़ दें तो इस संवेदनशील व अतीव महत्वपूर्ण विषय पर सभी चुप्पी साधे हैं और देखो और बढ़ो की सुरक्षात्मक नीति अपनाए हुए हैं.         

         डीलिस्टिंग के अंतर्गत संविधान के अनुच्छेद 342 में अनुच्छेद 341 जैसा मूल तत्व स्थापित किया जाना है अर्थात अनुसूचित जनजातियों के मानक में अनुसूचित जातियों की भांति धर्मपरिवर्तित लोगों को डिलिस्ट करना है अर्थात बाहर करना है. ई साई  व मु स्लिम धर्म में धर्मांतरित हो चुके विकसित कथित जनजातीय लोग अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ उठाते हैं और जनजातीय आरक्षण का भी. 1970 में डॉ कार्तिक उरांव ने लोकसभा में 348 सांसदों के हस्ताक्षर से इस विसंगति के विरोध में प्रस्ताव रखा था. यदि डॉ. कार्तिक उरांव का यह प्रस्ताव मान लिया जाता तो आज जनजातीय आरक्षण में चल रहा अन्याय का पूर्ण चक्र ही समाप्त हो जाता. आरक्षण की मूल आत्मा के अनुरूप लाखों वंचित व निर्धन जनजातीय परिवारों का उन्नयन हो चुका होता. कार्तिक उरांव  जी के उस प्रस्ताव को संविधान में सम्मिलित कराना ही आज के डिलिस्टिंग अभियान का प्रमुख उद्देश्य है. भगवान बड़ादेव या पड़ापेन या भोलेनाथ जनजातीय समाज के आराध्य हैं और डिलिस्टिंग का बड़ा ही सरल अर्थ है “जो भोलेनाथ का नहीं वह हमारी जाति का नहीं”. 

       डिलिस्टिंग के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का केरल राज्य बनाम चंद्रमोहन का निर्णय अतीव प्रासंगिक है. जस्टिस वीएन खरे सीजे, एसबी सिन्हा एवं एसएच कपाड़िया ने कहा कि “आर्टिकल 342 के अनुसार अनुसूचित जनजातियों को आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए, जहां से वे पीड़ित हैं, संरक्षण प्रदान करने के प्रयोजन के लिए अधिकार प्रदान करना है. यहां जहां वे हैं पद का आशय जिस रीति रिवाजों, परम्पराओं, आदि विश्वास और आस्था मय संस्कृति, जिसे सनातन धर्म कहा जाता है, से है.” चूंकि पीड़िता के माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया है, इसलिए पीड़ित अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है. धर्म परिवर्तन के कारण कोई जनजाति व्यक्ति जनजाति नहीं रह जाता है, जबकि संविधान (अनुसूचित जाति) [(केंद्र शासित प्रदेश)] आदेश, 1951 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियों के संबंध में यह दिखाने के लिए कि कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, सिख या बौद्ध से अलग धर्म को मानता है, उसे समझा नहीं जाएगा. अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए, ऐसा कोई प्रावधान संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में निहित नहीं है। हमारी राय में यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया जा सकता है. 

          आज आरक्षण सुविधाओं का 80 प्रतिशत लाभ समाज का एक ऐसा धर्मांतरित वर्ग उठा लेता है जो धनाड्य है व सभी दृष्टि से विकसित है. हमारे देश का जनजातीय समाज समूचे राष्ट्र हेतु एक श्रमशील, दाता, सबसे समरस होने वाला किंतु स्वयं के महत्त्व से अनभिज्ञ व भोला भाला समाज रहा है. इस समाज के भोलेभाले स्वभाव का ही परिणाम रहा कि लालची, देश विरोधी व समाज में अलगाव घोलने वाले तत्वों हेतु जनजातीय समाज गतिविधियों का केंद्र रहा है. देश के जनजातीय समाज को मुख्यधारा से बाहर रखने व इन्हें मिलने वाले लाभों से इन्हें वंचित रखने के कार्य के केंद्रबिंदु वे लोग रहे जो इस समाज के ही हैं व इस समाज को मिलने वाली शासकीय सुविधाओं का लाभ उठाकर उच्चवर्गीय हो गए हैं. दुखद स्थिति है कि आरक्षण का लाभ उठाने हेतु मु स्लिम समाज ने इस समाज की युवा भोली भाली लड़कियों को लवजि हाद का शिकार बनाने का अभियान चला रखा है और ई साई समाज ने इस वंचित जनजातीय समाज को धर्मांतरण से अपनी विभाजनकारी गतिविधियों का केंद्र  बनाया हुआ है.

         जनजातीय समाज ने असम में “मेंठाग रोग मेंठाग अजक कोंग” का नारा लगाया, में “अबुवा दिशुम अबुवा राज” का नारा लगाया, महाराष्ट्र में “आमच्या गावांत आमच्या सरकार” का नारा लगाया, उड़िसा में “आमोरो गारे आमोरो  शासन” का नारा लगाया मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लोगों ने “मावा नाटे मावा राज” का नारा लगाया. ये सारे नारे व आंदोलन अच्छे शब्दाडंबर से बंधे हुए भाषणों से लदे फदे और जनजातीय समाज हेतु बड़े ही हितकारी प्रतीत होते हैं किंतु अधिकाँश अवसरों पर यह देखने में आता है कि हमारे भोले भाले वनवासी समाज को देश के विभाजनकारी, विघ्नसंतोषी वामपंथी अपने षड्यंत्रों मे फंसा लेते है. 

             संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अखिल भारतीय व राज्यवार आरक्षण तथा सरंक्षण की व्यवस्था की गई थी. सूची जारी करते समय धर्मांतरित ई साई और मु स्लिमों को अनुसूचित जाति में तो शामिल नहीं किया गया किंतु अनुसूचित जनजातियों की सूची से धर्मांतरित होने वालों को इस सूची से बाहर नहीं किया गया और आज यह बड़ी विसंगति है. इस कारण हमारे समाज में आरक्षण की मूल भावना व आत्मा ही नष्ट हो रही है. इस विसंगति पर कार्तिक उरांव जी ने “20 वर्ष की काली रात” पुस्तक भी लिखी.  इस विसंगति को दूर करने के लिए तब संयुक्त संसदीय समिति का गठन भी हुआ था जिसने अनुच्छेद 342 में धर्मांतरित लोगों को बाहर करने के लिए 1950 में राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश में संशोधन की अनुशंसा की थी. इस दिशा में 1970 के दशक में प्रयास जारी थे किंतु कानून बनने से पहले ही लोकसभा भंग हो गई. जनसँख्याविद डॉ. जे. के. बजाज के अध्ययन में भी इस प्रकार के अन्य तथ्य समाज व शासन के समक्ष रखे गए थे व ये सुझाव दिए गए थे –  

*राजनीतिक दल अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीट पर धर्मांतरित व्यक्ति को टिकट नहीं दें.

*अनुसूचित जनजाति सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधि इस मांग के समर्थन में आएं व धर्मांतरित व्यक्तियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से डिलिस्ट करने की मांग करें. 

*जनजातीय वर्ग के वंचित वर्ग के साथ कर रहे इस प्रकार के समस्त आरक्षणधारी जन प्रतिनिधियों को पदों से हटाने हेतु वातावरण तैयार करें.  

*जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सरकारी नौकरियों को हथियाने वाले षड्यंत्रकारी धर्मांतरित व्यक्तियों के विरुद्ध न्यायालयीन कार्यवाही हो.  

*विकसित जनजातीय बंधू अपने समाज के वंचित वर्ग को आरक्षण का लाभ दिलाने हेतु वातावरण निर्मित करें. 

लेखक विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार हैं 

26 नवम्बर संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा संविधान को अपनाया गया। स्वतंत्रता मिलते ही देश को चलाने के लिए संविधान बनाने के लिए काम शुरू कर दिया गया। इसी कड़ी में 29 अगस्त 1947 को भारतीय संविधान के निर्माण के लिए प्रारूप समिति बनाई गई। इसके अध्यक्ष के रूप में डॉ. भीमराव अंबेडकर को जिम्मेदारी सौंपी गई। दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन करने के बाद डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार किया। 26 नवंबर 1949 को इसे भारतीय संविधान सभा के समक्ष रखा गया। इसी दिन संविधान सभा ने इसे अपना लिया। इसी कारण 2015 से हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

26 नवंबर 1949 को लागू होने के बाद संविधान सभा के 284 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद 26 जनवरी को इसे पूर्ण रूप से लागू कर दिया गया।

संविधान निर्माण की प्रक्रिया में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन का समय लगा। जिसमें एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद, 22 भाग एवं 8 अनुसूचियां थी वर्तमान में 12 अनुसूचियां हैं। भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है।

भारतीय संविधान की मूल प्रति हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही हस्तलिखित है। इसमें टाइपिंग या प्रिंट का इस्तेमाल नहीं किया गया। दोनों ही भाषाओं में संविधान की मूल प्रति को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने लिखा था। रायजादा का खानदानी पेशा कैलिग्राफी का था। उन्होंने संविधान के हर पेज को बेहद खूबसूरत इटैलिक लिखावट में लिखा है। 251 पन्नों का संविधान लिखने में उन्हें 6 महीने लगे ।

भारतीय संविधान के हर पेज को चित्रों से आचार्य नंदलाल बोस ने सजाया है। मूल संविधान में सुविख्यात चित्रकार नंदलाल बोस द्वारा बनाए गए 22 चित्र हैं।  इन चित्रों के आधार पर ही हम समझ सकते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं के मन मस्तिष्क में कैसी आदर्श परिकल्पना भारतीय समाज की रही होगी। इन चित्रों की शुरुआत मोहनजोदड़ो से होती है।  फिर वैदिक काल के गुरुकुल, महाकाव्य काल के रामायण में लंका पर प्रभु श्री राम की विजय, गीता का उपदेश देते भगवान श्री कृष्ण, भगवान बुद्ध , भगवान महावीर, सम्राट अशोक द्वारा बौद्धिक धर्म प्रचार, मौर्य काल, गुप्त वंश की कला जिसमें हनुमान जी का दृश्य है। विक्रमादित्य का दरबार, नालंदा विश्वविद्यालय, उड़िया मूर्तिकला, नटराज की प्रतिमा, भागीरथ की तपस्या से गंगा का अवतरण, शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह जी और महारानी लक्ष्मी बाई, गांधी का दांडी मार्च और नौआखली में दंगा पीड़ितों के बीच गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, हिमालय का दृश्य, रेगिस्तान का दृश्य एवं महासागर का दृश्य इन चित्रों में शामिल हैं।

इसके अलावा इसके प्रस्तावना पेज को सजाने का काम राममनोहर सिन्हा ने किया है। वह नंदलाल बोस के ही शिष्य थे।

हमारा संविधान भारत को एक संप्रभु , समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित  करता है जो अपने नागरिकों को न्याय, समानता और स्वतंत्रता का आश्वासन देता है तथा भाईचारे को बढ़ावा देने का प्रयास करता है। 26 नवंबर 1949 संविधान को अपनाए जाने के पश्चात संविधान सभा को भंग कर दिया गया था मगर आम चुनाव होने तक अंतरिम संसद के रूप में कार्य करने की अनुमति प्रदान की गई।

समाजवादी समाज की स्थापना में आने वाली कई कानूनी अड़चनों को दूर करने के लिए संविधान सभा के सदस्यों ने ही 1951 में प्रथम संविधान संशोधन करके संविधान में नौवीं अनुसूची को जोड़ा। जिसमें शामिल कानूनों को न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर किया गया। इसलिए भारतीय संविधान के आलोचक कहते हैं कि जिस संविधान सभा ने भारत के लोगों को अधिकार दिए थे उन्होंने नौवीं अनुसूची को जोड़कर उन अधिकारों को वापस छीनने का प्रयास किया है।

आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष, समाजवादी एवं अखंडता शब्दों को जोड़ा गया और अनुच्छेद 51-क के रूप में एक नया भाग-4-क मूल कर्तव्यों के रूप में संविधान में जोड़ा गया। मूल रूप से दस मौलिक कर्तव्यों को सूचीबद्ध किया गया था, बाद में 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा ग्यारहवां मूल कर्तव्य भी जोड़ दिया गया।

आपातकाल के पश्चात 44वें संविधान संशोधन के माध्यम से 1978 में संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से हटाकर इसे संवैधानिक अधिकार में बदल दिया गया। जो अब अनुच्छेद 300क के रूप में। संपत्ति को लेकर न्यायालिका में बढ़ते मामलों को रोकने के लिए 44 वाँ संशोधन किया गया। संविधान में अब तक 105 संशोधन हुए हैं।

भारत के संविधान को स्वीकार किए हुए आज हमें 72 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।  यह अपने उद्देश्यों और लक्ष्यों में सार्थक सिद्ध हुआ है। इस संविधान दिवस के उपलक्ष्य में हम भारत के लोगों को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम हमारे संविधान प्रदत्त अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के प्रति भी जागरुक रहेंगे तथा अन्य सभी को भी जागरूक करेंगे, तभी संविधान और अधिक सार्थक सिद्ध हो पाएगा।

(लेखक युवान विधि संस्थान के निदेशक हैं)  

जनजातीय गौरवदिवस – 15 नवंबर

आज जब देश के प्रधानमंत्री श्रीयुत नरेंद्र मोदी देश में भगवान् बिरसा मुंडा के जन्मदिन 15 नवंबर को राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा का शुभारंभ कर रहे हैं तब स्वाभाविक ही विदेशी परंपरा व विघ्नसंतोषियों के “मूलनिवासी दिवस” का विचार हृदय में आता है। भारत में मूलनिवासी दिवस या इंडिजिनस पीपल डे एक भारत मे एक नया षड्यंत्र है। सबसे बड़ी बात यह कि इस षड्यंत्र को जिस जनजातीय समाज के विरुद्ध किया जा रहा  है, उसी समाज के काँधों पर रखकर इसकी शोभायमान पालकी भी चतुराई पूर्वक निकाल ली जा रही है। वैश्विक दृष्टि से यदि देखा जाये तो जिस 9 अगस्त दिवस को जनजातीय समाज के नरसंहार दिवस के रूप मे स्मरण किया जाना चाहिए उसी दिवस को पश्चिमी शक्तियों द्वारा एक उत्सव के रूप मे स्थापित कर दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक संगठन विश्व मजदूर संगठन ILO द्वारा “राइटस आफ इंडिजिनस पीपल” नाम से एक कन्वेन्शन जारी किया गया जिसे सम्पूर्ण विश्व के मात्र 22 उन देशों ने हस्ताक्षर किया जिनकी कहीं कहीं अत्याचार पूर्ण औपनिवेशिक कालोनियां थी। इन्हीं 22 देशों ने एक “वर्किंग ग्रूप फार इंडिजिनस पीपल” नामक   संगठन बनाया जिसकी प्रथम बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई और इसी दिन को बाद मे विश्व मूल निवासी दिवस या विश्व आदिवासी दिवस के रूप मे मनाया जाने लगा। भारत के तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवियों व वामपंथियों के सहयोग से विदेशियों की यह चाल इतनी सफल हुई कि बड़ी संख्या मे जनजातीय समाज इस वर्ल्ड इंडिजेनस डे यानि विश्व मूलनिवासी दिवस को आदिवासी दिवस के नाम से मनाने लगा। तथ्य यह है कि भारत मे जनजातीय समाज व अन्य जाति जिसे इन विघटनकारियों ने आर्य – अनार्य का वितंडा बना दिया, वैसी परिस्थितियाँ भारत मे है ही नहीं। कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत मे उतने ही प्राचीन हैं जितने कि जनजातीय समाज के लोग।

          यह तो अब सर्वविदित है कि इस्लाम व ईसाइयत दोनों ही विस्तारवादी धर्म हैं व अपने विस्तार हेतु इन्होने अपने धर्म के परिष्कार, परिशोधन के स्थान पर षड्यन्त्र, कुतर्क, कुचक्र व हिंसा का ही उपयोग किया है। अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियो मे विभेद उत्पन्न करना उत्पन्न किया व द्रविड़ों को भारत का  मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया। ईसाइयों ने अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु इस प्रकार के षड्यन्त्र रचना सतत चालू रखे। विदेशियों ने ही भारत के इतिहास लेखन मे इस बात को दुराशय पूर्वक बोया कि आर्य विदेश से आई हुई एक जाति थी जिसने भारत के मूलनिवासी द्रविड़ समाज की सभ्यता को आक्रमण करके पहले नष्ट भ्रष्ट किया व उन्हे अपना गुलाम बनाया। जबकि यथार्थ है कि आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक उपाधि का नाम था जो कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को उसकी विशिष्ट योग्यताओं, अध्ययन या सिद्धि हेतु प्रदान की जाती थी। आर्य शब्द का सामान्य अर्थ होता है विशेष। पहले अंग्रेजों ने व स्वातंत्र्योत्तर काल मे अंग्रेजों द्वारा लादी गई शिक्षा पद्धति ने भारत मे लगभग छः दशकों तक इसी दूषित, अशुद्ध व दुराशयपूर्ण इतिहास का पठन पाठन चालू रखा।

           भारत मे इसी दूषित शिक्षा पद्धति ने आर्यन इंवेजन थ्योरी की स्थापना की व सामाजिक विभेद के बीज लगातार बोये। जर्मनी  मे जन्में किंतु संस्कृत के ज्ञान के कारण अंग्रेजों द्वारा भारत बुलाये गए मेक्समूलर ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी का अविष्कार किया।  मेक्समूलर ने लिखा कि  आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, बड़े विस्तृत धर्म ग्रन्थों वाली, स्वयं की लिपि व भाषा वाली घुमंतू किंतु समृद्ध जाति थी। इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इंवेजन थ्योरी के सफ़ेद झूठ का पौधा भारत मे बोया जिसे बाद मे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया। यद्द्पि बाद मे 1921 मे हड़प्पा व मोहनजोदाड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन व षड्यन्त्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा। सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को छुपाने व आर्य द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली किंतु अभी हम  मूलनिवासी दिवस तक ही सीमित रहते हैं।  यदि हम भारत के जनजातीय समाज व अन्य समाजों मे परस्पर एकरूपता की बात करें तो कई कई अकाट्य तथ्य सामने आते हैं। कथित तौर पर जिन्हे आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है। दोनों ही शिव  के उपासक हैं।

प्रसिद्ध  एन्थ्रोपोलाजिस्ट वारियर एलविन, जो कि अंग्रेजों के एडवाइजर थे,  ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन मे बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज़्म के ही एक भाग है और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं। माता शबरी, निषादराज, सुग्रीव, अंगद, सुमेधा, जांबवंत, जटायु आदि आदि सभी जनजातीय बंधु भारत के शेष समाज के संग वैसे ही समरस थे जैसे दूध मे शक्कर समरस होती है। प्रमुख जनजाति गोंड व कोरकू भाषा का शब्द जोहारी रामचरितमानस के दोहा संख्या 320 में भी प्रयोग हुआ है। मेवाड़ में किया जाने वाला लोक नृत्य गवरी व वोरी भगवान शिव की देन है जो कि समूचे मेवाड़ी हिंदू समाज व जनजातीय समाज दोनों के द्वारा किया जाता है। बिरसा मुंडा, टंटया भील, रानी दुर्गावती, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, अमर शहीद बुधू भगत, जतरा भगत, लाखो बोदरा, तेलंगा खड़िया, सरदार विष्णु गोंड आदि आदि कितने ही ऐसे वीर जनजातीय बंधुओं के नाम हैं जिनने अपना सर्वस्व भारत देश की संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के लिये अर्पण कर दिया।

जब गजनी से विदेशी आक्रांता हिंदू आराध्य सोमनाथ पर आक्रमण कर रहा था तब अजमेर, नाडोल, सिद्ध पुर पाटन, और सोमनाथ के समूचे प्रभास क्षेत्र में हिंदू धर्म रक्षार्थ जनजातीय समाज ने एक व्यापक संघर्ष खड़ा कर दिया था। गौपालन व गौ सरंक्षण का संदेश बिरसा मुंडा जी ने भी समान रूप से दिया है। और तो आर क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का “उलगुलान” संपूर्णतः हिंदुत्व आधारित ही है। ईश्वर यानी सिंगबोंगा एक है, गौ की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रध्दा रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो व इस दिन हल मत चलाओ यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिये हैं। वे जिन्हे आर्य कहा गया और वे जिन्हे आर्य कहा गया दोनों ही वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, सर्प, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से पूजा करते चले आ रहें हैं। भारत के सभी जनजातीय समुदाय जैसे गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, किरात, बोडो, भील, कोरकू, डामोर, ख़ासी, सहरिया, संथाल, बैगा, हलबा, कोलाम, मीणा, उरांव, लोहरा, परधान, बिरहोर,  पारधी, आंध, टाकणकार, रेड्डी, टोडा, बडागा, कोंडा, कुरुम्बा, काडर, कन्निकर, कोया, किरात  आदि आदि  के जीवन यापन, संस्कृति, दैनंदिन जीवन, खानपान, पहनावे, परम्पराओं, प्रथाओं का मूलाधार हिंदुत्व ही है। अब ऐसी स्थिति मे भारत मे मूलनिवासी दिवस की अवधारणा का स्थान कहां रह जाता है? तो आइए इस नए भारत में जनजातीय गौरव दिवस का स्वागत करें. 

Praveen Gugnani, guni.pra@gmail.com 9425002270     

महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु अरस्तु ने कहा था – “विषमता का सबसे बुरा रूप है विषम चीजों को एक समान बनाने का प्रयत्न करना।”  

The worst form of inequality is to try to make unequal things equal. एकात्म मानववाद, विषमता को इससे बहुत आगे के स्तर पर जाकर हमें समझाता है.

      भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं अपितु परिवार सदस्य के रूप में माननें के विस्तृत दृष्टिकोण का अर्थ है एकात्म मानववाद. मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है तो वह है पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का एकात्म मानववाद का सिद्धांत! अपनें एकात्म मानववाद को दीनदयालजी सैद्धांतिक स्वरूप में नहीं बल्कि आस्था के स्वरूप में लेते थे. इसे उन्होंने राजनैतिक सिद्धांत के रूप में नहीं बल्कि आत्मिक भाव के रूप में जन्म दिया था. अपनें एकात्म मानववाद के अर्थों को विस्तारित करते हुए ही उन्होंने कहा था कि – 

“हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज करने वाले विदेशी थे, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था. 

आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है, किन्तु हम चाहते हैं कि उसकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों.  जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रतिध्वनित होना चाहिए.

     ॐ के पश्चात ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक सूक्ष्म बोधवाक्य “जियो और जीनें दो” को “जीनें दो और जियो” के क्रम में रखनें के देवत्व धारी आचरण का आग्रह लिए वे भारतीय राजनीति विज्ञान के उत्कर्ष का एक नया क्रम स्थापित कर गए. व्यक्ति की आत्मा को सर्वोपरि स्थान पर रखनें वाले उनकें सिद्धांत में आत्म बोध करनें वाले व्यक्ति को समाज का शीर्ष माना गया. आत्म बोध के भाव से उत्कर्ष करता हुआ व्यक्ति, सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव से जब अपनी रचना धर्मिता और उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग करे, तब एकात्म मानववाद का उदय होता है, ऐसा वे मानतें थे. 

देश और नागरिकता जैसे आधिकारिक शब्दों के सन्दर्भ में यहाँ यह तथ्य पुनः मुखरित होता है कि उपरोक्त वर्णित व्यक्ति देश का नागरिक नहीं बल्कि राष्ट्र का सेवक होता है. पाश्चात्य भौतिकता वादी विचार जब अपनें चरम की ओर बढ़नें की पूर्वदशा में था तब पंडित जी नें इस प्रकार के विचार को सामनें रखकर वस्तुतः पश्चिम से वैचारिक युद्ध का शंखनाद किया था. 

उस दौर में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर विचारों और अभिव्यंजनाओं की स्थापना, मंडन-खंडन और भंजन की परस्पर होड़ चल रही थी. विश्व मार्क्सवाद, फासीवाद, अति उत्पादकता का दौर देख चुका था और महामंदी के ग्रहण को भी भोग चूका था. वैश्विक सिद्धांतों और विचारों में अभिजात्य और नव अभिजात्य की सीमा रेखा आकार ले चुकी थी तब सम्पूर्ण विश्व में भारत की ओर से किसी राजनैतिक सिद्धांत के जन्म की बात को भी किंचित असंभव और इससे भी बढ़कर हास्यास्पद ही माना जाता था. अंग्रेज शासन काल और अंग्रेजोत्तर काल में भी हम वैश्विक मंचों पर हेय दृष्टि से और विचारहीन दृष्टि से देखे और मानें जाते थे. 

निश्चित तौर पर हमारा स्वातंत्र्योत्तर शासक वर्ग या राजनैतिक नेतृत्व जिस प्रकार पाश्चात्य शैलियों, पद्धतियों, नीतियों में जिस प्रकार डूबा-फंसा-मोहित रहा उससे यह हास्य और हेय भाव बड़ा आकार लेता चला गया था. तब उस दौर में दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानव वाद के सिद्धांत की गौरवपूर्ण रचना और उद्घोषणा की थी. 

1940 और 1950 के दशकों में विश्व में मार्क्सवाद से प्रभावित और लेनिन के साम्राज्यवाद से जनित “निर्भरता का सिद्धांत” राजनैतिक शैली हो चला था. निर्भरता का सिद्धांत Dependency Theory यह है कि संसाधन निर्धन या अविकसित देशों से विकसित देशों की ओर प्रवाहित होतें हैं और यह प्रवाह निर्धन देशों को और अधिक निर्धन करते हुए धनवान देशों को और अधिक धनवान बनाता है. इस सिद्धांत से यह तथ्य जन्म ले चुका था कि राजनीति में अर्थनीति का व्यापक समावेश होना ही चाहिए. 

संभवतः पंडित दीनदयाल जी नें इस सिद्धांत के उस मर्म को समझा जिसे पश्चिमी जगत कभी समझ नहीं पाया. पंडित जी ने निर्भरता के इस कोरे शब्दों वाले सिद्धांत में मानववाद नामक आत्मा की स्थापना की और इसमें से भौतिकतावाद के जिन्न को बाहर ला फेंका !! राजनीति को अर्थनीति से साथ महीन रेशों से गूंथ देना और इसके समन्वय से एक नवसमाज के नवांकुर को रोपना और सींचना यही उनका मानववाद था, भौतिकता से दूर किन्तु मानव के श्रेष्ठतम का उपयोग और उससे सर्वाधिक उत्पादन. फिर उत्पादन का राष्ट्रहित में उपयोग और राष्ट्रहित से अन्त्योदय का ईश्वरीय कार्य यही एकात्म मानववाद का चरम हितकारी रूप है. 

इस परिप्रेक्ष्य का अग्रिम रूप देखें तो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि “अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव” के माध्यम से वे विश्व की राजनीति में किस तत्व का प्रवेश करा देना चाहते थे. यद्यपि उनकें असमय निधन से विश्व की राजनीति उस समय उनकें इस प्रयोग के कार्यरूप को देखनें से वंचित रह गई तथापि सिद्धांत रूप में तो वे उसे स्थापित कर ही गए थे. उस दौर में विश्व की सभी सभ्यताएं और राजनैतिक प्रतिष्ठान धन की अधिकता और धन की कमी से उत्पन्न होनें वाली समस्याओं से संघर्ष करती जूझ रही थी. तब उन्होंने भारतीय दर्शन आधारित व्यवस्थाओं के आधार पर धन के अर्जन और उसके वितरण की व्यवस्थाओं का परिचय शेष विश्व के सम्मुख रखा. उस दौर में पूर्वाग्रही और दुराग्रही राजनीति के कारण उनकी यह आर्थिक स्वातंत्र्य की सीमा की अवधारणा को देखा पढ़ा नहीं गया किन्तु (मजबूरी वश ही सही) आर्थिक विवेक के उनकें सिद्धांत को भारतीय अर्थतंत्र में यदा कदा पढ़नें सुननें और व्यवहार में लानें के प्रयास भी होते रहे. यह अलग बात है कि इन प्रयासों में पंडितजी के नाम से परहेज करनें का पूर्वाग्रह यथावत चलता रहा.

            नागरिकता से परे होकर “राष्ट्र एक परिवार” के भाव को आत्मा में विराजित करना और तब परमात्मा की ओर आशा से देखना यह उनकी एकात्मता का शब्दार्थ है. इस रूप में हम राष्ट्र का निर्माण ही नहीं करें अपितु उसे परम वैभव की ओर ले जाएँ यह भाव उनके सिद्धांत के एक शब्द “एकात्मता” में प्राण स्थापित करता है. मानववाद वह है जो ऐसी प्राणवान आत्मा से निसृत होकर निर्झर की तरह एक शक्ति पुंज के रूप में सम्पूर्ण राष्ट्र में मुक्त भाव से बहे, अर्थात अपनी सम्पूर्ण क्षमता और प्राणपण से उत्पादन करे और राष्ट्र को समर्पित कर दे. स्वयं भी सामंजस्य और परिवार बोध से उपभोग करता हुआ विकास पथ पर अग्रसर रहे. एकात्मता में सराबोर होकर मानववाद की ओर बढ़ता यह एकात्म मानववाद अपनें इस ईश्वरीय भाव के कारण ही अन्त्योदय जैसे परोपकारी राज्य भाव को जन्म दे पाया. हम इस चराचर ब्रह्माण्ड या पृथ्वी पर आधारित रहें, इसका शोषण नहीं बल्कि पुत्रभाव से उपयोग करें किन्तु इससे प्राप्त संसाधनों को मानवीय आधार पर वितरण की न्यायसंगत व्यवस्थाओं को समर्पित करते चलें यह अन्त्योदय का प्रारम्भ है. अन्त्योदय का चरम वह है जिसमें व्यक्ति व्यक्ति से परस्पर जुड़ा हो, निर्भर भी हो तो उसमें निर्भरता का भाव कभी हेय दृष्टि से न देखा जाए, और न कभी देव दृष्टि से!! इस प्रकार के अन्त्योदय का भाव प. दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सह उत्पाद के रूप में जन्मा जिसे सह उत्पाद के स्थान पर पुण्य प्रसाद कहना अधिक उपयुक्त होगा.  

                 पंडित दीनदयाल उपाध्याय संस्कृति के समग्र रूप को मानव और राज्य में स्थापित देखना चाहते थे. उन्होंने भारतीय संस्कृति की समग्रता और सार्वभौमिकता के तत्वों को पहचान कर आधुनिक सन्दर्भों में इसके नूतन रूपकों, प्रतीकों, शिल्पों की कल्पना की थी. उनकें विषय में पढ़ते अध्ययन करते समय मेरी अंतर्दृष्टि में वंचित भाव जागृत होता है और ऐसा लगता है कि कुछ था जो हमें पंडित दीनदयाल जी से और मिलना था किंतु मिल न पाया. मानस में यह तथ्य उच्चारित होता रहता है कि उनकें तत्व ज्ञान में कुछ ऐसा अभिनव प्रयोग आ चुका था जिसे वे शब्द रूप में या कृति रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए और काल के शिकार हो गए. उनकें मष्तिष्क में या वैचारिक गर्भ में कोई अभिनव और नूतन सिद्धांत रुपी शिशु था जो उनकें असमय निधन से अजन्मा और अव्यक्त ही रह गया है पुण्य स्मरण !!!

ભારતીય ઇતિહાસમાં, નવમા ગુરુ શ્રી તેગબહાદુરનું વ્યક્તિત્વ અને કર્તુત્વ તેજસ્વી નક્ષત્રની જેમ દૈદીપ્યમાન  છે. તેમનો જન્મ અમૃતસરમાં પિતા ગુરુ હરગોવિંદ જી અને માતા નાનાનકીજીના ઘરે વૈશાખ કૃષ્ણ પંચમીના દિવસે થયો હતો. નાનકશાહી કેલેન્ડર મુજબ, ગુરુ તેગબહાદુરજી ના  પ્રકાશના 400 વર્ષ 1 મે, 2021 ના ​​રોજ પૂર્ણ થઈ રહ્યા છે. જે સમયે મધ્ય એશિયાના મોગલોએ ભારતના મોટાભાગના પ્રદેશ પર કબજો કર્યો હતો, તે સમયે, મોગલો ને પડકારતી જે પરંપરા ઉભી થઇ હતી, શ્રી તેગબહાદુર જી તે જ પરંપરાના પ્રતિનિધિ હતા. તેમનું વ્યક્તિત્વ તપ, ત્યાગ અને સાધના નું  પ્રતીક છે અને તેમનું કર્તુત્વ  શારીરિક અને માનસિક શોર્યનું અદભૂત ઉદાહરણ છે. શ્રી તેગબહાદુરની વાણી એક પ્રકારે  વ્યક્તિ નિર્માણ નો સૌથી મોટો પ્રયોગ છે. નકારાત્મક વૃત્તિને નિયંત્રિત કરીને, જન સામાન્ય ધર્મના માર્ગને અનુસરી શકે છે. જેઓ નિંદા, વખાણ, લોભ, અભિમાન અને ગૌરવના ચક્રવ્યુહમાં ફસાયેલા છે તે સંકટમાં સ્થિર રહી શકતા નથી. કેટલીકવાર જીવનમાં સુખ આવે છે અને કેટલીક વખત દુ: ખ પણ આવે  છે, સામાન્ય માણસની વર્તણૂક તે પ્રમાણે બદલાય છે. પરંતુ સિદ્ધ પુરુષો આ સ્થિતિ થી પર હોય છે. ગુરુજીએ આ સાધના અંગે उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि’ और ‘सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु’ (श्लोक मोहला 9वां अंग 1426-आगे)આ રીતે  કહ્યું છે.

      ગુરુજીએ તેમના શ્લોકોમાં કહ્યું છે -‘भै काहु कउ देत नहि नहि भै मानत आन’। . પરંતુ મૃત્યુનો ભય સૌથી મોટો છે. તે ડરથી, વ્યક્તિ મતાન્તરિત  થાય છે, જીવન મૂલ્યોનો ત્યાગ કરે છે અને ડરપોક બની જાય છે. ‘भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु ज़ारा’ ગુરુ જી તેમની વાણી અને કાર્યથી એવાસમાજની રચના કરી રહ્યા હતા કે તેઓ તમામ પ્રકારની ચિંતાઓ અને ભયથી મુક્ત થઈને ધર્મના માર્ગે ચાલી શકે. શ્રી ગુરુજીનું આખું જીવન ધર્મ, અર્થ, કામ અને મોક્ષ ના પુરુષાર્થ ના ચતુષ્ક નું ઉત્તમ ઉદાહરણ છે. તેમણે સફળતાપૂર્વક તેમના ગૃહસ્થ જીવન માં અર્થ અને કામ ની સાધના કરતા કરતા પરિવાર અને  સમાજમાં ઉત્તમ માનવીય મૂલ્યોનો સંચાર કર્યો,. તેમણે ધર્મની રક્ષા માટે બલિદાન આપ્યું.. તેમનો  દ્રષ્ટિકોણ  કટોકટીમાં પણ આશા અને વિશ્વાસનો રહ્યો  છે. તેમણે કહ્યું છે ‘ बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ’. ગુરુ તેગ બહાદુરજી ની કૃતિ થી સમગ્ર દેશમાં એક શક્તિ નો સંચાર થયો.. બંધનો તૂટી ગયા અને મુક્તિનો માર્ગ ખુલ્યો. વ્રજ ભાષામાં રચિત એમની વાણી ભારતીય સંસ્કૃતિ, દર્શન અને આધ્યાત્મિકતાનું એક વિશિષ્ટ સંયોજન છે.

   ગુરુજીનું નિવાસસ્થાન આનંદપુર સાહેબ મોગલોના અન્યાય અને અત્યાચાર સામે જન સંઘર્ષના કેન્દ્ર તરીકે ઉભરી આવવાનું શરૂ થયું. ઔરંગઝેબ હિન્દુસ્તાનને  દારુલ-ઇસ્લામ બનાવવા માંગતો હતો. કાશ્મીર બૌદ્ધિક અને આધ્યાત્મિક કેન્દ્ર હોવાથી મોગલોના નિશાના પર હતું.કાશ્મીરના લોકો આ બધા વિષયો પર માર્ગદર્શન માટે શ્રી ગુરુજી પાસે પહોંચ્યા. ગુરુજીએ આ વાત પર ગહન વિચાર વિમર્શ કર્યો.. કાશ્મીર સહિત આખા દેશની પરિસ્થિતિ નાજુક હતી. પરંતુ મુગલોના ભારત ને દારુલ-ઇસ્લામ બનાવવાના આ ક્રૂર કૃત્ય ને  રોકવાનો માર્ગ શું હતો? એક જ માર્ગ હતો. દેશ અને ધર્મની રક્ષા માટે કોઈ મહાન માણસે પોતાનુંઆત્મ બલિદાન આપવો જોઈએ. તે બલિદાનથી, આખા દેશમાં જન ચેતનાની આગુ ઉઠશે,એના કારણે  વિદેશી મોગલ સામ્રાજ્યની દિવાલો હચમચી ઉઠશે. પણ સવાલ એ હતો કે આ બલિદાન કોણે આપવું જોઈએ? શ્રી તેગ બહાદુરના પુત્ર શ્રી ગોવિંદસિંહજી એનો ઉકેલ લાવ્યા  તેમણે પોતાના પિતાને કહ્યું, આ સમયે તમારા થી વધી ને મહામાનવ કોણ છે?

    ઔરંગઝેબની સેનાએ ગુરુ જીને ત્રણ સાથીઓ સહિત કેદ  કર્યા.એ  બધાને કેદ કરીને દિલ્હી લાવવામાં આવ્યા.. એમના અને એમના સાથીઓ પર  અમાનવીય અત્યાચાર  કર્યો. તેમના શિષ્યો સહિત ઇસ્લામ સ્વીકારવા તેમના પર ઘણું દબાણ હતું. ધાર્મિક ગુરુ બનાવવાની ખાતરી અને સુખ-સુવિધાઓ આપવાનું આશ્વાસન પણ આપવામાં આવ્યું હતું. પરંતુ તેઓ ધર્મના માર્ગ ઉપર અડગ રહ્યા. દિલ્હીના ચાંદની ચોકમાં ગુરુ તેગ બહાદુરની આંખો સામે  ભાઈ મતી દાસને શરીર ના વચ્ચો વચથી આરા થી ચીરી નાખવામાં આવ્યા. ભાઈ દયાળને ઉકળતા તેલમાં નાંખી ને મારી નાખવામાં  આવ્યા. અને ભાઈ સતીદાસને કપાસના ના રૂ ના ઢગલા માં બાંધી ને  સળગાવી દેવામાં આવ્યા. મોગલ સામ્રાજ્યને કદાચ લાગ્યું હશે કે તેમના સાથીઓ સાથેના આ વર્તનથી ગુરુજી ડરી જશે. પરંતુ ગુરુજી જાણતા હતા કે અન્યાય અને જુલમ સામે લડવું એ ધર્મ છે. તેઓ વિચલિત નહી થયા. કાઝીએ હુકમ આપ્યો અને જલ્લાદે ગુરુજીનું માથું ધડ થી અલગ કરી દીધું. તેમના આ બલિદાનથી સમગ્ર દેશમાં નવી ચેતના પેદા  થઈ. પિતાના બલિદાન પર, દસમા ગુરુ શ્રી ગોવિંદસિંહે કહ્યું –

      तिलक जंजू राखा प्रभ ताका। कीनो बड़ो कलू महि साका।

     साधनि हेति इति जिनि करी। सीस दीआ पर सी उचरी।

    આજે, જ્યારે આખો દેશ ગુરુજીના પ્રકાશના ચારસો વર્ષ ઉજવણી કરી રહ્યો છે, ત્યારે તેમના માર્ગને અનુસરવું  એ જ એમની વાસ્તવિક પુણ્ય સ્મૃતિ હશે. આજે દરેક જગ્યાએ ભોગ  અને ભૌતિક સુખોની સ્પર્ધા ચાલી રહી  છે. પરંતુ ગુરુજીએ તો ત્યાગ અને સંયમનો માર્ગ બતાવ્યો હતો. ઈર્ષ્યા, દ્વેષ, સ્વાર્થ અને ભેદભાવ ની ચારે બાજુ બોલબાલા  છે. ગુરુજી સૃષ્ટિ, સંવાદિતા અને મનના વિકારોને જીતવાની સાધનની ચર્ચા કરે છે. ગુરુજીની સાધના ની જ  અસર એ હતી કે ગામમાંથી પસાર થતા લોકો આજે પણ તમાકુ ની ખેતી કરતા નથી. કટ્ટરવાદી અને મતાન્ધ  શક્તિઓ આજે વિશ્વમાં ફરીથી પ્રભાવી બની રહી છે. શ્રી ગુરુજીએ બલિદાન, બહાદુરી અને બલિદાનનો માર્ગ બતાવ્યો. માનવજાત પરિવર્તન શીલ એવા  નવા તબક્કામાં પ્રવેશ કરી રહી છે. આવા સમયે, શ્રી ગુરુજીની પવિત્ર સ્મૃતિ,મતો તેમના માર્ગ પર ચાલી ને નવા ભારત નું નિર્માણ કરવું  જેની માટીમાં એના મૂળ સમાહિત છે.

   દત્તાત્રેય હોસબાલે, સરકાર્યવાહ, રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘ

#ShriGuruTegBahadurJi_400

भारत के स्पार्टाकस तिलका मांझी 

वैसे तो विधर्मी आक्रांताओं के विरुद्ध भारत भूमि ने हजारों-लाखों लाल जन्मे हैं किंतु औपनिवेशिक आक्रांताओं के विरुद्ध जो आदि विद्रोही हुये  या प्रथम लड़ाके हुये उस वीर को  तिलका मांझी के नाम से जाना जाता है। तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया नाम से भी जाना जाता है। ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है कि 1857 के हमारे प्रसिद्ध स्वतंत्रता संघर्ष के बीज 90 वर्ष पूर्व वीर तिलका ने ही बोये थे। कहना न होगा कि 1947 तक चले हमारे स्वतंत्रता संग्राम के प्रत्येक सेनानी के मानस मे कहीं न कहीं वीर तिलका का वीरोचित भाव व उनकी वीरगति का प्रतिशोध भाव प्रेरणा बनकर धधक रहा था। वस्तुतः वे भारतभूमि के स्पार्टाकस सिद्ध हुये हैं। 

     अंग्रेज़ो से गोरिल्ला युद्ध के माध्यम से उनकी धन-संपत्ति छुड़ा लेना और उसे निर्धन-वंचितों को बांट देना, अंग्रेजों से हथियार छुड़ा लेना और अपने साथियों को सशस्त्र बनाने के लिए वे बड़े प्रसिद्ध हो गए थे। राजमहल (झारखंड) की पहाड़ियों मे उन्होने अंग्रेज़ो को लोहे के चने चबवा दिये थे। स्वतंत्रता संघर्ष के प्रसिद्ध संथाल आंदोलन के प्रणेता थे तिलका मांझी। 

        तिलका मांझी का जन्म बिहार के तिलकपुर ग्राम मे 11 फरवरी 1750 को पिता सुंदरा मर्मु नामक एक संथाल परिवार मे हुआ था। वीर तिलका का नाम उनके व्यक्तित्व के अनूरूप ही था। पहाड़िया भाषा मे तिलका का अर्थ होता है – लाल लाल आँखों वाला गुस्सैल व तेज तर्रार व्यक्ति। पहाड़िया समुदाय मे समाज प्रमुख को मांझी कहा जाता है। वस्तुतः उनका नाम जबरा पहाड़िया ही था। वीर जबरा के जबर्दस्त व्यक्तित्व से भयभीत रहे अंग्रेजों ने उन्हे तिलका मांझी नाम से पुकारना प्रारंभ किया था। 

        अपनी किशोरावस्था से ही वीर तिलका अंग्रेजों की दमनकारी व अत्याचारी नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने लगे थे। वे अपने  संसाधनों पर अंग्रेजों के कब्जे के घोर विरोधी थे। बचपन मे ही उनके क्रांतिकारी मानस मे जन्मभूमि को विदेशी शासकों से मुक्त कराने की कल्पना जन्म लेने लगी थी व वे इस दिशा मे छुटपुट गतिविधियां करने लगे थे। वनवासियों के संसाधनों पर अंग्रेज़ सतत कब्जा जमा रहे थे फलस्वरूप 1767 मे तिलका मांझी ने अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था। अनेकों वनवासियों के साथ वे कदम, भागलपुर, सुल्तानगंज राजमहल मे अंग्रेजों से सतत निरंतर संघर्ष कर रहे थे और अंग्रेजों को परेशान करने मे सफल सिद्ध हो रहे थे। तिलका के नेतृत्व मे चल रहे इन प्रचंड विद्रोहों से घबराए अंग्रेजों ने क्लीवलैंड नामक एक तेजतर्रार अधिकारी को राजमहल मे वनवासियों के दमन हेतु भेजा। झारखंड के जंगल, तराई, गंगातटों, ब्राम्ही नदी घाटी आदि क्षेत्रों मे तिलका माँझी अपनी छोटी सी स्‍वदेशी हथियारों वाली सेना लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध लगातार संघर्ष करते हुए मुंगेर, भागलपुर, संथाल व परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर सतत निरंतर लड़ाई करते रहे। वीर तिलका कहते थे – “यह भूमि धरती माता है, यह हमारी माता है, इस पर हम किसी को लगान नहीं देंगे।” इस बात से अंग्रेज़ प्रशासन बड़ा नाराज था और वीर तिलका को सबक सिखाना चाहता था। राजमहल के सुपरिटेंडेंट क्लीवलैंड व आयरकूट की सेना को वीर तिलका मांझी की सेना ने गोरिल्ला के माध्यम से कई कई बार छ्काया व बड़ी हानि पहुंचाई। पच्चीसों संघर्षों की इस श्रंखला मे वीर तिलका भागलपुर तक पहुँच गए। भागलपुर मे ही वीर तिलका ने 13 जनवरी 1784 को अंग्रेज़ सेना प्रमुख क्लीवलैंड को अपने धनुष बाण से मार गिराया। क्लीवलैंड की हत्या से अंग्रेज़ भयभीत तो हो गए किंतु  अब दोगुनी शक्ति व वीर तिलका को खोजकर प्रतिशोध लेने व फांसी देने के लक्ष्य से उन्हे खोजने लगे।

          हमारे भारत मे विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध यदि हमारे वीर तिलका जैसे हजारों यौद्धाओं की गाथाएँ भरी पड़ी है तो जयचंदों की भी कमी नहीं रही। तिलका मांझी की वीर गाथा मे भी एक जयचंद आता है जिसका नाम था सरदार जाऊदाह। एक रात तिलका माँझी और उनके क्रांतिकारी साथी जब एक पारंपरिक उत्सव में नृत्‍य-गान कर रहे थे, तभी अचानक इस गद्दार सरदार जाउदाह ने अंग्रेजों के साथ आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए आक्रमण से तिलका माँझी तो बच गये, किन्तु उनके अनेक देशभक्त साथी वीरगति को प्राप्‍त हुए व कई क्रांतिकारियों को बन्दी बना लिया गया। वीर तिलका माँझी वहां से वीरतापूर्वक संघर्ष करके बच निकले व भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली। भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज व उसके आसपास के पर्वतीय इलाकों में अंग्रेजी सेना ने उन्हें पकड़ने के लिए जाल बिछा दिया। मैदानी क्षेत्रों मे संघर्ष की अभ्यस्त रही वीर तिलका की सेना को पर्वतीय क्षेत्र मे संघर्ष का अभ्यास ही नहीं था। फलस्वरूप उसे अपार कष्ट व अनेकों प्रकार की हानि होने लगी। पर्वतीय क्षेत्र मे अन्न व अन्य संसाधनों का भी अभाव होने लगा। इस परिस्थिति मे वीर तिलका छापामार पद्धति से अंग्रेजों को छ्काते परेशान करते रहे थे। अत्यंत कष्टपूर्ण परिस्थितियों मे व अत्यल्प संसाधनों से इस प्रकार दीर्घ समय तक संघर्ष संभव ही नहीं था। इसी प्रकार के एक संघर्ष मे जब उन्होने वारेन हेस्टिंग्ज़ की सेना पर अपनी संथाल जाति के बंधुओं के साथ प्रत्यक्ष हमला किया। इस संघर्ष मे वारेन हेस्टिंग्ज़ की विशाल व साधन सम्पन्न सेना के सामने वीर तिलका के मुट्ठी भर साधनहीन संथाल बंधु टिक नहीं पाये व पकड़ लिए गए। इस विषमता भरे युद्ध मे भी अंग्रेज़ वीर तिलका को धोखे व छल से ही पकड़ पाये थे। 

वीर तिलका को पकड़कर उन्हे अमानवीय यातनाएं देना प्रारंभ की गई। उन्हें 4 घोड़ों के पीछे मोटी रस्सियों से बाँधकर मीलों घसीटा गया। अंततः 13 जनवरी 1785 मे एक वटवृक्ष से लटकाकर 

वीर तिलका माँझी को अंग्रेजों ने फाँसी दे दी थी। वीर तिलका तो वीरगति को प्राप्त हुये किंतु अंग्रेजों के विरुद्ध हमारे जनजातीय समाज का संघर्ष उनकी प्रेरणा से सतत चलता रहा। वीर तिलका स्वतंत्रता संग्राम की कहानियों मे व हमारे आरण्यक समाज के गीतों मे जीवित रहकर समूचे समाज को अंग्रेजों के विरुद्ध जागृत करते रहे। वीर तिलका के स्मरण का एक ऐसा ही जनजातीय गीत है जिसका अनुवाद प्रस्तुत है –

तुम पर कोड़ो की बरसात हुई  

तुम घोड़ों से बांधकर घसीटे गए 

फिर भी तुम्हें मारा न जा सका 

तुम भागलपुर मे सरे आम फांसी पर लटका दिये 

तुमसे फिर भी डरते रहे जमींदार अंग्रेज़ तुम्हारी तिलका (तेज तर्रार) आंखो से 

        प्रसिद्ध उपन्यासकर महाश्वेता देवी जी ने वीर तिलका की गाथा पर एक बांग्ला भाषा मे उपन्यास लिखा है – “शालगिरर डाके”। हिन्दी के कथाकार, उपन्यासकार राकेश कुमार जी ने भी अपने उपन्यास “हुल पहाड़िया” मे तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के नाम से बड़ा ही सुंदर चित्रित किया है। हमारे देश ने इस वीर शिरोमणि क्रांतिकारी की स्मृति मे उनके नाम से भागलपुर मे “तिलका मांझी विश्वविद्यालय” की स्थापना की है। भागलपुर मे उनकी शहादत के स्थान पर एक प्रतिमा भी स्थापित है।

Praveen Gugnani,

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गुरुनानक देव जी की सीखें हर काल में प्रासंगिक रहेंगी।

ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥

॥ ਜਪੁ ॥

ਆਦਿ ਸਚੁ ਜੁਗਾਦਿ ਸਚੁ ॥ ਹੈ ਭੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਹੋਸੀ ਭੀ ਸਚੁ ॥1॥

एक ओंकार सतनाम, कर्तापुरख, निर्माह निर्वैर, अकाल मूरत, अजूनी सभं. गुरु परसाद ॥

॥ जप ॥

आद सच, जुगाद सच, है भी सच, नानक होसे भी सच ॥

ये गुरुनानक देव जी के मुख से निकले केवल कुछ शब्द नहीं हैं। ना ही इनकी ये पहचान है कि ये गुरुग्रंथ साहिब का पहला भजन है। ये तो वो मूल मंत्र है जो ना सिर्फ सिख संगत को उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के गुणों से रूबरू कराता है बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज को ही दिशा दिखाता है। श्री गुरुनानक देव जी के मुख से निकले ये शब्द वो बीज हैं जो कालांतर में सिख धर्म की नींव बने।

विश्व के पांचवे सबसे बड़े धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव जी की सीखों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता की बात करने से पहले हम सिख शब्द को समझ लें। दरअसल सिख का अर्थ होता है शिष्य। अर्थात जो गुरुनानक देव जी की सीखों को एक शिष्य की भांति अपने आचरण और जीवन में अपना ले, वो सिख है और हम सभी जानते हैं कि उनकी सीखों में सबसे बड़ा धर्म मानवता है इसलिए उनकी सीखें हर काल में प्रासंगिक हैं।

जब गुरुनानक देव जी कहते हैं कि “एक ओंकार, सतनाम”, तो उनके आध्यात्म की इस परिभाषा को केवल उनके अनुयायी ही नहीं बल्कि प्राचीन वेद विज्ञान से लेकर आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने पर विवश हो जाता है। वे कहते हैं, एक ओंकार सतनाम यानी ओंकार ही एक अटल सत्य है। ओंकार यानी ॐष्। यह तो हम सभी जानते हैं कि हम जो भी कहते हैं, जिन भी शब्दों का उच्चारण करते हैं उनकी एक सीमा होती है लेकिन ओंकार असीमित है। प्राचीन ऋषियों ने भी ॐ को अजपा कहा है क्योंकि ॐ शब्दातीत है यानी शब्दों से परे है। और आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि ॐ कोई ध्वनि नहीं बल्कि एक अनाहत नाद है। क्योंकि ध्वनि तो दो वस्तुओं के टकराने से या कंपन से उत्पन्न होती है लेकिन ॐ किसी से टकराने से उत्पन्न नहीं हुआ। जहाँ टकराहट हो वहाँ भला ॐ कहाँ? जब भीतर बिल्कुल शांति हो, अंदर के सारे स्वर बंद हो जाएं, सभी द्वंद मिट जाएं तो एक अनाहत से हमारा संपर्क होता है और हम ॐ से जुड़ पाते हैं और एक अनोखी ऊर्जा को महसूस कर पाते हैं। ॐ का हमारे भीतर के सत्य और शुभ से लेना देना है। इसलिए जब वे कहते हैं एक ओंकार तो वे कहना चाहते हैं कि ईश्वर एक ही है जो हम सब के भीतर ही निवास करता है और यही सबसे बड़ा सत्य भी है।

जब 15 वीं सदी में गुरुनानक देव जी ने सिख धर्म की स्थापना की थी, तो यह धर्म के प्रति लोगों के नज़रिए पर एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत थी। यह उस विरोधाभासी सोच पर प्रहार था जो व्यक्ति के सांसारिक जीवन और उसके आध्यात्मिक जीवन को अलग करती थी। अपने विचारों से गुरुनानक देव जी ने उस काल के सामाजिक और धार्मिक मूल्यों की नींव ही हिला दी थी। उन्होंने पहली बार लोगों को यह विचार दिया कि मनुष्य का सामाजिक जीवन उसके आध्यात्मिक जीवन की बाधा नहीं है बल्कि उसका अविभाज्य हिस्सा है। सदियों की परंपरागत सोच के विपरीत गुरुनानक जी वो पहले ईश्वरीय दूत थे जिन्होंने जोर देकर कहा था कि ईश्वर पहाड़ों या जंगलों में भूखा रहकर खुद को कष्ट देने से नहीं मिलते बल्कि वो सामाजिक जीवन जीते हुए दूसरों के कष्टों को दूर करने से मिलते हैं। उनके अनुसार व्यक्तिगत मोक्ष का रास्ता सेवा कार्य द्वारा समाज के लोगों को दुखों से मोक्ष दिला कर निकलता था। इसके लिए उन्होंने अपने भक्तों को सेवा ते सिमरन का मंत्र दिया। उस दौर में जब लोगों को यकीन था कि ईश्वर से एकाकार के लिए सन्यास के मार्ग पर चलना आवश्यक है, उन्होंने अपने भक्तों को मध्यम मार्ग अपनाने पर बल दिया जिस पर चलकर गृहस्थ आश्रम का पालन भी हो सकता है और आध्यात्मिक जीवन भी अपनाया जा सकता है। आज के भौतिकवादी युग में गुरुनानक देव जी का यह नज़रिया आत्मकल्याण ही नहीं समाज कल्याण की दृष्टि से भी बेहद प्रासंगिक है। और उन्होंने अपने इस जीवन दर्शन को अपनी जीवन यात्रा से चरितार्थ करके भी दिखाया। अपने जीवन काल में उन्होंने खुद एक गृहस्थ जीवन जीते हुए आध्यात्म की ऊँचाइयों को छूने वाले एक संत का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत किया। इस सोच के विपरीत कि संसार माया है, मिथ्या है, झूठ है, फरेब है, उन्होंने कहा कि संसार ना सिर्फ सत्य है बल्कि वो साधन है, वो कर्मभूमि है जहाँ हम ईश्वर की इच्छा से उनकी इच्छानुसार कर्म करने के लिए आए हैं। उनका मानना था, हुकम राजायी चलना नानक लिख्या नाल अर्थात सबकुछ परमात्मा की इच्छा के अनुसार होता है और हमें बिना कुछ कहे इसे स्वीकार करना चाहिए।

लेकिन परमात्मा के करीब जाने के लिए संसार से दूर होने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उस परमपिता के द्वारा दिए गए इस जीवन में हमारा नैतिकता पूर्ण आचरण ही हमारे जीवन को उसका आध्यात्मिक रूप और रंग देता है। उन्होंने ध्यान, तप योग से अधिक सतकर्म को और रीत रिवाज से अधिक महत्व मनुष्य के व्यक्तिगत नैतिक आचरण को दिया। इसलिए वे कहते थे कि सत्य बोलना श्रेष्ठ आचरण है लेकिन सच्चाई के साथ जीवन जीना सर्वश्रेष्ठ आचरण है। आज जब पूरी दुनिया में दोहरे चरित्र का होना ही सफलता प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण गुण बन गया हो और नैतिक मूल्यों का लगातार ह््रास हो रहा हो, तो गुरुनानक जी की यह सीखें सम्पूर्ण विश्व के लिए पथप्रदर्शक का काम कर सकती हैं।

आज जब मशीनीकरण के इस युग में हम उस मोड़ पर पहुंच गए हों जहाँ समय के अभाव में मनुष्य खुद भी कुछ कुछ रोबोटिक सा होता जा रहा हो और उसका सुकून भी छिनता जा रहा हो, तो गुरुनानक देव जी की दिखाई राह उसे वापस ईश्वर से जोड़कर दैवीय सुकून का एहसास करा कर असीम मानसिक शांति दे सकती है। ईश्वर से जुड़ने के लिए वो वैराग्य त्याग तप या फिर सांसारिक सुखों से दूर होने के बजाए संसार को प्रेम से गले लगाने की सीख देते थे, दूसरों के दुखों को दूर करने की सीख देते थे जिसके लिए उन्होंने जीवन जीने की बहुत ही व्यवहारिक राह दिखाई थी जो आज भी प्रासंगिक है। आज के दौर में जब मनुष्य अपने खुद के लिए भी समय न निकाल पा रहा हो ऐसे समय में गुरुनानक देव जी के द्वारा जीवन जीने के लिए दिए गए बेहद सरल तीन सूत्र निस्संदेह मनुष्य को न सिर्फ खुद से बल्कि अपने परिवार और समाज दोनों से जोड़कर असीम शांति का अनुभव करा कर उसके तन मन और जीवन तीनों में एक नई ऊर्जा भर सकते हैं। ये तीन सूत्र हैं, जपना, कीर्त करना और वंड के छकना।

1,जपना, यानी सबसे पहले जप करना अर्थात उस परम पिता का नाम जपना जब भी समय मिले जहाँ भी जगह मिले पूरी श्रद्धा से उस सर्वशक्तिमान को याद करना उसका शुक्रिया अदा करना। उनका कहना था कि इसके लिए मंदिर या माजिद जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि ईश्वर तो हमारे भीतर है। वो खुद भी कहीं भी कभी भी ईश्वर के ध्यान में बैठ जाते थे। कभी बकरियाँ चराते समय तो कभी खेतों में, कभी किसी पेड़ के नीचे तो कभी समुद्र में।

2, दूसरा कीर्त मतलब कमाई करना, क्योंकि प्रभु ने हमें जो परिवार दिया है उसका पालन करने के लिए हमें कर्म करना चाहिए। वे कहते थे, किसी से मांग कर नहीं खाना और ना किसी का हक मार कर खाना। अपनी मेहनत पर ही हमारा हक है और मेहनत करना हमारा फ़र्ज़ है।

3, तीसरा वंड के छकना मतलब बांट कर खाना। वे कहते थे कि हर मनुष्य को अपनी कमाई का दसवां हिस्सा परोपकार में लगाना चाहिए। वो स्पष्ट कहते थे कि धन को केवल जेब तक ही सीमित रखना चाहिए उसे अपने हृदय में स्थान नहीं बनाने देना चाहिए वो क्योंकि मानव की मुक्ति का मार्ग समाज के दुखों की मुक्ति से होकर निकलता है धन दौलत इकट्ठा करने से नहीं।

दरअसल वो जानते थे कि कोई भी समाज तब तक तरक्की नहीं कर सकता और ना ही स्वस्थ रह सकता है जब तक कि उस समाज में कर्म के महत्व को एक गौरव नहीं प्रदान किया जाता। इसलिए उन्होंने कर्म को मानव जीवन का ना सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण गुण बताया अपितु उसे मनुष्य की सामाजिक और आध्यात्मिक जिम्मेदारी भी बताया। यही कारण है कि आज भी देश या विदेश के किसी भी संकट के समय चाहे वो युद्ध हो या कोई प्राकृतिक आपदा, सिख संगत मदद के लिए सबसे आगे रहती है। सिख समाज ना सिर्फ गुरुद्वारे में लंगर बल्कि जरूरत के वक्त जरूरतमंदों को निःशुल्क स्वच्छ भोजन पानी और अन्य बुनियादी सुविधाएं देने के लिए आगे आता है।

इसके अलावा गुरुनानक देव जी का कहना था कि इस धरती पर सभी मनुष्य समान हैं वे ऊंच नीच को नहीं मानते थे और ना ही जात पात के भेदभाव को। उनका कहना था कि न कोई हिन्दू है ना मुसलमान। सभी लोग एक ही ईश्वर की संतानें हैं। आज जब पूरे विश्व में धर्म के नाम पर आतंकवाद और हिंसा की घटनाएं लगातार हो रही हैं तो गुरुनानक जी के ये शब्द बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाते हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि दुनिया में दुख क्लेश और असंतोष का मूल कारण जाति और धर्म के नाम पर किया जाने वाला भेदभाव है। और इस भेदभाव को मिटाने के लिए भी उन्होंने बहुत ही सीधा और सरल उपाय बताया था, संगत ते पंगत। अर्थात बिना किसी धर्म जाति नस्ल या रंग के भेदभाव के बिना एक पंगत यानी पंक्ति में बैठकर एक साथ भोजन यानी लंगर की शुरुआत की। इसके पीछे गुरुनानक जी का स्पष्ट संदेश था कि जितने भी संघर्ष हैं, युद्ध हैं, असुरक्षा और निराशा की भावना, गरीबी और अन्य सामाजिक बीमारियाँ हैं, इंसान इन पर तब तक विजय नहीं प्राप्त कर सकता जब तक कि वो अपने अहम का त्याग ना कर दे। उनका मानना था कि यह स्वयं मनुष्य के हाथ में है कि उसके हृदय में ईश्वर का वास हो या फिर उसके अहम का। इसलिए वे समझाते थे कि किस बात का घमंड? तुम्हारा कुछ नहीं है, खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाओगे। कुछ करके जाओगे तो लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहोगे। आज जब हम अपने आसपास समाज में भौतिकवाद में जकड़े लोंगो में वी आई पी संस्कृति और स्वार्थपूर्ण आचरण का बोलबाला देखते हैं तो गुरुनानक देव जी की यह बातें और उनकी एहमियत सहसा स्मरण हो उठती हैं।

लेकिन अपनी सीखों से विश्व इतिहास में पहली बार मानवता और सत्कर्मों को ही सबसे बड़ा धर्म बताकर सिख धर्म की नींव रखने वाले गुरुनानक देव जी ने समाज में एक और जो सबसे बड़े क्रांतिकारी बदलाव का आगाज़ किया, वो था स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देना। 15 वीं शताब्दी वो दौर था जब चाहे इस्लाम हो चाहे ईसाईयत स्त्री को अपवित्र माना जाता था और हिन्दू धर्म में भले ही स्त्री को देवी का दर्जा प्राप्त था लेकिन ईश्वर की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को साधु का जीवन व्यतीत करना पड़ता था, विवाहित जीवन और स्त्री से दूर रहना पड़ता था, गुरुनानक देव जी ने ना सिर्फ स्त्री को पुरूष के साथ समानता का दर्जा दिया बल्कि वैवाहिक जीवन को भी पवित्रता प्रदान की। अगर हमने गुरुनानक जी के संदेशों को गहराई से समझा होता और एक समाज के रूप में अपने आचरण में उतारा होता तो आज हमें महिला सशक्तिकरण और स्त्री मुक्ति जैसे शब्दों की बातें ही नहीं करनी पड़ती।

दरअसल गुरुनानक देव जी का आध्यात्म आडंबर युक्त नहीं आडंबर मुक्त है। इसलिए जब वे नौ वर्ष के थे और उनका जनेऊ संस्कार होना था, तो उन्होंने जनेऊ पहनने से साफ इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि मनुष्य जब इस संसार को छोड़ कर जाएगा तो कपास से बना जनेऊ का यह धागा तो यहीं रह जाता है। मुझे जनेऊ पहनाना ही है तो वो जनेऊ पहनाओ जो मेरे साथ परलोक में भी जाए। जब उनसे पूछा गया कि ऐसा जनेऊ किस प्रकार का होता है, तो उन्होंने कहा,

“दया कपाह संतोख सूत जत गंदी सत बट

ऐह जनेऊ जीअ का हई तां पाडें घत” अर्थात

इस जनेऊ को बनाने के लिए जब दया रूपी कपास, संतोष रूपी सूत, जत रूपी गांठ और सत रूपी बल का प्रयोग किया गया हो तो यह आत्मा का जनेऊ बन जाता है। यह जनेऊ पहन कर मनुष्य जब अच्छे काम करता है, सच्ची नेक कमाई करता है तो वह नीच जाति का होकर भी स्वर्ण जाति का बन जाता है।

ऐसे गुरुनानक देव जी की सीखें हर काल में प्रासंगिक रहेंगी।