नई दिल्ली. भारतीय सविंधान में राष्ट्रपति के आदेश से जोड़े गए अनुच्छेद 35A सविंधान के मूल ढांचे और उसकी आत्मा के विरुद्ध है. सर्वोच्च न्यायालय को इसके लिए स्वत: संज्ञान लेना चाहिए. जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र अनुच्छेद 35A को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी कर रहा है. यह जम्मू कश्मीर की महिलाओं पश्चिमी पाक शरणार्थियों वहां के वाल्मीकि और गोरखा समाज के मानवाधिकारों का हनन करता है यह बात जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष भटनागर ने कही. वे जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र द्वारा शनिवार को कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में आयोजित संवाद कार्यक्रम में मीडिया के समक्ष जम्मू-कश्मीर से आए पीड़ितों की व्यथा जाहिर कर रहे थे. इस कार्यक्रम में अनुच्छेद 35A के कारण अपने अधिकारों से वंचित लोगों को अपनी बात रखने का अवसर मिला जहाँ उन्होंने अपनी व्यथा और यथास्थिति को भी सांझा किया. इस कार्यक्रम में जम्मू-कश्मीर के दलित , वाल्मीकि समाज , पश्चिमी पाक के शरणार्थियों और गोरखा समाज के लोगों ने अपना दर्द बयां किया. उन्होंने बताया कि किस प्रकार परमानेंट रेजिडेंट सर्टिफिकेट (पीआरसी) न होने की वजह से उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है.
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट जगदीप घनखड़ ने बताया कि भारत में यदि किसी के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो वह सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. किन्तु धारा 35A जम्मू कश्मीर के नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन के लिए है. इस धारा के अंतर्गत जम्मू कश्मीर के किसी भी क़ानून को इस आधार पर गलत साबित नहीं किया जा सकता कि वो मौलिक अधिकारों का हनन कर रहा है. उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में दो तरह के लोग रहते हैं एक तो वो जो उस राज्य के नागरिक हैं और दूसरे वो जो इस राज्य के नागरिक नहीं है. एक जो राज्य के चुनाव में वोट डाल सकते हैं और दूसरे जो वोट नहीं डाल सकते. एक जिन्हें पीआरसी मिला है और दूसरे जिन्हें पीआरसी नहीं मिला. यह सब केवल धारा 35A के कारण है. वहीँ धारा 370 के बारे में उन्होंने कहा कि यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है कि यह धारा जम्मू कश्मीर राज्य को विशेष दर्ज देती है. यह धारा केवल वहां के शोषण के लिए है. भारत जैसे लोकतांत्रिक गणराज्य में इस तरह के भेदभाव को खत्म करने के लिए वैधानिक स्तर , सामाजिक स्तर और सवैंधानिक स्तर पर काम करना जरुरी है.
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष भटनागर ने कार्यक्रम का आरंभ करते हुए बताया कि जम्मू-कश्मीर के ये लोग वहां रहते तो हैं परंतु उन्हे वहां कोई अधिकार नहीं मिला. वहां के दलित , पश्चिमी पाक शरणार्थी और दूसरे समुदाय के लोग जो पीआरसी न होने की वजह से मजबूरी भरा जीवन जी रहे हैं , उन्हें किसी भी परिस्थिति में अपने अधिकार अवश्य मिलने चाहिए. धारा 35A की आड़ में उनके साथ जो खिलवाड़ हुआ है और पिछले कई दशकों से हो रहा है उसके लिए आज हम सबको सोचना पड़ेगा. हम उन लोगों से तो बात कर लेते हैं जो गोलियां चलाते हैं पर हम उन लोगों के साथ क्यों नहीं खड़े होते जो शांति से हमारे साथ हमारे देश में रह रहे हैं. वास्तविकता तो यही है कि ये लोग जम्मू-कश्मीर के संविधान के पीड़ित तो हैं ही , साथ ही भारतीय सविंधान की धारा 35A के भी पीड़ित हैं. हमें इनकी भी बात सुननी चाहिए.
इस अवसर पर अपना दर्द बयां करते हुए पश्चिमी पाकिस्तान शरणार्थी यशपाल ने कहा कि 1947 का बंटवारा साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ था और उसी समय से पाक के हिन्दू जो कश्मीर आये उनको आज तक वो अधिकार नहीं मिले , जिसके वो हकदार थे. उन्होंने कहा कि भारत का नेतृत्व शुरु से ही हमें गुमराह करता रहा और संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया गया जिनकी वजह से जम्मू कश्मीर के शरणार्थी गुलामी की जिन्दगी जी रहे हैं. उन्होंने बताया कि स्थिति ये है कि वे देश के प्रधानमंत्री को चुन सकते हैं और यहाँ तक कि देश की राजनीति का हिस्सा भी बन सकते हैं , परंतु राज्य के किसी भी चुनाव में वोट नहीं दे सकते और न ही किसी चुनाव में भाग ले सकते हैं. मतलब कि वे देश के नागरिक तो हैं पर जम्मू-कश्मीर राज्य के नागरिक नहीं हैं.
वाल्मिकी समाज की ओर से अपनी बात रखते हुए मंगत राम ने कहा कि आज देश कहां से कहां पहुंच गया और हम वहीं के वहीं पड़े हैं. 35A ने हमें बंधुआ मजदूर बनाकर रख दिया है. आज हमारा भविष्य सिर्फ और सिर्फ सफाई कर्मचारी बनने तक सीमित हो गया है. उन्होंने कहा कि हम जम्मू-कश्मीर के ऐसे वंचित हैं , जिन्हें दलित का प्रमाण-पत्र तक नहीं मिला. इससे ज्यादा शर्मिंदगी की बात और क्या होगी कि आजाद देश में रहकर हम आज भी आजाद नहीं हैं. जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक विसंगतियों ने हमारे साथ भद्दा मजाक किया है. हमारे बच्चे चाहे कितना भी पढ़ लें वो कोई भी सरकारी नौकरी नहीं कर सकते , न ही वो किसी व्यावसायिक कोर्स में दाखिला ले सकते हैं.
वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर से आई रश्मी ने बताया कि उनकी स्थिति इस तरह है कि उनके पति के पास राज्य का पीआरसी नहीं है तो शादी के बाद उनका भी स्थायी निवासी प्रमाण पत्र रद्द कर दिया गया . इस धारा 35A के अनुसार अगर जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर लेती है तो उसकी स्थायी निवासी प्रमाण भी रद्द हो जाता है. साथ ही उसके बच्चों के भी अधिकार समाप्त हो जाते हैं और उन्हें जम्मू-कश्मीर के सविंधान में दिया कोई भी अधिकार नहीं मिलता. रश्मी और उनके पति संजीव भी इसी स्थिति के पीड़ित हैं. उनके बच्चों को पीआरसी नहीं मिला जिसके कारण उन्हें न तो शिक्षा और न ही रोजगार मिल पा रहा है.
गोरखा समाज की ओर से अपनी व्यथा प्रकट करते हुए रघुनंदन ने बताया कि इस धारा 35A के कारण उनके अधिकारों का भी हनन हो रहा है. पीआरसी न होने की वजह से उनके बच्चों को चौकीदारी के अलावा कोई नौकरी नहीं मिल सकती. वे इस राज्य में कोई जमीन नहीं खरीद सकते.
कार्यक्रम में अनुच्छेद 35A के वैधानिक पक्ष को रखते हुए जम्मू विश्वविद्यालय के विधि विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर सीमा निगरोत्रा ने बताया कि यह भारतीय सविंधान के साथ एक धोखा है. बिना संसद में लाए कोई अनुच्छेद कैसे पास हो सकता है , ऐसा धोखा 1954 में हुआ जिसका भुगतान जम्मू-कश्मीर के पीड़ित आज तक कर रहे हैं.