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जय-जय श्री रघुवीर समर्थ 

हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ स्वामी रामदास का नाम भारत के साधु-सन्तों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष हनुमान् जी के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है। उनके जन्मस्थान जाम्बगाँव में उनकी मूर्ति मन्दिर में स्थापित की गयी है।

यद्यपि मूर्ति स्थापना के समय अनेक विद्वानों ने कहा कि मनुष्यों की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा देवताओं के समान नहीं की जा सकती; पर हनुमान् जी के अवतार वाली जन मान्यता के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा।

स्वामी रामदास का जन्म चैत्र शुक्ल 9, विक्रम सम्वत् 1665 (1608 ई0) को दोपहर में हुआ था। यही समय श्रीराम के जन्म का भी है। सूर्याजी पन्त तथा राणूबाई के घर में जन्मे इस बालक का नाम नारायण रखा गया। नारायण बचपन में बहुत शरारती थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने हनुमान् जी को अपना गुरु मान लिया। इसके बाद तो उनका अधिकांश समय हनुमान् मन्दिर में पूजा में बीतने लगा।

एक बार उन्होंने निश्चय किया कि जब तक मुझे हनुमान् जी दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। यह संकल्प देखकर हनुमान् जी प्रकट हुए और उन्हें श्रीराम के दर्शन भी कराये। रामचन्द्र जी ने उनका नाम नारायण से बदलकर रामदास कर दिया।

जब घर वाले उनका विवाह करने लगे, तो वे मण्डप से भागकर गोदावरी के पास टाकली गाँव में एक गुफा में रहकर तप करने लगे। भिक्षा से जो सामग्री मिलती, उसी से वे अपना जीवनयापन करते थे। बारह साल तक कठोर तप करने के बाद वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। यात्रा में उन्होंने हिन्दुओं की दुर्दशा तथा उन पर हो रहे मुसलमानों के भीषण अत्याचार देखे। वे समझ गये कि हिन्दुओं के संगठन के बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता।

इस प्रवास में उन्होंने देश भर में 700 मठ बनाये। इनमें श्रीराम और हनुमान् जी की पूजा के साथ ही युवक कुश्ती तथा शस्त्र स॰चालन का अभ्यास करते थे। इस प्रकार उन्होंने युवकों की एक अच्छी टोली खड़ी कर दी। चाफल केन्द्र से वे इनका संचालन करते थे। ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’ उनका उद्घोष था। इसी से लोग उन्हें ‘समर्थ स्वामी’ कहने लगे। जब शिवाजी ने आदर्श हिन्दू राज्य स्थापित करने के प्रयास प्रारम्भ किये, तो उन्होंने समर्थ स्वामी को अपना गुरु और मार्गदर्शक बनाया।

समर्थ स्वामी की जीवन यात्रा के अनुभव मुख्यतः ‘दासबोध’ नामक ग्रन्थ में संकलित हैं। ऐसी मान्यता है यह उन्होंने शिवाजी के मार्गदर्शन के लिए लिखा था। उनके शिष्य उनके प्रवचनों को लिखते रहते थे। यह सब अन्य अनेक ग्रन्थों में संकलित हैं। 1680 में शिवाजी के देहान्त के बाद उनके पुत्र शम्भाजी का अनुचित व्यवहार देखकर स्वामी जी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने पत्र लिखकर उसे समझाया; पर उसने ध्यान नहीं दिया।

स्वामी जी को लगा कि जिस काम के लिए प्रभु ने उन्हें शरीर दिया था, वह उसे यथाशक्ति पूरा कर चुके हैं। अतः उन्होंने स्वयं को समेटना शुरू किया। जब अश्रुपूरित शिष्यों ने उनसे पूछा कि आपके बाद हमें मार्गदर्शन कौन देगा, तो उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘दासबोध’ की ओर संकेत किया। माघ कृष्ण 9, विक्रम सम्वत् 1739 (22 जनवरी, 1682 ई.) को राम-नाम लेते हुए समर्थ स्वामी रामदास ने अपना शरीर त्याग दिया।

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हेमू कालाणी भारत के एक महान क्रान्तिकारी एवं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। अंग्रेजी शासन ने उन्हें फांसी की सजा दी । हेमू कालाणी  सिंध के सख्खर में २३ मार्च सन् १९२३ को जन्मे थे। उनके पिताजी का नाम पेसूमल कालाणी एवं उनकी माँ का नाम जेठी बाई था।

जब वे किशोर वय के थे तब उन्होंने अपने साथियों के साथ विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया और लोगों से स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का आग्रह किया. सन् १९४२ में जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया तो हेमू इसमें कूद पड़े।

१९४२ में उन्हें यह गुप्त जानकारी मिली कि अंग्रेजी सेना हथियारों से भरी रेलगाड़ी रोहड़ी शहर से होकर गुजरेगी. हेमू कालाणी अपने साथियों के साथ रेल पटरी को अस्त व्यस्त करने की योजना बनाई. वे यह सब कार्य अत्यंत गुप्त तरीके से कर रहे थे पर फिर भी वहां पर तैनात पुलिस कर्मियों की नजर उनपर पड़ी और उन्होंने हेमू कालाणी को गिरफ्तार कर लिया और उनके बाकी साथी फरार हो गए. हेमू कालाणी को कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई.

उस समय के सिंध के गणमान्य लोगों ने एक पेटीशन दायर की और वायसराय से उनको फांसी की सजा ना देने की अपील की. वायसराय ने इस शर्त पर यह स्वीकार किया कि हेमू कालाणी अपने साथियों का नाम और पता बताये पर हेमू कालाणी ने यह शर्त अस्वीकार कर दी. २१ जनवरी १९४३ को उन्हें फांसी की सजा दी गई. जब फांसी से पहले उनसे आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने भारतवर्ष में फिर से जन्म लेने की इच्छा जाहिर की. इन्कलाब जिंदाबाद और भारत माता की जय की घोषणा के साथ उन्होंने फांसी को स्वीकार किया।

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आज जैसा भारत हमें दिखाई देता है, किसी समय वह ऐसा नहीं था। तब हिमालय के नीचे का सारा भाग भारत ही कहलाता था; पर मुस्लिम आक्रमण और धर्मान्तरण के कारण इनमें से पूर्व और पश्चिम के अनेक भाग भारत से कट गये। अफगानिस्तान से लगे ऐसे ही एक भाग पख्तूनिस्तान के उतमानजई गाँव में 24 दिसम्बर, 1880 को अब्दुल गफ्फार खाँ का जन्म हुआ। उन दिनों इसे भारत का नार्थ वेस्ट या फ्रण्टियर क्षेत्र कहा जाता था।

इस क्षेत्र के लोग स्वभाव से विद्रोही एवं लड़ाकू थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें बर्बर और अपराधी कहकर यहाँ ‘फ्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशन ऐक्ट’ लगा दिया और इसके अन्तर्गत यहाँ के निवासियों का दमन किया। अब्दुल गफ्फार खाँ का मत था कि शिक्षा के अभाव में यह क्षेत्र पिछड़ा है और लोग मजबूरी में अपराधी बन रहे हैं। इसलिए 17 वर्ष की अवस्था में इन्होंने मौलवी अब्दुल अजीज के साथ मिलकर अपने गाँव में एक विद्यालय स्थापित किया, जहाँ उनकी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाती थी।

थोड़े समय में ही इनके विद्यालय की ख्याति हो गयी। इससे प्रेरित होकर और लोगों ने भी ऐसे ही मदरसे खोले। 1921 में इन्होंने अंजुमन इस्लाह अल् अफशाना आजाद हाईस्कूल की स्थापना की। इस प्रकार इनकी छवि शिक्षा के माध्यम से समाज सेवा करने वाले व्यक्ति की बन गयी। हाईस्कूल करने के बाद ये अलीगढ़ आ गये, जहाँ इनकी भेंट अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों से हुई। वहाँ ये गांधी जी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए।

पेशावर की खिलाफत समिति के अध्यक्ष पद पर रहकर इन्होंने सीमा प्रान्त में शिक्षा का पर्याप्त विस्तार किया। इसके बाद ये सेना में भर्ती हो गये। एक बार ये अपने एक सैनिक मित्र के साथ अंग्रेज अधिकारी से मिलने गये। वहाँ एक छोटी सी भूल पर इनके मित्र को उस अधिकारी ने बहुत डाँटा। अब्दुल गफ्फार खां के मन को इससे भारी चोट लगी और इन्होंने सेना छोड़ दी। अब इन्होंने एक संस्था ‘खुदाई खिदमतगार’ तथा उसके अन्तर्गत ‘लाल कुर्ती वालंटियर फोर्स’ बनाई। इसके सदस्य लाल रंग के कुर्ते पहनते थे।

खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने सदा अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजों का विरोध किया। प्रतिबन्ध के बावजूद ये जनसभाओं का नेतृत्व करते रहे। इस कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। एक बार जब इन्हें पकड़कर न्यायालय में प्रस्तुत किया गया, तो न्यायाधीश ने व्यंग्य से पूछा – क्या तुम पठानों के बादशाह हो ? तब से ये ‘बादशाह खान’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गांधीवादी रीति के समर्थक होने के कारण इन्हें ‘सीमान्त गांधी’ भी कहा जाता है।

इन्होंने 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उत्साहपूर्वक भाग लिया और जेल गये। देश विभाजन की चर्चा होने पर इन्हें बहुत कष्ट होता था। पाकिस्तान कैसा मजहबी, असहिष्णु और अलोकतान्त्रिक देश होगा, इसकी इन्हें कल्पना थी। इसलिए ये बार-बार कांग्रेस के नेताओं और अंग्रेजों से प्रार्थना करते थे उन्हें भूखे पाकिस्तानी भेड़ियों के सामने न फेंके। उनके क्षेत्र को या तो भारत में रखें या फिर स्वतन्त्र देश बना दें; पर यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। 15 अगस्त, 1947 को पख्तूनिस्तान पाकिस्तान का अंग बन गया।

बादशाह खान भारत में भी अत्यधिक लोकप्रिय थे। शासन ने 1987 में उन्हें ‘भारत रत्न’ देकर सम्मानित किया। 20 जनवरी, 1988 को 98 वर्ष की आयु में भारत के इस घनिष्ठ मित्र का देहान्त हुआ।

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​​19 जनवरी ​1990, ये वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी हिंदुओं को अपनी धरती, अपना घर हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी होना पड़ा. वे आज भी शरणार्थी हैं. उन्हें वहाँ से भागने के लिए मजबूर करने वाले भी कहने को भारत के ही नागरिक थे, और आज भी हैं.

हिजबुल मुजाहिदीन ने ​4 जनवरी ​1990 को प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचार पत्रों  आफताब और अल सफा ने छापा, ​ प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर जाने का आदेश दिया गया था. कश्मीरी हिंदुओं की खुले आम हत्याएँ शुरू हो गयी. कश्मीर की मस्जिदों के लाउडस्पीकर जो अब तक केवल अल्लाह-ओ-अकबर के स्वर छेड़ते थे, अब भारत की ही धरती पर हिंदुओं को चीख चीख कहने लगे कि कश्मीर छोड़ कर चले जाओ और अपनी बहू बेटियाँ हमारे लिए छोड़ जाओ.

 “कश्मीर में रहना है तो अल्लाह-अकबर कहना है”, “असि गाची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सन” (हमें पाकिस्तान चाहिए, हिंदू स्त्रियों के साथ, लेकिन पुरुष नहीं”), ये नारे मस्जिदों से लगाये जाने वाले कुछ नारों में से थे. दीवारों पर पोस्टर लगे हुए थे कि सभी कश्मीर में इस्लामी वेश भूषा पहनें, सिनेमा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया. कश्मीरी हिंदुओं की दुकानें, मकान और व्यापारिक प्रतिष्ठान चिन्हित कर दिए गए. यहाँ तक कि लोगों की घड़ियों का समय भी भारतीय समय से बदल कर पाकिस्तानी समय पर करने को उन्हें विवश किया गया

​24 घंटे में कश्मीर छोड़ दो या फिर मारे जाओ – काफिरों को क़त्ल करो का सन्देश कश्मीर में गूँज रहा था. हिन्दू लोगों ने उस रात अपनी बहन-बेटियों को तहखानों में छुपा दिया था. सभी ने अपनी बच्चियों को जहर की पुड़िया दे दी थी ताकि कुछ अनहोनी होने पर वह इसे खा लें.

​​आज कश्मीर घाटी में हिंदू नहीं हैं, उनके शरणार्थी शिविर जम्मू और दिल्ली में आज भी हैं. कश्यप ऋषि की धरती, भगवान शंकर की भूमि कश्मीर जहाँ कभी पांडवों की ​28 पीढ़ियों ने राज्य किया था, वो कश्मीर जिसे आज भी भारत माँ का मुकुट कहा जाता है, वहाँ भारत के झंडा लेकर जाने पर सांसदों को पुलिस पकड़ लेती है और आम लोगों पर डंडे बरसाती है.

​600 साल पहले तक भी यही कश्मीर अपनी शिक्षा के लिए जाना जाता था. औरंगजेब का बड़ा भाई दारा शिकोह कश्मीर विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ने गया था. बाद में उसे औरंगजेब ने इस्लाम से निष्कासित करके उसे क़त्ल किया था. भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग और प्रतिनिधि रहे कश्मीर को आज अपना कहने में भी सेना की सहायता लेनी पड़ती है.

“हिंदू घटा तो भारत बंटा” के ‘तर्क’ की कोई काट उपलब्ध नहीं है. इस घटना को जनस्मृति से विस्मृत होने देने का षड़यंत्र भी रचा गया है. आज की पीढ़ी में कितने लोग उन विस्थापितों के दुःख को जानते हैं जो आज भी विस्थापित हैं. भोगने वाले भोग रहे हैं. जो जानते हैं, दुःख से उनकी छाती फटती है, और आँखें याद करके आंसुओं के समंदर में डूब जाती हैं और सर लज्जा से झुक जाता है.

कवि हरि ओम पवार ने इस दशा का वर्णन करते हुए जो लिखा, वही प्रत्येक जानकार की मनोदशा का प्रतिबिम्ब है – “मन करता है फूल चढा दूँ लोकतंत्र की अर्थी पर, भारत के बेटे शरणार्थी हो गए अपनी धरती पर”

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सामान्यतः नेता या बड़े लोग दूसरों को तो अनुशासन की शिक्षा देते हैं; पर वे स्वयं इसका पालन नहीं करते। वे सोचते हैं कि अनुशासन का पालन करना दूसरों का काम है और वे इससे ऊपर हैं; पर 18 जनवरी, 1842 को महाराष्ट्र के एक गाँव निफड़ में जन्मे श्री महादेव गोविन्द रानाडे इसके अपवाद थे। उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसके साथ ही समाज सुधार उनकी चिन्ता का मुख्य विषय था।

एक बार उन्हें पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वार्षिकोत्सव समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होना था। आमन्त्रित अतिथियों को यथास्थान बैठाने के लिए द्वार पर कुछ कार्यकर्त्ता तैनात थे। उन्हें निर्देश था कि बिना निमन्त्रण पत्र के किसी को अन्दर न आने दें।

श्री रानाडे का नाम तो निमन्त्रण पत्र पर छपा था; पर उनके पास उस समय वह निमन्त्रण पत्र नहीं था। द्वार पर तैनात वह कार्यकर्त्ता उन्हें पहचानता नहीं था। इसलिए उसने श्री रानाडे को नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया। श्री रानाडे ने इस बात का बुरा नहीं माना, वे बोले – बेटे, मेरे पास तो निमन्त्रण पत्र नहीं है। इतना कहकर वे सहज भाव से द्वार के पास ही खड़े हो गये।

थोड़ी देर में कार्यक्रम के आयोजकों की दृष्टि उन पर पड़े। वे दौड़कर आये और उस कार्यकर्ता को डाँटने लगे। इस पर वह कार्यकर्त्ता आयोजकों से ही भिड़ गया। उसने कहा कि आप लोगों ने ही मुझे यह काम सौंपा है और आप ही नियम तोड़ रहे हैं, ऐसे में मैं अपना कर्त्तव्य कैसे पूरा करूँगा। कोई भी अतिथि हो; पर नियमानुसार उस पर निमन्त्रण पत्र तो होना ही चाहिए।

आयोजक लोग उसे आवश्यकता से अधिक बोलता देख नाराज होने लगे; पर श्री रानाडे ने उन्हें शान्त कराया और उसकी अनुशासनप्रियता की सार्वजनिक रूप से अपने भाषण में प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आज ऐसे ही अनुशासनप्रिय लोगों की आवश्यकता है। यदि सभी भारतवासी अनुशासन का पालन करें, तो हमें स्वतन्त्रता भी शीघ्र मिल सकती है और उसके बाद देश की प्रगति भी तेजी से होगी। इतना ही नहीं, कार्यक्रम समाप्ति के बाद उन्होंने उस कार्यकर्ता की पीठ थपथपा कर उसे शाबासी दी। वह कार्यकर्ता आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हुआ। उसका नाम था गोपाल कृष्ण गोखले।

श्री रानाडे में अनुशासन, देशप्रेम व चारि×य के ऐसे सुसंस्कार उनके परिवार से ही आये थे। उनका परिवार परम्परावादी था; पर श्री रानाडे खुले विचारों के होने के कारण प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये और फिर उसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गये।

इस नाते उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषकर महाराष्ट्रीय परिवारों में व्याप्त कुरीतियों पर चोट की और समाज सुधार के प्रयास किये। उनका मत था कि स्वतन्त्र होने के बाद देश का सामाजिक रूप से सबल होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना आर्थिक रूप से। इसलिए वे समाज सुधार की प्रक्रिया में लगे रहे।

इस काम में उन्हें समाज के अनेक वर्गों का विरोध सहना पड़ा; पर वे विचलित नहीं हुए। उनका मानना था कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की पहल जो भी करेगा, उसे घर-परिवार तथा समाज के स्थापित लोगों से संघर्ष मोल लेना ही होगा। इसलिए इस प्रकार की मानसिकता बनाकर ही वे इस काम में लगे। इसीलिए आज भी उन्हें याद किया जाता है।

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17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मालेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी। एक-एक कर 50 गोभक्त सिख वीर वहाँ लाये गये। उनके हाथ पीछे बँधे थे। इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना था। ये सब सदगुरु रामसिंह कूका के शिष्य थे।

अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुह पर काला कपड़ा बाँधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया; पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बँधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे। तब मैदान में एक बड़ी तोप लायी गयी। अनेक समूहों में इन वीरों को तोप के सामने खड़ा कर गोला दाग दिया जाता। गोले के दगते ही गरम मानव खून के छींटे और मांस के लोथड़े हवा में उड़ते। जनता में अंग्रेज शासन की दहशत बैठ रही थी। कोवन का उद्देश्य पूरा हो रहा था। उसकी पत्नी भी इस दृश्य का आनन्द उठा रही थी।

इस प्रकार 49 वीरों ने मृत्यु का वरण किया; पर 50 वें को देखकर जनता चीख पड़ी। वह तो केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशनसिंह था। अभी तो उसके चेहरे पर मूँछें भी नहीं आयी थीं। उसे देखकर कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया। उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा। कोवन ने बिशनसिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि यदि तुम उस धूर्त का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।

यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा। उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा। कोवन ने बहुत प्रयत्न किया; पर वह उस तेजस्वी बालक की पकड़ से अपनी दाढ़ी नहीं छुड़ा सका। इसके बाद बालक ने उसे धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा। यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। इसके बाद उसे वहीं गोली मार दी गयी। इस प्रकार 50 कूका वीर उस दिन बलिपथ पर चल दिये।

गुरु रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई0 की वसन्त पंचमी को लुधियाना के भैणी ग्राम में जस्सासिंह बढ़ई के घर में हुआ था। वे शुरू से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। कुछ वर्ष वे महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे। फिर अपने गाँव में खेती करने लगे। वे सबसे अंग्रेजों का विरोध करने तथा समाज की कुरीतियों को मिटाने को कहते थे। उन्होंने सामूहिक, अन्तरजातीय और विधवा विवाह की प्रथा चलाई। उनके शिष्य ही ‘कूका’ कहलाते थे।

कूका आन्दोलन का प्रारम्भ 1857 में पंजाब के विख्यात बैसाखी पर्व (13 अप्रैल) पर भैणी साहब में हुआ। गुरु रामसिंह जी गोसंरक्षण तथा स्वदेशी के उपयोग पर बहुत बल देते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी।

मकर संक्रान्ति मेले में मलेरकोटला से भैणी आ रहे गुरुमुख सिंह नामक एक कूका के सामने मुसलमानों ने जानबूझ कर गोहत्या की। यह जानकर कूका वीर बदला लेने को चल पड़े। उन्होंने उन गोहत्यारों पर हमला बोल दिया; पर उनकी शक्ति बहुत कम थी। दूसरी ओर से अंग्रेज पुलिस एवं फौज भी आ गयी। अनेक कूका मारे गये और 68 पकड़े गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी को तथा शेष को अगले दिन मृत्युदण्ड दिया गया।

अंग्रेज जानते थे कि इन सबके पीछे गुरु रामसिंह कूका की ही प्रेरणा है। अतः उन्हें भी गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में भेज दिया। 14 साल तक वहाँ काल कोठरी में कठोर अत्याचार सहकर 1885 में सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया।

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय  बांग्ला के अमर कथाशिल्पी और सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थे। इनका जन्म 15 सितम्बर सन् 1876 ई. को हुगली ज़िले के एक देवानंदपुर गाँव में हुआ था। शरतचंद्र अपने माता पिता की नौ संतानों में एक थे। शरतचंद्र ने अठ्ठारह साल की उम्र में बारहवीं पास की थी। शरतचंद्र ने इन्हीं दिनों ‘बासा’ (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई.  शरत चंद्र चट्टोपाध्याय अकेले ऐसे भारतीय कथाकार भी हैं, जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फ़िल्में बनीं तथा अनेक धारावाहिक सीरियल भी बने। इनकी कृतियाँ देवदास, चरित्रहीन और श्रीकान्त के साथ तो यह बार-बार घटित हुआ है।

शरतचंद्र ने अनेक उपन्यास लिखे हैं जिनमें पंडित मोशाय, बैकुंठेर बिल, मेज दीदी, दर्पचूर्ण, अभागिनी का स्वर्ग, श्रीकांत, अरक्षणीया, निष्कृति, मामलार फल, अनुपमा का प्रेम, गृहदाह, शेष प्रश्न, दत्ता, देवदास, ब्राह्मण की लड़की, सती, विप्रदास, देना पावना आदि प्रमुख हैं। इन्होंने बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर ‘पथेर दावी’ उपन्यास लिखा था। कई भारतीय भाषाओं में शरत के उपन्यासों के अनुवाद हुए हैं। शरतचंद्र के कुछ उपन्यासों पर आधारित हिन्दी फ़िल्में भी कई बार बनी हैं। 1974 में इनके उपन्यास ‘चरित्रहीन’ पर आधारित फ़िल्म बनी थी। उसके बाद देवदास को आधार बनाकर देवदास फ़िल्म का निर्माण तीन बार हो चुका है। पहली देवदास (1936),  दूसरी देवदास (1955) तथा तीसरी देवदास (2002).  इसके अतिरिक्त 1974 में चरित्रहीन, परिणीता 1953 और 2005 में भी बनी थी, बड़ी दीदी (1969) तथा मँझली बहन, आदि पर भी चलचित्रों के निर्माण हुए हैं।

बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर “पथेर दावी” उपन्यास लिखा गया। पहले यह “बंग वाणी” में धारावाहिक रूप से निकाला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया।

प्रसिद्ध उपन्यासकार शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की मृत्यु 16 जनवरी सन् 1938 को हुयी थी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएँ हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती हैं। लोकप्रियता के मामले में बंकिम चंद्र चटर्जी और शरतचंद्र रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी आगे हैं।

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भारतीय थल सेना दिवस प्रत्येक वर्ष 15 जनवरी को मनाया जाता है। वस्तुत: ‘थल सेना दिवस’ देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वाले वीर सपूतों के प्रति श्रद्धांजलि देने का दिन है। यह दिन देश के प्रति समर्पण व बलिदान होने की प्ररेणा का पवित्र अवसर है।

भारत में ‘थल सेना दिवस’ देश के जांबाज रणबांकुरों की शहादत पर गर्व करने का एक विशेष मौका है। 15 जनवरी, 1949 के बाद से ही भारत की सेना ब्रिटिश सेना से पूरी तरह मुक्त हुई थी, इसीलिए 15 जनवरी को “थल सेना दिवस” घोषित किया गया।  यह दिवस भारतीय सेना की आज़ादी का जश्न है। यह वही आज़ादी है, जो वर्ष 1949 में 15 जनवरी को भारतीय सेना को मिली थी।

इस दिन के.एम. करिअप्पा को भारतीय सेना का ‘कमांडर-इन-चीफ़’ बनाया गया था। इस तरह लेफ्टिनेंट करिअप्पा लोकतांत्रिक भारत के पहले सेना प्रमुख बने थे। इसके पहले यह अधिकार ब्रिटिश मूल के फ़्राँसिस बूचर के पास था।

देश की सीमाओं की चौकसी करने वाली भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास रहा है। इस दिन देश की राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर बनी अमर जवान ज्योति पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है।  दिल्ली में आयोजित परेड के दौरान अन्य देशों के सैन्य अथितियों और सैनिकों के परिवारों वालों को बुलाया जाता है। ‘थल सेना दिवस’ पर शाम को सेना प्रमुख चाय पार्टी आयोजित करते हैं, जिसमें तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिमंडल के सदस्य शामिल होते हैं।

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किसी भी व्यक्ति के जीवन में नेत्रों का अत्यधिक महत्व है। नेत्रों के बिना उसका जीवन अधूरा है; पर नेत्र न होते हुए भी अपने जीवन को समाज सेवा का आदर्श बना देना सचमुच किसी दैवी प्रतिभा का ही काम है। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व हैं।

स्वामी जी का जन्म ग्राम शादी खुर्द (जौनपुर, उ.प्र.) में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था। जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक अति प्रतिभावान होगा; पर दो माह की अवस्था में इनके नेत्रों में रोहु रोग हो गया। नीम हकीम के इलाज से इनकी नेत्र ज्योति सदा के लिए चली गयी। पूरे घर में शोक छा गया; पर इन्होंने अपने मन में कभी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया।

चार वर्ष की अवस्था में ये कविता करने लगे। 15 दिन में गीता और श्रीरामचरित मानस तो सुनने से ही याद हो गये। इसके बाद इन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पी-एच.डी) व विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं। छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के वे ज्ञाता हैं।

अध्ययन के साथ-साथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अद्भुत है। इन्होंने 80 ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में जहाँ उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं, वहीं करगिल विजय पर लिखा नाटक ‘उत्साह’ इन्हें समकालीन जगत से जोड़ता है। सभी प्रमुख उपनिषदों का आपने भाष्य किया है। ‘प्रस्थानत्रयी’ के इनके द्वारा किये गये भाष्य का विमोचन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।

बचपन से ही स्वामी जी को चौपाल पर बैठकर रामकथा सुनाने का शौक था। आगे चलकर वे भागवत, महाभारत आदि ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे। जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया।

स्वामी जी ने अब चित्रकूट में डेरा लगाया और श्री रामभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1987 में इन्होंने यहाँ तुलसी पीठ की स्थापना की। 1998 के कुम्भ में स्वामी जी को जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया।

तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी जी ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। इसके बाद वे मारीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देशों के प्रवास पर गये।

स्वयं नेत्रहीन होने के कारण स्वामी जी को नेत्रहीनों एवं विकलांगों के कष्टों का पता है। इसलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय विकलांग विश्विविद्यालय स्थापित किया। इसमें सभी प्रकार के विकलांग शिक्षा पाते हैं। इसके अतिरिक्त विकलांगों के लिए गोशाला व अन्न क्षेत्र भी है। राजकोट (गुजरात) में महाराज जी के प्रयास से सौ बिस्तरों का जयनाथ अस्पताल, बालमन्दिर, ब्लड बैंक आदि का संचालन हो रहा है।

विनम्रता एवं ज्ञान की प्रतिमूर्ति स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं।

मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी
हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी।

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मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व उत्तर भारत विशेषतः पंजाब में लोहड़ी का त्यौहार मनाया जाता है। किसी न किसी नाम से मकर संक्रांति के दिन या उससे आस-पास भारत के विभिन्न प्रदेशों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन तमिल हिंदू पोंगल का त्यौहार मनाते हैं। इस प्रकार लगभग पूर्ण भारत में यह विविध रूपों में मनाया जाता है।

मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को  पंजाब, हरियाणा व पड़ोसी राज्यों में बड़ी धूम-धाम से ‘लोहड़ी ‘  का त्यौहार मनाया जाता है।  पंजाबियों  के लिए लोहड़ी खास महत्व रखती है।  लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही  छोटे बच्चे  लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी हेतु लकड़ियां, मेवे, रेवड़ियां, मूंगफली  इकट्ठा करने लग जाते हैं।  लोहड़ी की संध्या को आग जलाई जाती है। लोग अग्नि के चारो ओर चक्कर काटते हुए नाचते-गाते हैं व आग मे रेवड़ी, मूंगफली, खील, मक्की के दानों की आहुति देते हैं। आग के चारो ओर बैठकर लोग आग सेंकते हैं व रेवड़ी,  खील, गज्जक, मक्का खाने का आनंद लेते हैं। जिस घर में नई शादी हुई हो या बच्चा हुआ हो उन्हें विशेष तौर पर बधाई दी जाती है।  प्राय:  घर मे नव वधू या और बच्चे  की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है।

लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था। यह शब्द तिल तथा रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदल कर लोहड़ी के रुप में प्रसिद्ध हो गया।

ऐतिहासिक संदर्भ –  किसी समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं जिनको उनका चाचा विधिवत शादी न करके एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू हुआ है। उसने दोनों लड़कियों,  ‘सुंदरी एवं मुंदरी’ को जालिमों से छुड़ा कर उन की शादियां कीं। इस मुसीबत की घडी में दुल्ला भट्टी ने लड़कियों की मदद की और लडके वालों को मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी।

जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर ही उनको विदा कर दिया। भावार्थ यह है कि डाकू हो कर भी  दुल्ला भट्टी ने निर्धन लड़कियों के लिए पिता की भूमिका निभाई।

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