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भारतीय खगोल वैज्ञानिक मेघनाद साहा का खगोल विज्ञान के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान है.

मेघनाद साहा का जन्म: 6 अक्टूबर 1893, शाओराटोली, ढाका (वर्तमान बांग्लादेश) मे हुआ था.

वास्तव में मेघनाद साहा के तापीय आयनीकरण (थर्मल आयोनाइजेश) के सिद्धांत को खगोल विज्ञान में तारकीय वायुमंडल के जन्म और उसके रासायनिक संगठन की जानकारी का आधार माना जा सकता है. खगोल विज्ञान के क्षेत्र में साहा के कामों का प्रभाव दूरगामी रहा है. बाद में विदेशों में किए गए कई शोध उनके सिद्धातों पर आधारित हैं. साहा समीकरण ने सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया और यह समीरकरण तारकीय वायुमंडल के विस्तृत अध्ययन का आधार बना.

साहा समीकरण तारों के रासायनिक संगठन की व्याख्या से संबंधित है. भारतीय कैलेंडर के क्षेत्र में उनके योगदान के बारे में उन्होंने बताया कि साहा देश के विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में प्रचलित पंचागों में सुधारों के लिए गठित समिति के अध्यक्ष थे. इन पंचागों में कई विरोधाभास और विभिन्नताएं थी. समिति ने इन विभिन्नताओं को दूर करने की दिशा में काम किया. आज प्रचलित कैलेंडरों का आधार भी यही है.

1920 में उनके सौरवर्ण का आयनीकरण और सूर्य में विद्यमान तत्वों से संबंधित लेख जानी मानी विज्ञान पत्रिका ‘फिलासाफिकल’ में प्रकाशित हुए. इन लेखों ने साहा को पूरी दुनिया में लोकप्रिय बना दिया.

वह इलाहाबाद विविद्यालय में प्राध्यापक थे और इसके बाद कलकत्ता विविद्यालय में विज्ञान फैकल्टी के प्राध्यापक एवं डीन भी रहे.16 फरवरी 1956 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया.

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महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस और शौर्य के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।

उनका विवाह गढ़ मंडला के प्रतापी राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपतशाह से हुआ। 52 गढ़ तथा 35,000 गांवों वाले गोंड साम्राज्य का क्षेत्रफल 67,500 वर्गमील था। यद्यपि दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी। फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने उसे अपनी पुत्रवधू बना लिया।

पर दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।

रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था। मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया; पर हर बार वह पराजित हुआ। मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में सेनाएं भेज दीं। आसफ खां गोंडवाना के उत्तर में कड़ा मानकपुर का सूबेदार था।

एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये। रानी की भी अपार क्षति हुई। रानी उसी दिन अंतिम निर्णय कर लेना चाहती थीं। अतः भागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम क्षेत्र से बाहर निकल गयीं। तब तक रात घिर आयी। वर्षा होने से नाले में पानी भी भर गया।

अगले दिन 24 जून, 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा। रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी निकाला; पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।

रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे; पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई। उसका ढहता हुआ साम्राज्य फिर से जम गया। इस धन से उसने सेना एकत्र कर अगले तीन वर्ष में चित्तौड़ को भी जीता।

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, वहां रानी की समाधि बनी है। देशप्रेमी वहां जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

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भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन महापुरुषों ने विदेश में रहकर क्रान्ति की मशाल जलाये रखी, उनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम अग्रणी है। 4 अक्तूबर, 1857 को कच्छ (गुजरात) के मांडवी नगर में जन्मे श्यामजी पढ़ने में बहुत तेज थे।

इनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी; पर मुम्बई के सेठ मथुरादास ने इन्हें छात्रवृत्ति देकर विल्सन हाईस्कूल में भर्ती करा दिया। वहाँ वे नियमित अध्ययन के साथ पंडित विश्वनाथ शास्त्री की वेदशाला में संस्कृत का अध्ययन भी करने लगे।

मुम्बई में एक बार महर्षि दयानन्द सरस्वती आये। उनके विचारों से प्रभावित होकर श्यामजी ने भारत में संस्कृत भाषा एवं वैदिक विचारों के प्रचार का संकल्प लिया। ब्रिटिश विद्वान प्रोफेसर विलियम्स उन दिनों संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष बना रहे थे। श्यामजी ने उनकी बहुत सहायता की। इससे प्रभावित होकर प्रोफेसर विलियम्स ने उन्हें ब्रिटेन आने का निमन्त्रण दिया। वहाँ श्यामजी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए; पर स्वतन्त्र रूप से उन्होंने वेदों का प्रचार भी जारी रखा।

कुछ समय बाद वे भारत लौट आये। उन्होंने मुम्बई में वकालत की तथा रतलाम, उदयपुर व जूनागढ़ राज्यों में काम किया। वे भारत की गुलामी से बहुत दुखी थे। लोकमान्य तिलक ने उन्हें विदेशों में स्वतन्त्रता हेतु काम करने का परामर्श दिया। इंग्लैण्ड जाकर उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए एक मकान खरीदकर उसका नाम इंडिया हाउस (भारत भवन) रखा। शीघ्र ही यह भवन क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। उन्होंने राणा प्रताप और शिवाजी के नाम पर छात्रवृत्तियाँ प्रारम्भ कीं।

1857 के स्वातंत्र्य समर का अर्धशताब्दी उत्सव ‘भारत भवन’ में धूमधाम से मनाया गया। उन्होंने ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ नामक समाचार पत्र भी निकाला। उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा – मनुष्य की स्वतन्त्रता सबसे बड़ी बात है, बाकी सब बाद में। उनके विचारों से प्रभावित होकर वीर सावरकर, सरदार सिंह राणा और मादाम भीकाजी कामा उनके साथ सक्रिय हो गये। लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि भी वहाँ आने लगे।

विजयादशमी पर्व पर ‘भारत भवन’ मंे वीर सावरकर और गांधी जी दोनों ही उपस्थित हुए। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के अपराधी माइकेल ओ डायर का वध करने वाले ऊधमसिंह के प्रेरणास्रोत श्यामजी ही थे। अब वे शासन की निगाहों में आ गये, अतः वे पेरिस चले गये। वहाँ उन्होंने ‘तलवार’ नामक अखबार निकाला तथा छात्रों के लिए ‘धींगरा छात्रवृत्ति’ प्रारम्भ की।

भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए शस्त्रों का प्रबन्ध मुख्यतः वे ही करते थे। भारत में होने वाले बमकांडों के तार उनसे ही जुड़े थे। अतः पेरिस की पुलिस भी उनके पीछे पड़ गयी। उनके अनेक साथी पकड़े गये। उन पर भी ब्रिटेन में राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाने लगा। अतः वे जेनेवा चले गये। 30 मार्च, 1930 को श्यामजी ने और 22 अगस्त, 1933 को उनकी धर्मपत्नी भानुमति ने मातृभूमि से बहुत दूर जेनेवा में ही अन्तिम साँस ली।

श्यामजी की इच्छा थी कि स्वतन्त्र होने के बाद ही उनकी अस्थियाँ भारत में लायी जायें। उनकी यह इच्छा 73 वर्ष तक अपूर्ण रही। अगस्त, 2003 में गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी उनके अस्थिकलश लेकर भारत आये।

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सामान्यतः भारत में स्वाधीनता के संघर्ष को 1857 से प्रारम्भ माना जाता है; पर सत्य यह है कि जब से विदेशी और विधर्मियों के आक्रमण भारत पर होने लगे, तब से ही यह संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। भारत के स्वाभिमानी वीरों ने मुगल, तुर्क, हूण, शक, पठान, बलोच और पुर्तगालियों से लेकर अंग्रेजों तक को धूल चटाई है। ऐसे ही एक वीर थे राजा विजय सिंह।

उत्तराखंड राज्य में हरिद्वार एक विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यहां पर ही गंगा पहाड़ों का आश्रय छोड़कर मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है। इस जिले में एक गांव है कुंजा बहादुरपुर। यहां के बहादुर राजा विजय सिंह ने 1857से बहुत पहले 1824 में ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता का संघर्ष छेड़ दिया था।

कुंजा बहादुरपुर उन दिनों लंढौरा रियासत का एक भाग था। इसमें उस समय 44 गांव आते थे। 1913 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह के देहांत के बाद रियासत की बागडोर उनके पुत्र राजा विजय सिंह ने संभाली। उन दिनों  प्रायः सभी भारतीय राजा और जमींदार अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे; पर गंगापुत्र राजा विजय सिंह किसी और ही मिट्टी के बने थे।

राजा विजय सिंह ने विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों के आगे सिर झुकाने की बजाय उन्हें अपनी रियासत से बाहर निकल जाने का आदेश सुना दिया। वीर सेनापति कल्याण सिंह भी राजा के दाहिने हाथ थे। 1822 ई. में सेनापति के सुझाव पर राजा विजय सिंह ने अपनी जनता को आदेश दिया कि वे अंग्रेजों को मालगुजारी न दें, ब्रिटिश राज्य के प्रतीक सभी चिन्हों को हटा दें, तहसील के खजानों को अपने कब्जे में कर लें तथा जेल से सभी बन्दियों को छुड़ा लें। जनता भी अपने राजा और सेनापति की ही तरह देशाभिमानी थी। उन्होंने इन आदेशों का पालन करते हुए अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।

अंग्रेजों ने सोचा कि यदि ऐसे ही चलता रहा, तो सब ओर विद्रोह फैल जाएगा। अतः सबसे पहले उन्होंने राजा विजय सिंह को समझा बुझाकर उसके सम्मुख सन्धि का प्रस्ताव रखा; पर स्वाभिमानी राजा ने इसे ठुकरा दिया। अब दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी। सात सितम्बर, 1824 की रात को अंग्रेजों ने गांव कुंजा बहादुरपुर पर हमला बोल दिया। उनकी सेना में अनेक युद्ध लड़ चुकी गोरखा रेजिमेंट की नौवीं बटालियन भी शामिल थी।

राजा विजय सिंह और सेनापति कल्याण सिंह जानते थे कि अंग्रेजों के पास सेना बहुत अधिक है तथा उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी आधुनिक प्रकार के हैं; पर उन्होंने झुकने की बजाय संघर्ष करने का निर्णय लिया। राजा विजय सिंह के नेतृत्व में गांव के वीर युवकों ने कई दिन तक मोर्चा लिया; पर अंततः तीन अक्तूबर, 1844 को राजा को युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त हुई।

इससे अंग्रेज सेना मनमानी पर उतर आयी। उन्होंने गांव में जबरदस्त मारकाट मचाते हुए महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े.. किसी पर दया नहीं दिखाई। उन्होंने सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। गांव में स्थित सुनहरा केवट वृक्ष पर लटका कर एक ही दिन में 152 लोगों को फांसी दे दी गयी। इस भयानक नरसंहार का उल्लेख तत्कालीन सरकारी गजट में भी मिलता है।

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लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में ‘मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव’ के यहां हुआ था. उनका प्राथमिक शिक्षण ननिहाल में रहते हुए हुआ. उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई. काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री जी ने अनपे नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया। इसके पश्चात ‘शास्त्री’ शब्द ‘लालबहादुर’ के नाम का पर्याय ही बन गया। बाद के दिनों में “मरो नहीं, मारो” का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने एक क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया। उनका दिया हुआ एक और नारा ‘जय जवान-जय किसान’ तो आज भी लोगों की जुबान पर है।
शास्त्रीजी ने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणाम स्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।
शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया।  1961 में गृह मंत्री के प्रभावशाली पद पर नियुक्ति के बाद उन्हें एक कुशल मध्यस्थ के रूप में प्रतिष्ठा मिली। नेहरू की मृत्यु के बाद जून 1964 में वह भारत के प्रधानमंत्री बने।
उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धांतिक न होकर पूरी तरह से व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थी। निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। जम्मू-कश्मीर के विवादित प्रांत पर पड़ोसी पाकिस्तान के साथ 1965 में हुए युद्ध में उनके द्वारा दिखाई गई दृढ़ता के लिए उनकी बहुत प्रशंसा हुई।
ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ युद्ध न करने की ताशकंद घोषणा के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया।
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डा. एनी वुड बेसेंट का जन्म एक अक्तूबर, 1847 को लंदन में हुआ था। इनके पिता अंग्रेज तथा माता आयरिश थीं। जब ये पांच वर्ष की थीं, तब इनके पिता का देहांत हो गया। अतः इनकी मां ने इन्हें मिस मेरियट के संरक्षण में हैरो भेज दिया। उनके साथ वे जर्मनी और फ्रांस गयीं और वहां की भाषाएं सीखीं। 17 वर्ष की अवस्था में वे फिर से मां के पास आ गयीं।

1867 में इनका विवाह एक पादरी रेवरेण्ड फ्रेंक से हुआ। वह संकुचित विचारों का था। अतः दो संतानों के बाद ही तलाक हो गया। ब्रिटिश कानून के अनुसार दोनों बच्चे पिता पर ही रहे। इससे इनके दिल को ठेस लगी। उन्होंने मां से बच्चों को अलग करने वाले कानून की निन्दा करते हुए अपना शेष जीवन निर्धन और अनाथों की सेवा में लगाने का निश्चय किया। इस घटना से इनका विश्वास ईश्वर, बाइबिल और ईसाई मजहब से भी उठ गया।

श्रीमती एनी बेसेंट इसके बाद लेखन और प्रकाशन से जुड़ गयीं। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए अथक प्रयत्न किये। आंदोलन करने वाले मजदूरों के उत्पीड़न को देखकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इन काले कानूनों का विरोध किया। वे कई वर्ष तक इंग्लैंड के सबसे शक्तिशाली महिला मजदूर यूनियन की सचिव भी रहीं।

वे 1883 में समाजवादी और 1889 में ब्रह्मविद्यावादी (थियोसोफी) विचारों के सम्पर्क में आयीं। वे एक कुशल वक्ता थीं और सारे विश्व में इन विचारों को फैलाना चाहती थीं। वे पाश्चात्य विचारधारा की विरोधी और प्राचीन भारतीय व्यवस्था की समर्थक थीं। 1893 में उन्होंने वाराणसी को अपना केन्द्र बनाया। यहां उनकी सभी मानसिक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान हुआ। अतः वे वाराणसी को ही अपना वास्तविक घर मानने लगीं।

1907 में वे ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की अध्यक्ष बनीं। उन्होंने धर्म, शिक्षा, राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में पुनर्जागरण के लिए 1916 में ‘होम रूल लीग’ की स्थापना की। उन्होंने वाराणसी में ‘सेंट्रल हिन्दू कॉलेज’ खोला तथा 1917 में इसे महामना मदनमोहन मालवीय जी को समर्पित कर दिया। वाराणसी में उन्होंने 1904 में ‘हिन्दू गर्ल्स स्कूल’ भी खोला। इसी प्रकार ‘इन्द्रप्रस्थ बालिका विद्यालय, दिल्ली’ तथा निर्धन एवं असहाय लोगों के लिए 1908 में ‘थियोसोफिकल ऑर्डर ऑफ सर्विस’ की स्थापना की।

उन्होंने धार्मिक एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार, महिला जागरण, स्काउट एवं मजदूर आंदोलन आदि में सक्रिय भूमिका निभाई। सामाजिक बुराइयां मिटाने के लिए उन्होंने ‘ब्रदर्स ऑफ सर्विस’ संस्था बनाई। इसके सदस्यों को एक प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। कांग्रेस और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय होने के कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ा। 1917 के कोलकाता अधिवेशन में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। यद्यपि फिर लोकमान्य तिलक और गांधी जी से उनके भारी मतभेद हो गये। इससे वे अकेली पड़ गयीं। वे गांधीवाद का उग्र विरोध करते हुए कहती थीं कि इससे भारत में अराजकता फैल जाएगी।

डा. एनी बेसेंट एक विदुषी महिला थीं। उन्होंने सैकड़ों पुस्तक और लेख लिखे। वे स्वयं को पूर्व जन्म का हिन्दू एवं भारतीय मानती थीं। 20 सितम्बर, 1933 को चेन्नई में उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी अस्थियों को वाराणसी में सम्मान सहित गंगा में विसर्जित कर दिया गया।

(संदर्भ : केन्द्र भारती अक्तूबर 2006 / विकीपीडिया)

सूफी अम्बाप्रसाद का जन्म 1858 में मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश के एक सम्पन्न भटनागर परिवार में हुआ था। जन्म से ही उनका दाहिना हाथ नहीं था। कोई पूछता, तो वे हंसकर कहते कि 1857 के संघर्ष में एक हाथ कट गया था। मुरादाबाद, बरेली और जालंधर में उन्होंने शिक्षा पायी। पत्रकारिता में रुचि होने के कारण कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी उन्होंने वकालत के बदले ‘जाम्मुल अमूल’ नामक समाचार पत्र निकाला। उनके विचार पढ़कर नवयुवकों में जागृति की लहर दौड़ने लगी।

सूफी जी विद्वान तो थे ही; पर बुद्धिमान भी बहुत थे। उन्हें पता लगा कि भोपाल रियासत में अंग्रेज अधिकारी जनता को बहुत परेशान कर रहा है। वे वेष बदलकर वहां गये और उसके घर में झाड़ू-पोंछे की नौकरी कर ली। कुछ ही दिन में उस अधिकारी के व्यवहार और भ्रष्टाचार के विस्तृत समाचार देश और विदेश में छपने लगे। अतः उसका स्थानांतरण कर दिया गया।

बौखलाकर उसने घोषणा की कि जो भी इस समाचारों को छपवाने वाले का पता बताएगा, उसे वे पुरस्कार देंगे। यह सुनकर सूफी जी सूट-बूट पहनकर पुरस्कार के लिए उसके सामने जा खड़े हुए। उन्हें देखकर वह चौंक गया। सूफी जी ने अंग्रेजी में बोलते हुए उसे बताया कि वे समाचार मैंने ही छपवाये हैं। उसका चेहरा उतर गया, फिर भी उसने अपने हाथ की घड़ी उन्हें दे दी।

1897 में उन पर शासन के विरुद्ध विद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उन्होंने अपना मुकदमा स्वयं लड़ा, जिसमें उन्हें 11 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। वहां से छूटकर वे फिर स्वाधीनता की अलख जगाने लगे। इस पर उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया।

जेल से छूटकर वे लाहौर आ गये और वहां से ‘हिन्दुस्तान’ नामक समाचार पत्र निकाला। जब वहां भी धरपकड़ होने लगी, तो वे अपने मित्रों के साथ नेपाल चले गये; पर शासन नेपाल से ही उन्हें पकड़कर लाहौर ले आया और पत्र निकालने के लिए उन पर मुकदमा चलाया। उनकी सारी पुस्तकें व साहित्य जब्त कर लिया गया; पर सूफी जी शासन की आंखों में धूल झोंककर ईरान चले गये और वहां से ‘आबे हयात’ नामक पत्र निकालने लगे। ईरान के लोग आदरपूर्वक उन्हें ‘आका सूफी’ कहते थे।

1915 में अंग्रेजों ने ईरान पर कब्जा करना चाहा। जिस समय शीराज पर घेरा डाला गया, तो ईरान के स्वतंत्रता प्रिय लोगों के साथ ही सूफी जी भी बायें हाथ में ही पिस्तौल लेकर युद्ध करने लगे; पर अंग्रेज सेना संख्या में बहुत अधिक थी और उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी पर्याप्त थे। अतः वे पकड़े गये और उन्हें कारावास में डाल दिया गया। अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाकर मृत्युदंड देना चाहते थे; पर सूफी जी ने उससे पूर्व ही 30सितम्बर, 1915 को योग साधना द्वारा अपना शरीर छोड़ दिया।

थोड़े ही समय में यह समाचार सब ओर फैल गया। सूफी जी के प्रति लोगों में अत्यधिक श्रद्धा थी। अतः उनकी शवयात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। एक सुंदर स्थान पर उनको दफना कर समाधि बना दी गयी। उस स्थान पर आज भी ईरान के लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं।

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भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी कदम से कदम मिलाकर संघर्ष किया था। मातंगिनी हाजरा एक ऐसी ही बलिदानी माँ थीं, जिन्होंने अपनी अशिक्षा, वृद्धावस्था तथा निर्धनता को इस संघर्ष में आड़े नहीं आने दिया।

मातंगिनी का जन्म 1870 में ग्राम होगला, जिला मिदनापुर, पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया; पर दुर्भाग्य उनके पीछे पड़ा था। छह वर्ष बाद वह निःसन्तान विधवा हो गयीं। पति की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र उससे बहुत घृणा करता था। अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगी। गाँव वालों के दुःख-सुख में सदा सहभागी रहने के कारण वे पूरे गाँव में माँ के समान पूज्य हो गयीं।

1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में स्वाधीनता आन्दोलन चला। वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दी। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में पहुँचकर एक सभा हुई। वहाँ मातंगिनी ने सबके साथ स्वाधीनता संग्राम में तन, मन, धन पूर्वक संघर्ष करने की शपथ ली।

मातंगिनी को अफीम की लत थी; पर अब इसके बदले उनके सिर पर स्वाधीनता का नशा सवार हो गया। 17 जनवरी, 1933 को ‘कर बन्दी आन्दोलन’ को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ। वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाते हुई दरबार तक पहुँच गयीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया।

1935 में तामलुक क्षेत्र भीषण बाढ़ के कारण हैजा और चेचक की चपेट में आ गया। मातंगिनी अपनी जान की चिन्ता किये बिना राहत कार्य में जुट गयीं। 1942 में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ ने जोर पकड़ा, तो मातंगिनी उसमें कूद पड़ीं। आठ सितम्बर को तामलुक में हुए एक प्रदर्शन में पुलिस की गोली से तीन स्वाधीनता सेनानी मारे गये। लोगों ने इसके विरोध में 29 सितम्बर को और भी बड़ी रैली निकालने का निश्चय किया।

मातंगिनी ने गाँव-गाँव में घूमकर रैली के लिए 5,000 लोगों को तैयार किया। सब दोपहर में सरकारी डाक बंगले पर पहुँच गये। तभी पुलिस की बन्दूकें गरज उठीं। मातंगिनी एक चबूतरे पर खड़ी होकर नारे लगवा रही थीं। एक गोली उनके बायें हाथ में लगी। उन्होंने तिरंगे झण्डे को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया। तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में और तीसरी उनके माथे पर लगी। मातंगिनी की मृत देह वहीं लुढ़क गयी।

इस बलिदान से पूरे क्षेत्र में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन मंे ही लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़कर वहाँ स्वाधीन सरकार स्थापित कर दी, जिसने 21महीने तक काम किया। दिसम्बर, 1974 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने अपने प्रवास के समय तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये।

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अपने सुरीले स्वर में 20 से भी अधिक भाषाओं गीत गाकर ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड’ में नाम लिखा चुकीं स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर को कौन नहीं जानता ? लता मंगेशकर का जन्म 28 सितम्बर, 1929 को इन्दौर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर मराठी रंगमंच से जुडे़ हुए थे। पाँच वर्ष की छोटी अवस्था में ही लता ने अपने पिता के साथ नाटकों में अभिनय प्रारम्भ कर दिया और उनसे ही संगीत की शिक्षा भी लेने लगीं।

ब लता केवल 13 वर्ष की थीं, तब उनके सिर से पिता का वरदहस्त उठ गया। सबसे बड़ी होने के कारण पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेवारी उन पर आ गयी। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सपरिवार मुम्बई आ गयीं। पैसे के लिए उन्हें न चाहते हुए भी फिल्मों में अभिनय करना पड़ा; पर वे तो केवल गाना चाहती थीं।

काफी प्रयास के बाद उन्हें 1949 में गाने का अवसर मिला। फिल्म ‘महल’और ‘बरसात’ के गीतों से वे गायिका के रूप में फिल्म जगत में स्थापित हो गयीं। पैसा और प्रसिद्धि पाकर भी लता ने अपने परिवार से मुँह नहीं मोड़ा। उन्होंने अपने सब छोटे भाई बहिनों को फिल्मी दुनिया में काम दिलाया और उनके परिवार बसाये; पर स्वयं वे अविवाहित ही रहीं।

अब तक फिल्मी दुनिया के सभी बड़े निर्माता और संगीतकार उनके आसपास चक्कर लगाने लगे थे। गुलाम हैदर, शंकर जयकिशन,एस.डी.बर्मन, सी. रामचन्द्र, मदन मोहन, हेमन्त कुमार और सलिल चौधरी इनमें प्रमुख थे। फिल्म ‘हम दोनों’ में लता द्वारा गाया भजन ‘अल्लाह तेरो नाम’ तथा ‘आनन्द मठ’ में गाया ‘वन्दे मातरम्’ काफी लोकप्रिय हुआ। आगे चलकर लता मंगेशकर और संगीतकार हेमन्त कुमार की जोड़ी ने कई सफल फिल्में दीं।

1962 में चीन से पराजय के बाद पूरा देश दुखी था। ऐसे में लाल किले में आयोजित एक समारोह में सी. रामचन्द्र के निर्देशन में लता ने प्रदीप का लिखा गीत ‘ए मेरे वतन के लोगो’ गाया। इसे सुनकर नेहरू जी की आँखों में आँसू आ गये। आज भी जब यह गीत बजता है, तो हृदय भर आता है।

लता मंगेशकर ने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में गीतकार हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के लिखे गीत गाकर इन दोनों को भी अमर कर दिया। राजकपूर को सदा अपनी फिल्मों के लिए लता मंगेशकर के स्वर की आवश्यकता रहती थी। वे उन्हें ‘सरस्वती’ का अवतार मानते थे।

साठ के दशक में लता मंगेशकर फिल्मी दुनिया में पार्ष्व गायिकाओं की महारानी कही जाने लगीं। संगीतकार नौषाद भी अपनी हर फिल्म में लता को ही लिया करते थे। वे गीत की धुन बनाते समय लता जी के स्वर की गहराई और माधुर्य का विशेष ध्यान रखते थे। इसी कारण उनके अनेक गीत आज भी उतनी ही रुचि से सुने जाते हैं।

लता मंगेशकर को गायन के लिए देश और विदेश में हजारों पुरस्कार और सम्मान मिले हैं। कला के क्षेत्र में उनकी व्यापक सेवाओं को देखते हुए राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। उन्हें पद्मभूषण, पद्म विभूषण और सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ भी दिया गया है। अधिक अवस्था के कारण अब उन्होंने गाना कम कर दिया है। फिर भी आध्यात्मिक रुचि होने के कारण वे धार्मिक भजन आदि गा लेती हैं।

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नब्बे के दशक में श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन जब अपने यौवन पर था, उन दिनों जिनकी सिंह गर्जना से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, उन श्री अशोक सिंहल को संन्यासी योद्धा भी कह सकते हैं और सन्त सिपाही भी; पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते हैं।

अशोक जी का जन्म 27 सितम्बर, 1926 को आगरा में एक सम्पन्न उद्योगपति परिवार में हुआ। परिवार का वातावरण धार्मिक होने के कारण उनके मन में बालपन से ही हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। उनके घर संन्यासी तथा धार्मिक विद्वान आते रहते थे। कक्षा नौ में उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी पढ़ी। उससे भारत के हर क्षेत्र में सन्तों की समृद्ध परम्परा एवं आध्यात्मिक शक्ति से उनका परिचय हुआ।

1942 में प्रयाग में पढ़ते समय रज्जू भैया ने उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कराया। वे भी उन दिनों वहीं पढ़ते थे। उन्होंने अशोक जी की माता जी को संघ के बारे में बताया और संघ की प्रार्थना सुनाई। इससे माता जी प्रभावित हुईं और उन्होंने अशोक जी को शाखा जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार शाखा जाने का जो क्रम शुरू हुआ, तो फिर वह बढ़ता ही गया।

1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता सत्ता प्राप्ति की खुशी मना रहे थे; पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोक जी भी उन देशभक्त युवकों में थे। उन्होंने संकल्प लिया कि ऐसे धूर्तों से मातृभूमि को मुक्त कराना ही होगा। इसके लिए उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित करने का निश्चय कर लिया। बचपन से ही अशोक जी की रुचि शास्त्रीय गायन में रही, संघ के अनेक गीतों की लय उन्होंने ही बनाई है।

1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो अशोक जी सत्याग्रह कर जेल गये। वहाँ से आकर उन्होंने बी.ई अन्तिम वर्ष की परीक्षा दी और प्रचारक बन गये। अशोक जी की सरसंघचालक श्री गुरुजी से बहुत घनिष्ठता रही। प्रचारक जीवन में लम्बे समय तक वे कानपुर रहे। यहाँ उनका सम्पर्क श्री रामचन्द्र तिवारी नामक एक विद्वान से हुआ। वे गृहस्थ होते हुए भी सिद्ध सन्त थे। वेदों के प्रति उनका ज्ञान विलक्षण था। अशोक जी अपने जीवन में इन दोनों महापुरुषों का प्रभाव स्पष्टतः स्वीकार करते हैं।

1975 से 1977 तक देश में आपातकाल और संघ पर प्रतिबन्ध रहा। इस दौरान अशोक जी इन्दिरा गान्धी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे। आपातकाल के बाद वे दिल्ली के प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1981 में डा. कर्णसिंह के नेतृत्व में दिल्ली में एक विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोक जी और संघ की थी। उसके बाद अशोक जी को ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में लगा दिया गया।

इसके बाद परिषद के काम में धर्म जागरण, सेवा, संस्कृत, परावर्तन आदि अनेक नये आयाम जुड़े। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन, जिससे परिषद का काम गाँव-गाँव तक पहुँच गया। इसने देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा बदल दी। भारतीय इतिहास में यह आन्दोलन एक मील का पत्थर है। आज विहिप की जो अन्तरराष्ट्रीय ख्याति है, उसमें अशोक जी का योगदान सर्वाधिक है। ईश्वर से प्रार्थना है कि अशोक जी स्वस्थ रहते हुए इसी प्रकार देश और धर्म की सेवा करते रहें।

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