‘घर वापसी’ से क्यों घबराए सेकुलर दल ?

जो मतांतरित हिन्दू अपने पुरखों के धर्म में वापिस आने चाहते हैं, उनका यह पूर्ण अधिकार है। आगरा में इसी अधिकार के तहत इनका परावर्तन, जिसे सबके समझने वाली भाषा में ‘घर वापसी’ कहा जाता है, हुआ है। इस घटना को लेकर जो कांग्रेसी, समाजवादी और अन्य तथाकथित सेकुलर नेता और पत्रकार शोर मचा रहे हैं, वे जरा इतिहास के पन्नों के अन्दर झांके।

                                                                                                – विराग पाचपोर

आगरा में आठ दिसंबर को हुए ‘घर वापसी’ की घटना से समूचे राजनीतिक दल में खलबली मच गई। सड़क से संसद तक इस घटना की गूंज उठी और चर्चाएं चली। मीडिया चैनल के लिए तो मानों यह एक अच्छा मौका था, सो उन्होंने भी घंटे-दो घंटे तक के ‘धर्म संसद’ आयोजित कर इस विषय को जनता के बीच पहुंचाने का प्रयास किया। संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के उत्तेजित सदस्यों ने इस विषय पर सरकार के समक्ष सवाल उठाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल, धर्मं जागरण समिति और विश्व हिन्दू परिषद को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए सामाजिक सदभाव बिगाड़ने के लिए इन संगठनों को जिम्मेदार बताया।

धर्म परिवर्तन और घर वापसी के इस विषय को समझाने के लिए इसके मूल में जाना जरुरी है। केवल दोषारोपण करने अथवा गाली-गलौच करने से इस समस्या का हल नहीं निकलेगा। इसलिए सत्य को सही परिप्रेक्ष्य में समझाने से समस्या का समाधान खोजा जा सकता हैं। पहला मुद्दा तो धर्म तथा संप्रदाय के बीच क्या फर्क हैं और क्या सम्बन्ध हैं, यह समझाना जरुरी है। धर्म एक ही है, अलग-अलग नहीं। धर्म के मूल्य शाश्वत हैं, वे बदलते नहीं है। उदाहरण के लिए ‘सच बोलो, चोरी मत करो’ यह धर्म के शाश्वत मूल्य हैं। धर्म की गति बहुत गहन है, ऐसा भारत के अनेकानेक ऋषि-मुनियों और मनीषियों ने बताया है।

पंथ जो हैं, जिसको अंग्रेजी में रिलिजन कहते हैं, यह मनुष्य को उसके निर्माता तक पहुंचाने का अध्यात्मिक रास्ता है। भारत में बौद्ध, जैन, शाक्त, वैष्णव, शैव, लिंगायत, वारकरी, राधास्वामी, आर्यसमाजी, सिख, रामानंदी, कबीरपंथी और अनेक ऐसे पंथ निर्माण हुए और आगे भी होंगे जो मनुष्य को अपने जीवन का अध्यात्मिक लक्ष्य पाने में सहायता करेंगे। भारत के इस पंथों में आपसी कट्टरता नहीं दिखाई देती हैं क्योंकि यह सभी पंथ भारत की आध्यात्मिक विरासत ‘“एकं सत विप्रा: बहुधा वदन्ति’ पर गर्व करते है। परम सत्य एक ही हैं, उसको पाने के रास्ते भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, और सभी एक-दूसरे के पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं।

परन्तु, इस्लाम और ईसाइयत ये दो पंथ ऐसे हैं जिनका जन्म भारत के बाहर हुआ है। ईसाई लोग भारत में आए लगभग दूसरी शताब्दी में। तब यहां का राजा हिन्दू था, प्रजा हिन्दू थी और व्यवस्था भी हिन्दू थी। फिर भी इन ईसाईयों को केरल के राजा ने, प्रजा ने आश्रय दिया, चर्च बनाने के लिए जमीन उपलब्ध कराई, धर्म पालन और धर्म प्रचार की अनुमति प्रदान की। इस कारण आज केरल में ईसाईयों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है। उसी प्रकार जब भारत में अंग्रेजी राज कायम हुआ, तब से यहां के हिन्दुओं को ईसाई बनाने का काम चल रहा है। हिन्दू समाज के इस मतान्तरण के खिलाफ राजा राममोहन रॉय, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद, स्वामी श्रद्धानंद से लेकर महात्मा गांधी, डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, पूजनीय श्री गोलवलकर गुरूजी आदि महानुभावों ने चिंता जताई है। कांग्रेस के शासन काल में मध्य प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों ने धर्मान्तरण विरोधी कानून बनाए हैं। फिर भी नए-नए तरीके खोज कर गरीब, पिछड़े, झुग्गियों में रहनेवाले हिन्दू लोगों के धर्म परिवर्तन का काम धड़ल्ले से चलता है।

ईसाइयत का यह इतिहास क्रूरता, हिंसा, धर्मविरोधी आचरण एवं असहिष्णुता से भरा पड़ा है। गोवा के अन्दर ईसाई मिशनरी फ्रांसिस जेवियर जिसके शव का निर्लज्ज प्रदर्शन अभी भी गोवा के चर्च के भीतर हो रहा है, ने गोवा के हिन्दू लोगों पर क्रूरतापूर्ण तरीके अपनाकर अत्याचार किए और उनको ईसाई बनाया। ए.के. प्रियोलकर द्वारा लिखित ‘दी गोवा इन्क्विझिशन’ नामक पुस्तक में इसका विस्तार से वर्णन किया है। भोले-भाले वनवासी, गिरिवासी और गरीब लोगों को झांसे देकर ईसाई बनाना, इनका धंदा है। पोप जॉन पोल जब 1999 में भारत आए थे, तब उन्होंने भारत के ईसाइयों को आवाहन किया कि जिस प्रकार उनके पूर्वजों ने प्रथम सहस्राब्दी में समूचा यूरोप, दूसरे में अफ्रीका और अमेरिका को ईसाई बनाया, उसी प्रकार तीसरी सहस्राब्दी में एशिया में ईसा मसीह के क्रॉस को मजबूत करना है। ताकि दुनिया में ईसाइयत का साम्राज्य कायम हो सके। पोप के आदेश का पालन करने के लिए तत्पर ईसाई मिशनरी तुरंत इस काम को अंजाम देने में लगे हैं, और भले-बुरे सभी उपायों का अवलम्बन कर हिन्दू समाज को तोड़ने के षड्यंत्र में लगे हैं।

यही कहानी इस्लाम की है। इस्लाम भारत आया,- आक्रान्ताओं के पंथ के रूप में या फिर सूफियों के माध्यम से। गजनी, गोरी, लोदी, बाबर, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब तक सभी मुग़ल राजाओं ने यहां के हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया। जो नहीं बनें उनको पददलित किया और उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दीं। तलवार की नोक पर इस्लाम और ईसाइयत दोनों पंथों ने हिन्दुओं को मतांतरित किया, यह इनका इतिहास है। इसलिए भारत के मतांतरित हिन्दुओं के पुरखे, तहजीब और वतन हिन्दुओं के साथ एक समान है।

आगरा के घटना को लेकर जो कांग्रेसी, समाजवादी और अन्य तथाकथित सेकुलर नेता और पत्रकार शोर मचा रहे हैं, वे जरा इतिहास के पन्नों के अन्दर झांके और जबाब दें कि उस समय जो हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन हुआ या किया गया, क्या वो सही था? अगर नहीं था तो उस गलती को पहले ठीक करने की आवश्यकता हैं कि नहीं? इतिहास के कुछ उदाहारण इसके लिए देना उचित होगा।

छत्रपति शिवाजी महाराज के निकट साथी, सेनापति नेताजी पालकर जब औरंगजेब के हाथ लगे और उसने उनका जबरन धर्म परिवर्तन कर उसका नाम मोहम्मद कुलि खान रख दिया और उनको काबुल में लड़ने के लिए भेज दिया। कुछ समय बाद जब उसे लगा कि अब यह भागकर शिवाजी के पास नहीं जाएगा तो उसने नेताजी पालकर को महाराष्ट्र के सैनिक व्यवस्था में शामिल कर वहां भेज दिया। नेताजी के मन में पुनः हिन्दू धर्म में वापस आने की इच्छा जगी तो वे तुरन्त शिवाजी के पास पहुंच गए। शिवाजी महाराज ने मुसलमान बने मोहम्मद कुली खान (नेताजी पालकर) को ब्राम्हणों की सहायता से पुनः हिन्दू बनाया और उनको अपने परिवार में शामिल कर उनको प्रतिष्ठित किया।

स्वातंत्र्य पूर्व काल में स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आन्दोलन चलाकर हजारों हिन्दुओं को पुरखों के धर्म में वापिस लाया था। सेकुलरिज्म की झूठी संकल्पना को लेकर हमने अपने ही देश में हिन्दुओं को बेगाना बना दिया है। स्वतंत्र भारत में खासकर, जब से संविधान में सेकुलर शब्द जबरदस्ती घुसेड़ा गया तब से इसके मायने हिन्दुओं का विरोध ही रहा है। इसलिए गीता का विरोध, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का विरोध, कुम्भ का विरोध यानी जो-जो हिन्दू हैं, उन सबका विरोध यानी सेकुलरिज्म ऐसा षड़यंत्र चला।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह मानता है कि भारत में रहनेवाले लोगों की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पहचान हिन्दू है। संविधान ने सभी को अपने-अपने पंथ के अनुसार आचरण का स्वातंत्र्य दिया है। पर इसका मतलब यह नहीं कि लोगों का धर्म परिवर्तन किया जाए और वह भी अन्यायपूर्ण तरीके से। पर ईसाई मिशनरी और इस्लामिक संगठन इसमें आज भी लगे हुए हैं क्योंकि यह दोनों पंथ मूलतः असहिष्णु और विविधता को न माननेवाले हैं। जो मतांतरित हिन्दू अपने पुरखों के धर्म में वापिस आने चाहते हैं, उनका यह पूर्ण अधिकार है। आगरा में इसी अधिकार के तहत इनका परावर्तन, जिसे सबके समझने वाली भाषा में ‘घर वापसी’ कहा जाता है, हुआ है। हिन्दू समाज को इन सभी का स्वागत करना चाहिए और उनको सम्मानपूर्वक बसाना चाहिए ताकि वे सभी अत्यंत प्रतिष्ठा से अपने पुरखों के धर्म में जीवनयापन कर सकें।

– लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।

साभार – न्यूज़ भारती

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