जम्मू कश्मीर के इतिहास का एक भूला हुआ अध्याय – डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पंडित जवाहर लाल नेहरु 1949 में लद्दाख आए थे । लद्दाख में उनकी मुलाक़ात उन्नीसवें कुशोग बकुला से मुलाक़ात हुई । नेहरु ने बकुला को प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के लिए कहा । बकुला अवतारी पुरुष अर्थात टुलकु थे । वे राजनीति में आना नहीं चाहते थे लेकिन वे लद्दाख क्षेत्र के पिछड़ेपन को लेकर बहुत दुखी भी रहते थे । लद्दाख के लोग व्यापक अर्थों में उनके परिवार के ही लोग थे । इनके दुख दर्द को दूर करना भी उनका धर्म था । इसलिए वे नेहरु के प्रस्ताव को ठुकरा नहीं सकते थे । नेहरु के कहने पर ही बकुला ने शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की नैशनल कान्फ्रेंस की लद्दाख शाखा का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया । जम्मू कश्मीर संविधान सभा के लिए 1951 के अन्त तक चुनाव सम्पन्न हो चुके थे । इस संविधान सभा की सौ सीटें थीं लेकिन चुनाव केवल पचहत्तर में ही करवाए जा सके क्योंकि 25 सीटें उन इलाक़ों में पड़तीं थीं जिन पर पाकिस्तान ने अधिकार कर लिया था । इन सभी सीटों पर मोटे तौर पर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला कि नैशनल कान्फ्रेंस ने बिना चुनाव लड़े ही अधिकार जमा लिया था क्योंकि रियासत के चुनाव आयोग ने बाक़ी सभी प्रत्याशियों के नामांकन पत्र ही रद्द कर दिए थे । नामांकन पत्रों को इस प्रकार थोक के भाव रद्द होते देख कर बहुत से स्थानों पर किसी ने नामांकन पत्र भरना ही उचित नहीं समझा । जम्मू संभाग की प्रजा परिषद ने तो यह हालत देख कर चुनाव का बहिष्कार ही कर दिया । लेकिन पूरे जम्मू कश्मीर में एक सीट ऐसी भी थी जिस पर चुनाव को लेकर कोई विवाद सोचा भी नहीं जा सकता था । वह थी लद्दाख संभाग की लेह सीट । जैसे ही चुनावों की घोषणा हुई , सभी ने एक स्वर से कहा कि कशुक बकुला ही हमारे प्रतिनिधि हो सकते हैं । वे संविधान सभा के सदस्य बन गए ।

लेकिन सदस्य बनने से क्या होता है । लद्दाख की ओर शेख़ अब्दुल्ला सरकार का कोई ध्यान नहीं था ।उसका भी विकास होना चाहिए , ऐसा उस समय की सरकार मानने को तैयार ही नहीं थे । शेख़ अब्दुल्ला ने नेहरु की सहायता से महाराजा हरि सिंह से सरकार एक प्रकार से छीनी ही थी । इसलिए उन दिनों शेख़ अब्दुल्ला को आईना दिखाने की स्थिति में कोई नहीं था । वह एक निरंकुश शासक की तरह व्यवहार कर रहा था । नेहरु भी उसके आगे कहीं न कहीं अपने आप को विवश समझने लगे थे । उसका कारण साफ़ था । राज्य की संविधान सभा में शेख़ का पूरा अधिकार था । नेहरु भी अपनी विवशता छिपाने के लिए शेख़ की माँगों को औचित्य के आधार पर सही सिद्ध करने का प्रयास करते नज़र आते थे । ऐसे समय ने किशोर बकुला ने शेख़ अब्दुल्ला से पंजा लड़ाने का निर्णय किया । वे शेख़ के अहंकार , लद्दाख को लेकर सरकार की उपेक्षा  को चुनौती देने का निर्णय कर बैठे थे ।

12 अप्रेल1952 को वे संविधान सभा में बजट प्रस्तुत किया गया । पूरे बजट में कहीं एक बार भी लद्दाख का नाम नहीं था । बकुला , सरकार द्वारा लद्दाख की अवहेलना किए जाने से बहुत व्यथित थे । शेख़ अब्दुल्ला द्वारा सत्ता संभाल लेने के बाद तो मानों कश्मीर वालों के लिए लद्दाख का अस्तित्व ही न रहा हो । इसलिए बकुला ने विधान सभा में इस विषय को ज़ोरदार तरीक़े से उठाने का निर्णय किया । लेकिन वे यह भी जानते थे कि शेख़ अब्दुल्ला को चुनौती देने का क्या अर्थ है । उन दिनों शेख़ अब्दुल्ला अपनी ताक़त की चरम सीमा पर थे । वे चारों ओर से नेहरु द्वारा संरक्षित प्राणी की श्रेणी के जीव थे । नेहरु लोकसभा में उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं होते थे । ऐसे वातावरण में शेख़ अब्दुल्ला को चुनौती देना सत्ता के दो दो केन्द्रों से भिड़ना था । लेकिन बकुला भी तो उस महात्मा बुद्ध के उपासक थे जिन्होंने जन जन के दुख दर्द को दूर करने के लिए अपने राजपाट को भी लात मार दी थी । अब जब लद्दाख के जन जन ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है , उन पर अपना अबाध विश्वास जताया है तो उनको भी विकास का सुफल मिले यह देखना बकुला का ही तो धर्म है । शेख़ अब्दुल्ला ने तो लद्दाख के लोगों को गूँगे बहुरे निरीह प्राणी मान लिया था , जो किसी प्रकार भी अन्याय होने पर भी चुप बैठे रहेंगे । शेख़ का बजट इसका पुख़्ता सबूत था ।

कुशोक बकुला ने लेह में कार्य कर रहे अपने एक मित्र श्रीधर क़ौल से सलाह की । विधान सभा में बोलने के लिए भाषण तैयार किया गया । लद्दाख को लेकर सरकार के सौतेले व्यवहार को परत दर परत उघाड़ा गया । बकुला जब किसी काम को हाथ में लेते थे तो पूरे मनोयोग से करते थे । उन्होंने तिब्बत के गांदेन विश्वविद्यालय से गेशे की उपाधि प्राप्त की थी । गेशे के लिए सर्वाधिक अभ्यास तत्व मीमांसा के लिए तर्क पर ही होता है । इसलिए बकुला ने अपना भाषण केवल भावनाओं पर केन्द्रित नहीं किया बल्कि तर्क सम्मत विवेचना पर आधारित किया । बकुला लद्दाखियों की मातृभाषा भोटी में बोलने वाले थे । वर्तमान रियासत का दो तिहाई क्षेत्रफल लद्दाख का ही है ।  क्षेत्रफल के हिसाब से तो लद्दाख रियासत के पाँचों संभागों में से सबसे बड़ा संभाग है । इस संभाग में दो भाषाएँ बोली जाती हैं । लेह के इलाक़े में भोटी और कारगिल के इलाक़े में बल्ती ।  लेकिन उनको आशंका थी कि शायद राज्य की संविधान सभा में उन्हें भोटी में बोलने की अनुमति न दी जाए । क्योंकि सभा में तो शेष सभी सदस्य कश्मीर घाटी और जम्मू संभाग के रहने वाले थे । वे भोटी का एक शब्द तक नहीं जानते थे ।  गिलगित और बल्तीस्तान के लोग कुछ सीमा तक भोटी समझ लेते थे लेकिन उन क्षेत्रों में चुनाव न हो पाने की बजह से वहाँ का कोई प्रतिनिधि सभा में नहीं था । इसलिए कुशोक बकुला ने अपने भाषण का अंग्रेज़ी अनुवाद भी तैयार करवाया ।  अन्ततः 12 मई को वह क्षण आ गया । बकुला बजट भाषण पर बोलने के लिए खड़े हुए । अधिकांश सदस्य उर्दू या  अंग्रेज़ी में भाषण कर चुके थे । कशुक बकुला ने सभा के अध्यक्ष  से कहा कि वे अपनी मातृभाषा भोटी में बोलेंगे । ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ , जो बाद में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री भी बने , उस समय संविधान सभा के अध्यक्ष थे । उन्होंने अनुमति तो दे दी लेकिन पूरी सभा में भोटी समझने वाला कोई नहीं था । इसलिए यह निर्णय हुआ कि कशुक बकुला अपने भाषण की अंग्रेज़ी प्रति सभा के पास जमा करवा दें । बकुला तो पहले ही अपने भाषण के अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रति लेकर आए थे । जैसे ही बकुला ला का भाषण समाप्त हो , संविधान सभा के सचिव उसका अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ कर सुनाएंगे ताकि सभी को पता चल जाए कि उन्होंने क्या कहा है । फिर इस अंग्रेज़ी भाषण को ही संविधान सभा की कार्यवाही में रिकार्ड किया जाए ।

इस व्यवस्था पर सहमति बन जाने के बाद कशुक बकुला ने बोलना शुरु किया । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला भी उस समय सदन में बैठे थे । वे सरकार चला रही नैशनल कान्फ्रेंस के मुखिया भी थे । अब्दुल्ला की पार्टी के लोग उन्हें अपने सम्बोधन में प्राय क़ायदे आज़म कहा करते थे । उस समय मुसलमानों में जिन्ना को क़ायदे आज़म कहने का प्रचलन था । शेख़ अब्दुल्ला भी अपने आप को क़ायदे आज़म से कम नहीं समझते थे । दरअसल दोनों में भारत के मुसलमानों का नेतृत्व हथियाने का विवाद चलता रहता था । जिन्ना इसमें बाज़ी मार ले गए थे और शेख़ अब्दुल्ला केवल कश्मीर घाटी तक महदूद होकर रह गए थे । इसकी कमी वे अपनी पार्टी के लोगों से स्वयं को क़ायदे आज़म कहलवा कर पूरा करते थे ।

अब संविधान सभा के सरकारी रिकार्ड में तो कशुक बकुला भी नैशनल कान्फ्रेंस के सदस्य के तौर पर ही दर्ज थे । सभी सदस्य आम तौर पर विरुदावली ही गाते थे । जम्मू संभाग के कुछ सदस्य बीच बीच में कुछ लीक से हट कर बोलते थे लेकिन बोलने की शैली इस प्रकार की होती थी के वे लीक से हटे हुए भी लीक पर चलते ही दिखाई दें । वैसे भी नेहरु जी के कारण शेख़ अब्दुल्ला की तूती बोलती थी । आम कश्मीरी समझ गया था कि भारत सरकार कश्मीरियों के साथ है या नहीं , इस पर कुछ कहना तो मुश्किल था लेकिन वह शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ थी, इसे सभी जान गए थे । इसलिए वे देखते देखते शेर-ए-कश्मीर से क़ायदे आज़म बन गए थे । इस प्रकार के वातावरण में उस लद्दाख का प्रतिनिधि , जिसके कुल सदस्यों की संख्या ही सभा में दो थी , भला प्रशंसा और समर्थन के सिवा क्या बोलेगा , नैशनल कान्फ्रेंस के सभी सदस्य यही सोच रहे थे । उधर जम्मू में वहाँ के प्रमुख राजनैतिक दल प्रजा परिषद ने जम्मू संभाग से हो रहे भेदभाव को लेकर नैशनल कान्फ्रेंस की सरकार के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त जन आन्दोलन छेड़ा हुआ था । इसलिए ऐसे कठिन समय में शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को लद्दाख संभाग के समर्थन की बहुत सख़्त जरुरत भी थी ।

कशुक बकुला अपने स्थान से खड़े हुए । उन्होंने उड़ती नज़र से वहाँ बैठे सभी सदस्यों की ओर देखा । अन्त में उनकी नज़र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला पर जाकर ठहर गई । दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और बकुला ला ने बोलना शुरु किया । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला मुस्कुराने लगे । बकुला ने बीच में शेख़ अब्दुल्ला का नाम लिया । पूरा वाक्य तो किसी को क्या समझ में आता लेकिन शेख़ अब्दुल्ला का नाम तो नैशनल कान्फ्रेंस के लोग कितना भी धीमा क्यों न लिया गया हो , सुन ही लेते थे । सत्ता पक्ष के सदस्यों ने शेख़ का नाम सुनने पर जम कर मेजें थपथपाईं । अब तो जब भी शेर-ए-कश्मीर शेख़ अब्दुल्ला का नाम बकुला के भाषण में आता तो सत्ता पक्ष के सदस्य मेजें थपथपा कर उसका स्वागत करते । यह मंज़र तब तक चलता रहा जब तक कशुक बकुला भाषण करते रहे । समझ बकुला भी गए थे कि ये लोग मेज़ थपथपा कर किस लिए अपनी ख़ुशी का इज़हार कर रहे हैं । उनकी समझ में  अब लद्दाख भी शेख़ अब्दुल्ला और नैशनल कान्फ्रेंस के समर्थन में आ खड़ा हुआ है । फिर कशुक बकुला कोई साधारण पुरुष नहीं थे । वे टुलकु थे । हिमालयी क्षेत्र में टुलकु उसे कहते हैं जो किसी का अवतार हो । टुलकु बोधिसत्व होता है । बकुला ,भगवान बुद्ध के सोलह अर्हतों में से एक थे । वह बुद्ध के समकालीन थे । लद्दाख के वर्तमान कशुक बकुला को उन्हीं अर्हत बकुला का उन्नीसवाँ अवतार माना जाता है । वही कशुक बकुला आज जम्मू कश्मीर की संविधान सभा में बजट पर व्याख्यान दे रहे थे और अब्दुल्ला कम्पनी तालियाँ बजा रही थी । लेकिन ये तालियाँ कुछ समय के लिये ही थीं और शेख़ साहिब का मुस्कुराता चेहरा भी कुछ समय के लिए ही था ।

कशुक बकुला के वक्तव्य के बाद , विधान सभा के सचिव ने अंग्रेज़ी अनुवाद का पाठ शुरु किया तो धीरे धीरे सभी के चेहरे का रंग बदलना शुरु हो गया । कशुक बकुला आश्चर्य प्रकट कर रहे थे  कि वित्त मंत्री ने अपने लम्बे भाषण में लद्दाख की आर्थिक व अन्य समस्याओं को हल करने की बात तो दूर, उन्होंने  तो अपने पूरे भाषण में एक बार भी लद्दाख का नाम नहीं लिया । लद्दाख के अभागी लोगों के लिए यह बजट सचमुच निराशाजनक है । वित्त मंत्री के इस भाषण को सुन कर तो कोई भी यह अनुमान लगा लेगा कि शायद लद्दाख, जम्मू कश्मीर राज्य का हिस्सा ही नहीं है । पूरे बजट में सभी योजनाएँ अन्य संभागों के लिए ही बनाई गई हैं  लद्दाख के लिए किसी एक भी योजना का ज़िक्र नहीं है । जैसे जैसे अंग्रेज़ी में भाषण पढ़ा जा रहा था , वैसे वैसे नैशनल कान्फ्रेंस के सदस्यों  के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं । शेख़ अब्दुल्ला को तो यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि लद्दाख का सदस्य , जो क़ायदे से नैशनल कान्फ्रेंस का ही सदस्य है , इतनी हिम्मत दिखाए कि क़ायदे आज़म के सामने ही उसकी आलोचना करे । क़ायदे आज़म का नाम  तो अंग्रेज़ी भाषण में भी बार बार आ रहा था लेकिन अब कोई उस पर तालियाँ नहीं बजा रहा था । उधर आलोचना का स्वर तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था । बकुला ने कहा , लद्दाख में शिक्षा को लेकर सरकार मौन है । पूर्ववर्ती सरकार ( महाराजा हरि सिंह की सरकार) इस सीमान्त ज़िला के प्राथमिक , सैकेण्डरी और कालिज दर्जे के छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करती थी लेकिन इस नई सरकार ने तो एक ही झटके से उसे भी समाप्त कर दिया । महाराजा हरि सिंह की सरकार लद्दाख में शिया, सुन्नी और बौद्ध समाज द्वारा चलाए जा रहे तीन विद्यालयों को अनुदान देती थी , वर्तमान सरकार ने उसे भी बन्द कर दिया । लद्दाख में जो थोड़ी बहुत स्कूली व्यवस्था थी भी उसकी दयनीय स्थिति की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा सरकार नाम लेने के लिए तो लद्दाख के स्कूलों में भोटी भाषा के अध्ययन की व्यवस्था करती है लेकिन वह छात्रों के लिए भोटी भाषा में किताबें नहीं छापती । बिना किताब के पढ़ाई कैसी ? सरकार ने बजट में भोटी के विकास के लिए कोई प्रावधान नहीं किया । सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि सरकार ने लद्दाख के स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अनिवार्य रूप से उर्दू बना दिया है । लद्दाखी बच्चों के लिए तो उर्दू एक विदेशी भाषा से ज़्यादा कुछ नहीं । दरअसल सरकार उर्दू को लाद कर लद्दाख में पढ़ाई लिखाई को ख़त्म करने  पर तुल गई है । बकुला ने भाषा को लेकर यह मौलिक प्रश्न उठाया था । सरकार लद्दाख के लोगों की मातृभाषा भोटी को शिक्षा व्यवस्था में से समाप्त करने के एक गहरे षड्यंत्र में जुटी हुई थी । लेकिन मामला केवल भोटी का ही नहीं था । शेख़ अब्दुल्ला की सरकार तो अपनी मातृभाषा कश्मीरी को भी समाप्त करने  के गहरे षड्यन्त्र में लगी हुई थी । कश्मीर घाटी के स्कूलों में भी शिक्षा का माध्यम कश्मीरी के स्थान पर उर्दू किया गया था । भाषा का समाप्त होना यानि पीढ़ियों की विरासत का जीवन्त रूप में समाप्त हो जाना ।  कहीं शेख़ अब्दुल्ला कश्मीरियत को समाप्त करने की नींव तो तैयार नहीं कर रहे थे ? इसका उत्तर तो वे स्वयं ही जानते होंगे लेकिन इतना निश्चित था भोटी भाषा उनके आक्रमण का शिकार हो रही थी । जो अपनी भाषा को ही कश्मीर घाटी से समाप्त करने के अभियान चला रहा हो उसके लिए भोटी की क्या विसात थी । बकुला ने कहा कि जम्मू और कश्मीर संभाग में तकनीकी शिक्षा के प्रसार के लिए कितना कुछ किया जा रहा है लेकिन लद्दाख में तकनीकी शिक्षा का अस्तित्व ही नहीं है । तकनीकी प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं होगी तो लद्दाख की युवा पीढ़ी को रोज़गार के अवसर कैसे प्राप्त होंगे ?

अब  बकुला ने लद्दाख में शरणार्थियों की समस्या का प्रश्न उठाया । उन्होंने कहा कि 1948 में जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के कारण जंस्कार घाटी से निकल कर शरणार्थी बनने के लिए विवश हो  गए लोगों के पुनर्वास के लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं है । ये बदक़िस्मत शरणार्थी  अभी भी कुल्लु घाटी में मारे मारे फिर रहे हैं । इनमें से कई तो मृत्यु का शिकार भी हो गए हैं । लेकिन सरकार को इनके पुनर्वास की तनिक  भी चिन्ता नहीं है ।  इस हमले के कारण अनेक मठों को हमलावरों ने नष्ट कर दिया था । नष्ट हुए मठों की मरम्मत करवाने की ओर सरकार का ध्यान जाने का तो  ख़ैर प्रश्न ही नहीं है । बकुला के इस वक्तव्य के पीछे छिपे व्यंग्य को शेख़ अब्दुल्ला से बेहतर भला कौन समझ सकता था ? लद्दाख के आर्थिक विकास का , सरकार को ख़्याल आए , यह आशा करना तो आकाश कुसुम के समान ही होगा । दुख का विषय तो यह है कि हमें यक़ीन दिलवाया गया था कि इस क्षेत्र का भी विकास होगा । यह बात हमें स्वयं जवाहर लाल ने कही थी । लेकिन यह सब झूठा सिद्ध हुआ । पंचायती राज, सहकारिता  और ग्रामीण विकास, ये सभी योजनांए लद्दाख में भी लागू की जानी चाहिए । लेकिन बजट में इसका कहीं ज़िक्र तक नहीं है । बल्कि इसके विपरीत विकास के जो काम पुरानी सरकार के समय में चालू थे , उन्हें भी नई सरकार ने बन्द करवा दिया । जम्मू और कश्मीर में नई नहरें खुदवाने के लिए पच्चीस लाख का प्रावधान बजट में किया गया है । इन इलाक़ों में नहरें पहले ही हैं । लेकिन लद्दाख के सूखे रेगिस्तान के लिए किसी एक छोटी से छोटी नहर के लिए भी बजट में फूटी कौडी नहीं है । कारगिल में खुरबाथांग नहर का सर्वेक्षण करवाया था लेकिन वर्तमान सरकार उससे एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ पाई ।

कशुक बकुला ने लद्दाख की भोगौलिक स्थिति की चर्चा की । उन्होंने कहा क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या परिवहन और संचार को लेकर है । दुर्गम पहाड़ी इलाक़ा है । न सडकें हैं और न ही पगडंडियाँ । बस्तियाँ दूर दूर हैं । इसलिए इलाक़े के विकास के लिए लद्दाख के दूर दराज़ की बस्तियों को जोड़ने के लिए कच्ची पक्की सड़कों के निर्माण की जरुरत है । लेकिन बजट में इसके प्रावधान की बात तो दूर , इसका कहीं संकेत भी नहीं किया गया है । हम तो भारतीय सेना के आभारी हैं कि उन्होंने कारगिल तक जाने के लिए कम से कम जीप चलने लायक पक्की सड़क तो बनाई है ।  पूरे लद्दाख में डाकतार विभाग के केवल दो कार्यालय हैं । लेह और कारगिल में । जंस्कार घाटी के लोगों को डाक या तार की जरुरतों के लिए कारगिल जाना पड़ता है । जंस्कार से कारगिल की दूरी 150 मील है और रास्ते में 4400 मीटर की ऊँचाई वाली दो पर्वत चोटियाँ आती हैं । जरुरत थी कि सरकार लद्दाख में संचार व्यवस्था स्थापित करने की कोई योजना बनाती लेकिन वित्त मंत्री के पूरे बजट में लद्दाख का तो मानो अस्तित्व ही नहीं है । सरकार चाहे तो कह सकती है कि हम फ़िलहाल लद्दाख पर नौ लाख रुपया ख़र्च करते हैं । यह सच है लेकिन मैं स्पष्ट कर दूँ यह सारा पैसा सरकारी कर्मचारियों के वेतन पर ख़र्च हो जाता है , विकास के लिए एक पैसा नहीं बचता । हमें आशा थी कि लद्दाख के प्राकृतिक स्रोतों का दोहन करने के लिए विशेषज्ञों की समिति का गठन किया जाएगा और हमारी इस प्राकृतिक सम्पदा का आकलन कर विकास की योजनाएँ बनाई जाएँगी लेकिन बजट में इसका दूर दूर तक ज़िक्र नहीं है । लगता है हमारे संभाग को यह सरकार विजित प्रदेश मान कर चल रही है । आज हम से जिस दर पर लगान बसूला जा रहा है , उतना तो शोषण की चरम स्थिति के दिनों में भी नहीं बसूला जाता था । इस समय कशुक बकुला ने एक और स्पष्टीकरण दिया । उन्होंने कहा कि मैं जानता हूँ कि यहाँ कुछ मंत्री लोग कह रहे हैं कि जो मैं कह रहा हूँ , वह आम लद्दाखी नहीं कह रहे बल्कि उनको आगे करके कोई और बोल रहा है । बकुला ने कहा हमारा पेट भूखा है , यह बताने के लिए भी हमें कोई बाहर से ही आएगा ? बिना कपड़ों के हम शीत से मरे जा रहे हैं , यह हमें कोई बाहर से बताने आएगा ? फिर उन्होंने व्यंग्य से कहा , जब 1931 में शेख़ अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ मोर्चा लगाया था तो सरकारी क्षेत्रों में यह चर्चा थी कि वे विदेशी ताक़तों के इशारे पर यह सब कर रहे हैं । ताज्जुब है आज कुछ सरकारी मंत्री हमारे बारे में यह कह रहे हैं । बकुला ने शेख़ अब्दुल्ला के प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर तंज कसा । उन्होंने कहा श्रीनगर से हमारे लिए लेह में कपड़ा भेजा जाता है लेकिन उसका एक टुकड़ा तक लद्दाखियों को नहीं मिल पाता । आख़िर वह सारा कपड़ा कौन पहन रहा है ? मिट्टी का तेल हमारे लिए श्रीनगर से भेजा जाता है लेकिन उसकी एक बूँद भी हम तक नहीं पहुँचती । आख़िर वह सारा तेल कहाँ चला जाता है ?  इतिहास में पहली बार , उस सरकार द्वारा जो अपने आप को लोगों की अपनी सरकार कहती है , लद्दाख में बाहर से पुलिस बल तैनात कर दिए गए । हमने कभी सपने में भी ऐसी कल्पना नहीं की थी । ज़मीन पर रेंगते निरीह कीड़े पर जब कोई पैर रख देता है तो वह भी प्रतिकार करता है , हम तो आख़िर मनुष्य हैं । हम लद्दाखियों का धैर्य अब जबाब देने लगा है । हमारी परीक्षा मत लीजिए । मुझे आशा है सरकार मेरी बातों पर ग़ौर करेगी और उनका समाधान करेगी ।

लेकिन इधर यह सब सुनते सुनते शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का धैर्य भी अब जबाब देने लगा था । वे ग़ुस्से में उठ कर खड़े हो गए और अध्यक्ष को सम्बोधित कर अत्यन्त आश्चर्यजनक व्यवस्था का प्रश्न उठाने लगे । उन्होंने कहा , यह अनुवाद सही नहीं है । भोटी का भाषण छोटा था तो अंग्रेज़ी का भाषण लम्बा कैसे हो सकता है । दोनों भाषणों की पृष्ठ संख्या देखी जाए । भोटी के पृष्ठ कम हैं और अंग्रेज़ी के ज़्यादा हैं । यह सही अनुवाद नहीं है । कशुक बकुला ऐसा नहीं कह सकते । अध्यक्ष के आसन पर ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ विराजमान थे । वे भी नैशनल कान्फ्रेंस से ही ताल्लुक़ रखते थे और शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के नज़दीक़ी साथी थे । उनके लिए भी शेख़ अब्दुल्ला क़ायदे आज़म ही थे । लेकिन इस समय वे अध्यक्ष के आसन पर थे । अजीब धर्मसंकट में फँस गए थे । इधर शेख़ अब्दुल्ला बार बार चिल्ला रहे थे कि विधान सभा के सचिव को यह भाषण पढ़ने से रोका जाए । सादिक़ ने इसे मंज़ूर नहीं किया और शेख़ अब्दुल्ला ने टोका टोकी जारी रखी । शेख़ अब्दुल्ला के एक दूसरे मंत्री दुर्गा प्रसाद धर तो उससे भी एक क़दम आगे चले गए । उन्होंने कहा विधान सभा की कार्यवाही के लिए केवल दो ही अधिकृत भाषाएँ हैं , उर्दू और अंग्रेज़ी । क्योंकि बकुला ने अपना भाषण भोटी भाषा में दिया है इसलिए उन का यह भाषण  सभा की कार्यवाही में शामिल न किया जाए । दुर्गा प्रसाद धर भूल गए थे के जम्मू कश्मीर के तीन संभागों की भाषाएँ कश्मीरी , डोगरी और भोटी है । उर्दू और अंग्रेज़ी किसी भी संभाग की भाषा नहीं है । वैसे भी विधान सभा के किसी सदस्य द्वारा बजट पर दिया गया भाषण कार्यवाही से कैसे निकाला जा सकता है ? यह तो तभी संभव है जब किसी सदस्य ने अपने भाषण में असंसदीय भाषा का प्रयोग किया हो । उस समय तक शेख़ अब्दुल्ला की आलोचना को असंसदीय क़रार नहीं दिया गया था । सादिक ने कहा कि यह अंग्रेज़ी अनुवाद कशुक बकुला ने स्वयं दिया है , इसलिए उसके सही होने पर कोई तीसरा व्यक्ति आपत्ति कैसे कर सकता है । तकनीकी दृष्टि से इसे ही सही मानना होगा । लेकिन शेख़ अब्दुल्ला और उसके साथी अपने व्यवस्था के प्रश्न पर अडे रहे । तब सादिक़ ने बीच का रास्ता निकाला । शेख़ की बात भी रह जाए और नियमों के विपरीत भी न चलना पड़े । उन्होंने व्यवस्था दी कि कशुक बकुला जी के भाषण के अंग्रेज़ी अनुवाद की किसी तीसरे भाषाविद से जाँच करवा ली जाए  और उसके निर्णय के अनुसार ही आगे निर्णय लिया जाए । किसी ने शेख़ अब्दुल्ला को यह कहने का साहस नहीं किया कि यदि बकुला के भाषण में सरकार की आलोचना की गई है तो इससे क्रोधित होकर इतनी चिल्ल पौं मचाने की क्या जरुरत है ? लोकतंत्र का मूल स्तम्भ तो आलोचना पर ही टिका हुआ है । नैशनल कान्फ्रेंस तो आज तक यही चिल्लाती रही थी कि पार्टी बोलने के अधिकार , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए ही संघर्ष करती रही है । आज कशुक बकुला ने अपनी पहली आलोचना से ही शेख़ अब्दुल्ला का पूरा रंग एक ही झटके में उतार कर रख दिया ।

कशुक बकुला का भोटी में दिया गया भाषण और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद श्रीनगर में राजस्व विभाग में कार्य कर रहे एक लद्दाखी श्री देचेन साहब को दिया गया जो मज़हब से ईसाई था । देचेन भोटी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाएँ जानता था । उसने भोटी भाषा के भाषण के एक एक शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद के शब्दों के साथ मिलान किया और अपना निर्णय दे दिया । भाषण का अंग्रेज़ी अनुवाद सही था । जो अंग्रेज़ी में लिखा गया था वही कुशक बकुला ने कहा था । यह रपट विधान सभा सचिव को दी गई और कशुक बकुला रिम्पोछे का पूरा भाषण  विधान सभा की कार्यवाही में दर्ज किया गया । कशुक बकुला के इस भाषण ने जम्मू कश्मीर राज्य की भीतर की हालत को सबके सामने नंगा कर दिया । दूसरे दिन सभी समाचार पत्रों ने बकुला के इस भाषण की चर्चा की । दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी दैनिक Hindustan Times Evening News ने 13 मई को कशुक बकुला को उद्धृत करते हुए छापा कि लद्दाख को एक पाई तक नहीं दी गई ।  लेकिन जब बाद में वित्त मंत्री ने बजट की आलोचनाओं का उत्तर दिया तो बकुला के उठाए गए प्रश्नों का वे भी कोई समाधान वाला उत्तर नहीं दे सके ।

लेकिन दिल्ली में इसकी प्रतिक्रिया हुई । प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के सहायक सचिव मोहम्मद मथाई ने दूसरे ही दिन प्रधानमंत्री को बकुला द्वारा उठाए गए मुद्दों के सम्बंध में एक नोट भेजा । मथाई ने लिखा,”मैं यह सुझाव नहीं दे रहा कि प्रधानमंत्री शेख़ अब्दुल्ला से इसका स्पष्टीकरण माँगे । लेकिन मैं समझता हूँ कि सभी चीज़ों को ध्यान में रखते हुए , केन्द्रीय सरकार को इस भुला दिए गए क्षेत्र की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए । मैंने विश्वसनीय लोगों से सुना है कि लद्दाख में सूखे से प्रभावित लोगों की सहायता के लिए प्रधानमंत्री ने शेख़ साहिब को जो दस हज़ार रूपए भेजें थे , वे उन ग़रीबों तक पहुँचे ही नहीं । यक़ीनन शेख़ साहिब ने तो वे रूपए उस आदमी को भेजें ही होंगे जो लद्दाख का प्रभारी है । मैं नहीं जानता यह लद्दाख वाला अजीब आदमी किस प्रकार की प्रकृति का है । मेरी समझ में हर लिहाज़ से यह ठीक होगा कि यदि सम्भव हो तो लद्दाख को एक साम्प्रदायिक विकास प्रकल्प दिया जाना चाहिए ।”
मथाई के इस नोट में इतना तो स्वीकार कर ही लिया गया कि प्रशासन भ्रष्टाचार में धँसा हुआ है । यदि प्रधानमंत्री द्वारा प्रदेश के मुख्यमंत्री के माध्यम से लद्दाख की राहत के लिए भेजें गए दस हज़ार रूपए कोई बीच में डकार गया तो प्रशासन की हालत का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था । लेकिन जैसा कि मथाई ख़ुद ही लिख रहे हैं , शेख़ अब्दुल्ला से उत्तर माँगने का साहस कोई नहीं कर रहा था । कशुक बकुला यही उत्तर शेख़ अब्दुल्ला से प्रदेश की संविधान सभा में माँग रहे थे और शेख़ उत्तर देने की बजाए व्यवस्था के प्रश्नों की ढाल तलाश रहे थे ।

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