अपराजेय, अप्रतिम वीर छत्रपति संभाजी महाराज / जन्म दिवस -14 मई 1657

हिन्दुस्थान में हिंदवी स्वराज एवं हिन्दू पातशाही की गौरवपूर्ण स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज के जयेष्ठ पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज का जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर गढ पर हुआ. छत्रपति संभाजी के जीवन को यदि चार पंक्तियों में संजोया जाए तो यही कहा जाएगा कि:

‘देश धरम पर मिटने वाला, शेर शिवा का छावा था।
महा पराक्रमी परम प्रतापी, एक ही शंभू राजा था।।’

संभाजी महाराज का जीवन एवं उनकी वीरता ऐसी थी कि उनका नाम लेते ही औरंगजेब के साथ तमाम मुगल सेना थर्राने लगती थी। संभाजी के घोड़े की टाप सुनते ही मुगल सैनिकों के हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिरने लगते थे। यही कारण था कि छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद भी संभाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज को अक्षुण्ण रखा था। वैसे शूरता-वीरता के साथ निडरता का वरदान भी संभाजी को अपने पिता शिवाजी महाराज से मानों विरासत में प्राप्त हुआ था। राजपूत वीर राजा जयसिंह के कहने पर, उन पर भरोसा रखते हुए जब छत्रपति शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा पंहुचे तो दूरदृष्टि रखते हुए वे अपने पुत्र संभाजी को भी साथ लेकर पंहुचे थे। कपट के चलते औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और दोनों पिता-पुत्र को तहखाने में बंद कर दिया। फिर भी शिवाजी ने कूटनीति के चलते औरंगजेब से अपनी रिहाई करवा ली, उस समय संभाजी अपने पिता के साथ रिहाई के साक्षी बने थे।

छत्रपति शिवाजी की रक्षा नीति के अनुसार उनके राज्य का किला जीतने की लड़ाई लड़ने के लिए मुगलों को कम से कम एक वर्ष तक अवश्य जूझना पड़ता। औरंगजेब जानता था कि इस हिसाब से तो सभी किले जीतने में 360 वर्ष लग जाएंगे। उनका रामसेज का किला औरंगजेब को लगातार पांच वर्षों तक टक्कर देता रहा। इसके अलावा संभाजी महाराज ने औरंगजेब के कब्जे वाले औरंगाबाद से लेकर विदर्भ तक सभी सूबों से लगान वसूलने की शुरुआत कर दी जिससे औरंगजेब इस कदर बौखला गया कि संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिए वह स्वयं दक्खन पंहुच गया।

उसने संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिए अपने पुत्र शाहजादे आजम को तय किया। आजम ने कोल्हापुर संभाग में संभाजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उनकी तरफ से आजम का मुकाबला करने के लिए सेनापति हमीबीर राव मोहिते को भेजा गया। उन्होंने आजम की सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया. युद्ध में हार का मुंह देखने पर औरंगजेब इतना हताश हो गया कि बारह हजार घुड़सवारों से अपने साम्राज्य की रक्षा करने का दावा उसे खारिज करना पड़ा। संभाजी महाराज पर नियंत्रण के लिए उसने तीन लाख घुड़सवार और चार लाख पैदल सैनिकों की फौज लगा दी। लेकिन वीर मराठों और गुरिल्ला युद्ध के कारण मुगल सेना हर बार विफल होती गई।

औरंगजेब ने बार-बार पराजय के बाद भी संभाजी से महाराज से युद्ध जारी रखा। इसी दौरान कोंकण संभाग के संगमेश्वर के निकट संभाजी महाराज के 400 सैनिकों को मुकर्रबखान के 3000 सैनिकों ने घेर लिया और उनके बीच भीषण युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध के बाद राजधानी रायगढ़ में जाने के इरादे से संभाजी महाराज अपने जांबाज सैनिकों को लेकर बड़ी संख्या में मुगल सेना पर टूट पड़े। मुगल सेना द्वारा घेरे जाने पर भी संभाजी महाराज ने बड़ी वीरता के साथ उनका घेरा तोड़कर निकलने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने रायगढ़ जाने की बजाय निकट इलाके में ही ठहरने का निर्णय लिया। मुकर्रबखान इसी सोच और हताशा में था कि संभाजी इस बार भी उनकी पकड़ से निकलकर रायगढ़ पहुँचने में सफल हो गए, लेकिन इसी दौरान बड़ी गड़बड़ हो गई कि एक मुखबिर ने मुगलों को सूचित कर दिया कि संभाजी रायगढ़ की बजाय एक हवेली में ठहरे हुए हैं। यह बात आग की तरह औरंगजेब और उसके पुत्रों तक पहुँच गई कि संभाजी एक हवेली में ठहरे हुए हैं। जो कार्य औरंगजेब और उसकी शक्तिशाली सेना नहीं कर सकी, वह कार्य एक मुखबिर ने कर दिया।

इसके बाद भारी संख्या में सैनिकों के साथ मुगल सेना ने हवेली की ओर कूच कर उसे चारों तरफ से घेर लिया। संभाजी को हिरासत में ले लिया गया, 15 फरवरी, 1689 का यह काला दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज है। संभाजी की अचानक हुई गिरफ्तारी को लेकर औरंगजेब और पूरी मुगलिया सेना हैरान थी। संभाजी का भय इतना ज्यादा था कि पकड़े जाने के बाद भी उन्हें लोहे की जंजीरों से बांधा गया। बेडि़यों में जकड़ कर ही उन्हें औरंगजेब के पास ले जाया गया। इससे पूर्व उन्हें ऊंट की सवारी कराकर काफी प्रताडि़त किया गया।

संभाजी महाराज को जब ‘दिवान-ए-खास’ में औरंगजेब के सामने पेश किया गया तो उस समय भी वे अडि़ग थे और उनके चेहरे पर किसी प्रकार के भय का भाव तक नहीं था। उन्हें जब औरंगजेब को झुक कर सलाम करने के लिए कहा गया तो उन्होंने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया और उसे निडरता के साथ घूरते रहे। संभाजी के ऐसा करने पर औरंगजेब स्वयं सिंहासन से उतर कर उनके समक्ष पहुँच गया। इस पर संभाजी के साथ कैद कवि कलश ने कहा-‘हे राजन, तुव तप तेज निहार के तखत त्यजो अवरंग।’

यह सुनकर औरंगजेब ने तुरंत कवि की जिह्वा (जीभ) काटने का आदेश दे दिया। साथ ही उसने संभाजी को प्रलोभन दिया कि यदि वे इस्लाम कबूल कर लें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा और उनके सभी गुनाह माफ कर दिए जाएंगे। संभाजी महाराज द्वारा सभी प्रलोभन ठुकराने से क्रोधित होकर औरंगजेब ने उनकी आंखों में गरम सलाखें डाल कर उनकी आंखें निकलवा दीं। फिर भी संभाजी अपनी धर्मनिष्ठा पर अडि़ग रहे और उन्होंने किसी भी सूरत में हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम को कबूल करना स्वीकार नहीं किया।

इस घटना के बाद से ही संभाजी ने अन्न-जल का त्याग कर दिया। उसके बाद सतारा जिले के तुलापुर में भीमा-इन्द्रायनी नदी के किनारे संभाजी महाराज को लाकर उन्हें लगातार प्रताडि़त किया जाता रहा और बार-बार उन पर इस्लाम कबूल करने का दबाव डाला जाने लगा। आखिर में उनके नहीं मानने पर संभाजी का वध करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए 11 मार्च, 1689 का दिन तय किया गया क्योंकि उसके ठीक दूसरे दिन हिन्दू वर्ष प्रतिपदा थी। औरंगजेब चाहता था कि संभाजी महाराज की मृत्यु के कारण हिन्दू जनता वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर शोक मनाये।

उसी दिन सुबह दस बजे संभाजी महाराज और कवि को एक साथ गांव की चौपाल पर ले जाया गया। पहले कवि कलश की गर्दन काटी गई। उसके बाद संभाजी के हाथ-पांव तोड़े गए, उनकी गर्दन काट कर उसे पूरे बाजार में जुलूस की तरह निकाला गया। एक बात तो स्पष्ट है कि जो कार्य औरंगजेब और उसकी सेना आठ वर्षों में नहीं कर सके, वह कार्य एक भेदिये ने कर दिखाया। औरंगजेब ने छल से संभाजी महाराज का वध तो कर दिया, लेकिन वह चाहकर भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। संभाजी ने अपने प्राणों का बलिदान कर हिन्दू धर्म की रक्षा की और अपने साहस व धैर्य का परिचय दिया। उन्होंने औरंगजेब को सदा के लिए पराजित कर दिया।

तुलापुर स्थित संभाजी महाराज की समाधि आज भी उनकी जीत और अहंकारी व कपटी औरंगजेब की हार को बयान करती है।

#ChhatrapatiSambhajiMaharaj

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