भारत मे ब्रिटिश राज के समय , ब्रिटिश ईसाई हिन्दू धर्म की कटु निंदा करके हिन्दुओं को ईसाई मत में मतांतरित करने के अभियान में जुटे थे। हिन्दू संतों की निंदा के लिए उन्होंने तर्क दिया कि ये सिर्फ आत्ममोक्ष के लिए तपस्या करते हैं, समाज को इनसे क्या मिलता है। ईसाई मिशनरियों और संस्थानों की समाज सेवा का ढोल पीटने वाले ईसाइयों और हिन्दू संतों की भत्र्सना का जवाब देने का विचार स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद ने किया। और कहा, “जो गरीब, कमजोर और बीमार में शिव के दर्शन करता है, वही सही अर्थों में शिव की पूजा करता है’ “जीवे सेवा शिवेर सेवा’। स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन का ध्येय वाक्य बन गया, “आत्मनो मोक्षार्थम्-जगत् हिताय’ अर्थात् आत्ममोक्ष के प्रयास के साथ समाज सेवा। इसी ध्येय को लेकर 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना हुई।
जाति, पंथ, मत की दीवारों को तोड़कर रामकृष्ण मिशन ने सर्वप्रथम सामाजिक समरसता का उद्घोष किया। मुस्लिम हो, ईसाई हो या हिन्दू- रामकृष्ण मठ में सभी को दीक्षा दी। लेकिन सभी के लिए एक अनिवार्यता थी 9 साल तक हिन्दू धर्म के अनुसार यज्ञोपवीत धारण, चोटी-रखना और साथ ही समाज के हर वर्ग को देखना। रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों के लिए मंदिर में प्रार्थना और अस्पताल में रोगियों की सेवा में कोई अंतर नहीं। रामकृष्ण मिशन ने ज्ञान को कर्म के साथ जोड़ा।
सामाजिक समरसता का उद्घोष तो स्वयं स्वामी रामकृष्ण ने ही किया था। उन्होंने इस्लामी सिद्धांतों का अध्ययन किया, कुरान के अनुसार कई दिन तक नमाज भी पढ़ी, ईसा का विचार भी ग्रहण किया। और फिर निष्कर्ष रूप में सनातन धर्म के मूल “एकम्सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’ का साक्षात् लोगों को कराया। उनके अनुयायियों में ईसाई भी थे और मुसलमान भी। सभी ने सनातन हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों पर चलते हुए ज्ञान के साथ कर्म को भी अपनाया। समाज सेवा के विभिन्न क्षेत्रों में रामकृष्ण मिशन ने हाथ बढ़ाया।
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