हिन्दू धर्म एक खुला धर्म है। इसमें हजारों मत, पंथ और सम्प्रदाय हैं। इस कारण समय-समय पर अनेक नये पंथ और सम्प्रदायों का उदय हुआ है। ये सब मिलकर हिन्दू धर्म की बहुआयामी धारा को सबल बनाते हैं। उदासीन सम्प्रदाय भी ऐसा ही एक मत है। इसके प्रवर्तक बाबा श्रीचंद सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानकदेव के बड़े पुत्र थे। उनका जन्म आठ सितम्बर, 1494 को सुल्तानपुर (पंजाब) में हुआ था। जन्म के समय उनके शरीर पर विभूति की एक पतली परत तथा कानों में मांस के कुंडल बने थे। अतः लोग उन्हें भगवान शिव का अवतार मानने लगे।
जिस अवस्था में अन्य बालक खेलकूद में व्यस्त रहते हैं, उस समय बाबा श्रीचंद गहन वन के एकांत में समाधि लगाकर बैठ जाते थे। कुछ बड़े होने पर वे देश भ्रमण को निकल पड़े।
उन्होंने तिब्बत, कश्मीर, सिन्ध, काबुल,कंधार, बलूचिस्थान, अफगानिस्तान, गुजरात, पुरी, कटक, गया आदि स्थानों पर जाकर साधु-संतों के दर्शन किये। वे जहां जाते, वहां अपनी वाणी एवं चमत्कारों से दीन-दुखियों के कष्टों का निवारण करते थे।
धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गयी। बाबा के दर्शन करने के लिए हिन्दू राजाओं के साथ ही मुगल बादशाह हुमायूं, जहांगीर तथा अनेक नवाब व पीर भी प्रायः आते रहते थे। एक बार जहांगीर ने अपने राज्य के प्रसिद्ध पीर सैयद मियां मीर से पूछा कि इस समय दुनिया में सबसे बड़ा आध्यात्मिक बादशाह कौन है ? इस पर मियां मीर ने कहा कि पंजाब की धरती पर निवास कर रहे बाबा श्रीचंद पीरों के पीर और फकीरों के शाह हैं।
एक बार कश्मीर भ्रमण के समय बाबा अपनी मस्ती में धूप में बैठे थे। एक अहंकारी जमींदार ने यह देखकर कहा कि यह बाबा तो खुद धूप में बैठा है, यह दूसरों को भला क्या छाया देगा ? इस पर बाबा श्रीचंद ने यज्ञकुंड से जलती हुई चिनार की लकड़ी निकालकर धरती में गाड़ दी। कुछ ही देर में वह एक विशाल वृक्ष में बदल गयी। यह देखकर जमींदार ने बाबा के पैर पकड़ लिये। वह वृक्ष ‘श्रीचंद चिनार’ के नाम से आज भी वहां विद्यमान है।
रावी नदी के किनारे चम्बा शहर के राजा के आदेश से कोई नाविक किसी संत-महात्मा को नदी पार नहीं करा सकता था। एक बार बाबा नदी पार जाना चाहते थे। जब कोई नाविक राजा के भयवश तैयार नहीं हुआ, तो उन्होंने एक बड़ी शिला को नदी में ढकेल कर उस पर बैठकर नदी पार कर ली। जब राजा को यह पता लगा तो वह दौड़ा आया और बाबा के पैरों में पड़ गया।
अब बाबा श्रीचंद ने उसे सत्य और धर्म का उपदेश दिया, जिससे उसका अहंकार नष्ट हुआ। उसने भविष्य में सभी साधु-संतों का आदर करने का वचन दिया। इस पर बाबा ने उसे आशीर्वाद दिया। इससे उस राजा के घर में पुत्र का जन्म भी हुआ। यह शिला रावी के तट पर आज भी चम्बा में विद्यमान है। इसकी प्रतिदिन विधि-विधान से पूजा अर्चना की जाती है।
बाबा का विचार था कि हमें हर सुख-दुख को साक्षी भाव से देखना चाहिए। उसमें लिप्त न होकर उसके प्रति उदासीन भाव रखने से मन को कष्ट नहीं होता। सिखों के छठे गुरु श्री हरगोविंद जी के बड़े पुत्र बाबा गुरदित्ता जी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर बाबा ने अपनी देहलीला समेट ली।
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