नई दिल्ली, (इंविसंके)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सम्पर्क प्रमुख तथा पूर्व में जम्मू-कश्मीर के प्रांत प्रचारक रहे श्री अरुण कुमार ने बताया कि जम्मू-कश्मीर में सूचनाओं, जानकारियों का विकृतिकरण हुआ है और देश में जम्मू-कश्मीर के बारे में जानकारियों का अभाव है। उन्होंने बताया कि जम्मू-कश्मीर को लेकर कुछ ठीक करना है तो सबसे पहले जम्मू-कश्मीर को लेकर एकेडमिक काम करने की आवश्यकता है। श्री अरुण जी ने दीन दयाल शोध संस्थान में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बहुआयामी व्यक्तित्व व कृतत्व पर आधारित पुस्तक “डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कश्मीर समस्या” के लोकार्पण के अवसर पर अपने विचार प्रकट किये।
दिल्ली विश्वविद्यालय के महाराजा अग्रसेन महाविद्यालय के इतिहास विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ऋतु कोहली द्वारा लिखित इस पुस्तक को प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया। पुस्तक के बारे में बताते हुए श्री अरुण जी ने बताया कि जैसा ऐकेडमिक काम हम खोजते थे वह इस पुस्तक में है। उन्होंने बताया कि समय के साथ घटी घटनाओं से निर्मित धारणाओं हटकर देश का इतिहास को दोबारा से निर्मित किया गया है। 1947 में देश की आजादी के समय, द्वितीय विश्वयुद्ध और स्वतन्त्रता के बाद के परिदृष्य में ब्रिटिश हित को कैसे बचाना है, और बाद में उसके साथ अमेरिकन हित भी जुड़ गये, यह ध्यान में रखकर लिखा इतिहास नई पीढ़ी को पढाया गया. ब्रिटेन और अमेरिका के हित इसी में थे कि कश्मीर किसी तरह पाकिस्तान में मिल जाए। जम्मू-कश्मीर को लेकर इसके लिए तथ्य हीन इतिहास निर्मित किया गया है।
अरुण जी ने स्पष्ट किया कि महाराजा हरी सिंह ने कभी भी नेहरू जी को गिरफ्तार नहीं किया था। वास्तव में महाराजा एक दिन भी कश्मीर को स्वतंत्र देश के रूप में नहीं रखना चाहते थे। महाराजा के मन में कोई भी अनिर्णय नहीं था। विलय के लिए वो देश की आजादी से कई महीने पहले से तैयार थे। मेहरचंद महाजन को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अप्रैल में उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को चार्ज दे दिया था। विलय का प्रस्ताव नेहरू जी ने स्वयं स्वीकार किया था। इस पुस्तक में स्पष्ट किया गया है कि भारत को आजादी से पहले ही जम्मू- कश्मीर विलय का प्रस्ताव मिला था।
उन्होंने बताया कि आर्टिकल 370 को लेकर बहुत बड़ी बहस देश में चलती है। आर्टिकल 370 का मकसद जम्मू-कश्मीर को कोई विशेष दर्जा देना नहीं था। वास्तव में 1951 में जो ब्रिटिश अमेरिकन षड्यंत्र चले, और जब उनके षड्यंत्र विफल हो गए और जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान में नहीं जा सका तो, क्या इंडिपेंडेंट जम्मू-कश्मीर हो सकता है इस नीति पर यह देश चले। उस समय शेख़ अब्दुल्ला उनका मोहरा बना, शेख़ को लेकर उन्होंने कुछ खेल खेलने की कोशिश की और अनुच्छेद 370 का संविधानिक दुरुपयोग करके जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग-थलग करने का प्रयास प्रारम्भ हुआ। उस समय डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका कड़ा विरोध किया। जम्मू-कश्मीर को लेकर डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी बहुत स्पष्ट थे। डॉ. मुखर्जी ने बताया था कि यूएन में जाकर हमको स्पष्ट समझ में आ गया कि दुनिया की शक्तियां हमको कुछ देने वाली नहीं हैं, दुनिया से हमको कोई न्याय मिलने वाला नहीं है। हमको इस चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है। हमेशा के लिए यूएन के प्रश्नों को खत्म कर दीजिए।
दूसरी बात वो कहा करते थे कि आप अगर कुछ विशेष अधिकार देने की चाहते हैं तो संविधान संशोधन करिए।आप दो लोग बैठकर दिल्ली एकॉर्ड करके, समझौता करके लागू करना चाहते हैं, यह मत करिए। संसद में आइए, डिबेट रखिए, आप चर्चा कीजिए। देश के बाकी लोग कश्मीर में जाकर बस नहीं सकते हमारा संविधान क्या इसकी आज्ञा देता है। लेकिन वास्तव में नेहरू जी वो डिबेट नहीं करना चाहते थे।
अरुण जी ने बताया कि डॉ. मुखर्जी कश्मीर विषय पर कभी सीधे समाज में नहीं गए, तुरंत आंदोलन नहीं किया, उन्होंने एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाते हुए पत्र व्यवहार, बातचीत की, बार-बार बातचीत का प्रयास किया। आल पार्टी मीटिंग, शेख़ अब्दुल्ला को बुलाने, प्रजा परिषद् के लोगों को बुलाने के आठ महीने तक उनके प्रयास चलते गए। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला तो आखिर में डॉ. मुखर्जी को आंदोलन के मार्ग पर जाना पड़ा। इस आन्दोलन में बाद में शेख अब्दुल्ला की कैद में उनका बलिदान हुआ। ।
डॉ मुखर्जी का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि अगर कश्मीर को कुछ देना चाहते हैं तो जम्मू और लद्दाख केसाथ अन्याय क्यों करना चाहते हैं। कश्मीर की जनता की भावना की बात करते हैं तो जम्मू-लद्दाख की क्यों नहीं करते। जम्मू लद्दाख के लोग भारत के पूर्ण संविधान के अंतर्गत रहना चाहते हैं। देश को ठीक दिशा में चलना है तो डॉ. मुखर्जी की बताई बातों को याद रखना होगा. हम पाकिस्तान, बांग्लादेश को दुनिया के बाकी देशों की तरह नहीं देख सकते वो हमारे लिए विदेश नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के प्रश्न की भारत उपेक्षा नहीं कर सकता। यह उनका आंतरिक मामला नहीं हो सकता। वो कहते थे भारत की जिस संस्कृति की हम बात करते हैं, उस पांच हजार साल की संस्कृति में सिंध और बांग्लादेश के लोगों का भी उतना ही योगदान है जो आज के भारत का है। उन्होंने बताया कि हमने 1947 में देश की आजादी स्वीकार की थी, ट्रांसफर ऑफ़ पापुलेशन स्वीकार नहीं किया था। हमने दो देश बनाए थे। जनसँख्या का बंटवारा नहीं स्वीकार किया था। नेहरू जी ने 1947 में देश की आजादी के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए आश्वासन दिया था कि वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं के हितों की हम चिंता करेंगे। हम अपनी इस जिम्मेदारी से बचना नहीं चाहिये, जिस आजादी की लड़ाई हम लड़ रहे थे, उसमें उनका योगदान हमसे कम नहीं है। अगर हम उन हिन्दुओं की ओर से आंख मूंद लेंगे तो यह कृतघग्नता होगी । वास्तव में डॉ. मुखर्जी की बहुत स्पष्ट नीतियां थीं, अगर इन नीतियों के अनुसार देश चला होता तो पाकिस्तान, बांग्लादेश के अंदर अल्पसंख्यकों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता था। उन्होंने ध्यान दिलाया कि जम्मू-कश्मीर का प्रश्न केवल पाक अधिकृति कश्मीर का प्रश्न है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान न हुआ होता तो 1954 के आर्डर के खिलाफ भी देश के अंदर एक प्रबल आंदोलन हुआ होता। उनके बाद विपक्ष में उस तरह का नेतृत्व नहीं रहा। इसलिए 54 के आर्डर जैसी धोखाधड़ी हो गई। 370 के नाम पर आज जो सारी व्यवस्थाएं हमको दिखाई देती हैं यह वास्तव में अनुच्छेद 370 का संविधानिक दुरुपयोग है जो 14 मई 1954 के आर्डर से हुआ।
डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी से प्रत्यक्ष मिले गुजरात के राज्यपाल श्री ओम प्रकाश कोहली ने अपने संबोधन में बताया कि कई बार व्यक्तियों के आग्रह और दुराग्रहों के कई दूरगामी परिणाम होते हैं। यह जवाहर लाल नेहरू जी का आग्रह और दुराग्रह था जो इतिहास के जम्मू-कश्मीर वाले प्रकरण को उलझा रहा है। उनका दुराग्रह तो था महाराजा हरिसिंह के साथ और आग्रह था शेख़ अब्दुल्ला के साथ। शेख़ के साथ उनका अति आग्रह और महाराजा के साथ उनकी दुराग्रह की गांठ ने जम्मू-कश्मीर के प्रकरण को उलझाने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी।
श्री कोहली ने कहा कि डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की चर्चा ज्यादातर कश्मीर के संदर्भ में करते हैं, लेकिन कश्मीर के संदर्भ से हटाकर भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बंगाल की राजनीति पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक शूरवीर की तरह उन्होंने लड़ाई लड़ी, साम्प्रदायिक राजनीति के विरोध में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व जेल में चला गया था उस समय कमजोर पड़ चुके इस आंदोलन को फिर से खड़ा करने में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जो कार्यकलाप हैं वो अपने आप में एक स्वतन्त्र अध्ययन का विषय है। आजादी के आंदोलन के दिनों में तीन राजनीतिक पार्टियां थीं जिनकी प्रासंगिकता थी। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा। बाद में हिन्दू महासभा अप्रासंगिक हो गई और कांग्रेस और मुस्लिम लीग ही रह गईं। इसी कारण भारत बंट गया।
कांग्रेस की जो नीति देश की आजादी से पहले चली आ रही थी उसी नीति को देश की आजादी के बाद भी जारी रखा। यह तुष्टिकरण की नीति थी, यह मुसलमानों को राजी करने की नीति थी, यह पाकिस्तान के प्रति नरमी की नीति थी। इस नीति का अगर मुकाबला करना है तो कांग्रेस का कोई राष्ट्रीय विकल्प खड़ा होना चाहिए। यह समय की मांग थी। परिणामतः उन्होंने भारतीय जनसंघ के रूप में कांग्रेस का एक राष्ट्रीय विकल्प खड़ा किया। उन्होंने बताया कि धारा 370 का खतरा अभी क्या है, किस रूप में है, उसमें विभाजन की क्षमता मौजूद है, जम्मू-कश्मीर के अलगाववाद और पृथकतावाद की क्षमता मौजूद है या अब वो बूढ़ा हो गया है इस पहलू का भी नये संदर्भ में विचार, अध्ययन की जरूरत है।
जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री डॉ. निर्मल सिंह ने अपने उदबोधन में बताया कि इतिहास लगातार निर्मित होने वाली प्रक्रिया है, तथा अपना रास्ता स्वयं लेता है। लेकिन जिस प्रकार से भारत का इतिहास लिखा गया उसमें भी विशेषकर जम्मू-कश्मीर का जो इतिहास लिखा गया वह एक राजनीतिक सोच, जिस सोच ने भारत का विभाजन किया और उस सोच को आगे कैसे अपने तरीके से ढाला जाए, कुछ शक्तियों का इसके लिए पूरा प्रयास रहा। एक खास तरह की सोच लोगों में परिपक्व करने की कोशिश की गई कि जम्मू-कश्मीर पूर्णतः भारत नहीं है। यह अलग है, यह विशेष है, इस प्रकार की सोच को आजकल और पुष्ट करने की कोशिशें होती हैं।उन्होंने बताया कि 1940 में जब पाकिस्तान का रेजोल्यूशन आया, और 1953 में जब शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को अरेस्ट किया गया, इस कालखण्ड के ऊपर और अधिक अध्ययन करने की आवश्यकता है। उस समय तीन महत्वपूर्ण लोग थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, महाराजा हरिसिंह और शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला। नेहरू जी की भूमिका पर काफी कुछ कहा गया है, इनमें कछ बातों पर और अधिक फोकस करने की आवश्यकता है। पाकिस्तान और अलगाववादियों द्वारा समय-समय पर बार बार यह भ्राति पैदा की गई कि महाराजा हरिसिंह आजाद रहना चाहते थे। इस भ्रांति को दूर करना बहुत ही आवश्यक है। इसी तरह शेख़ अब्दुल्ला क्या चाहते थे, तथाकथित जो सेकुलर इतिहासकार हैं वो बार-बार प्रतिस्थापित करना चाहते है कि शेख़ अब्दुल्ला बिलकुल राष्ट्रीय थे, भारतीय थे। लेकिन वास्तव में 1931 में जब यह आंदोलन चला उस समय से 1933 तक शेख़ अब्दुल्ला का झुकाव जो था वह अंग्रेजों की ओर था, अंग्रेज उसे महाराजा हरिसिंह के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे।
अंग्रेजों का इंट्रैस्ट गिलगित में था, गिलगित 1933 के बाद सात साल के लिए उन्हें लीज पर मिल गया। उसके बाद अंग्रेज शेख़ अब्दुल्ला की तरफ से पीछे हट गए। उसके बाद ही शेख़ अब्दुल्ला का झुकाव कांग्रेस की तरफ होता है और नेहरू जी के साथ उनकी दोस्ती होती है। शेख़ अब्दुल्ला के मन में अपनी सल्तनत कश्मीर में बनाने की बात शुरू से थी। उन्होंने अपने इस उद्देश्य के लिए सभी तरह के प्रयास किए और एक स्ट्रैटजी के तौर पर कांग्रेस को इस्तेमाल किया। इसलिए जम्मू-कश्मीर में ऐतिहासिक व्यक्तियों का गहराई से अध्ययन होना चाहिए।
पुस्तक की लेखिका डॉ. ऋतु कोहली ने पुस्तक का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पहचान एक बहुआयामी व्यक्ति के रूप में है। वे शिक्षाविद थे, व्यवहारिक राजनीतिज्ञ थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे, राष्ट्रीय एकता के प्रति समर्पित थे, कुशल सांसद थे और साम्प्रदायिक राजनीति से लोहा लेने वाले वीर थे। वे भाषा से समझौता न करने वाले अडिग व्यक्ति थे, और संविधानवेत्ता थे। उन्होंने बताया कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना सार्वजनिक जीवन 1930 के दशक में प्रारम्भ किया और 1953 में शेख़ अब्दुल्ला के कारावास में अपने जीवन के बलिदान तक सार्वजनिक कार्यकलापों में निरंतर कार्यशील रहे। पहले बंगाल प्रांत और बाद में राष्ट्रीय राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। एक ओर मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति और दूसरी ओर कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति, वह निरंतर उसका विरोध करते रहे।
डॉक्टर मुखर्जी देश विभाजन के विरुद्ध थे और अखण्ड भारत के प्रबल समर्थक थे। जब कांग्रेस नेतृत्व ने देश के विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तब डॉ. मुखर्जी ने जनजागरण कर बंगाल और पंजाब के एक बड़े भूभाग को पाकिस्तान में जाने से बचा लिया। आजादी के बाद नेहरू मंत्री मंडल में उद्योग मंत्री के रूप में उन्होंने भारत के औद्योगिक विकास की नींव रखी। डॉ. मुखर्जी पंडित नेहरू की पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के अधिकारों की रक्षा से सम्बन्धित ढुलमुल नीति से बहुत दुखी और निराश थे। पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के उत्पीड़न ने उन्हें उद्वेलित कर दिया। नेहरू लियाकत समझौते के विरोध में उन्होंने केन्द्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा दे दिया और 1951 में कांग्रेस के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में जनसंघ नाम से राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का गठन किया।
उन्होंने नेहरू की कश्मीर विषयक नीति का डटकर विरोध किया और धारा 370 की समाप्ति और जम्मू-कश्मीर राज्य को अन्य राज्यों के समान ही भारतीय संघ में मिलाने की मांग की और आन्दोलन किया। स्वयं बिना पासपोर्ट जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवेश किया, नजरबंद किये गये, और अपना बलिदान दिया। डॉ. मुखर्जी के बलिदान से पंडित नेहरू को शेख़ अब्दुल्ला की अलगावावादी मानसिकता को समझकर अंततः उसे गिरफ्तार करना पड़ा और 1953 के बाद अनेक केन्द्रीय कानून धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर पर लागू होते गए। कश्मीर के प्रश्न के सम्बन्ध में डॉक्टर मुखर्जी की दृष्टि कितनी यथार्थवादी, व्यवहारिक और सही थी यह इस बात से सिद्ध हो जाता है कि उनकी मृत्यु के 41 वर्ष बाद भारत की संसद में 22 फरवरी 1994 को कश्मीर पर सर्वसम्मत प्रस्ताव पास किया और उसमें डॉक्टर मुखर्जी की दृष्टि और सोच का प्रतिबिंब मिलता है।
पुस्तक लोकापर्ण कार्यक्रम में मंच का कुशल सञ्चालन श्री प्रभात कुमार ने किया। दीनदयाल शोध संस्थान के प्रधान सचिव श्री अतुल जैन, श्री भोलानाथ, दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यकर्ता विष्णु गुप्त ने मंचासीन अतिथियों का स्वागत किया तथा बड़ी संख्या में आये विद्वतजनों का धन्यवाद किया।