1950 के दशक में चीन और तिब्बत के बीच कड़वाहट शूरु हो गयी थी जब गर्मियों ने तिब्बत में उत्सव मनाया जा रहा था तब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और प्रसाशन अपने हाथो में ले लिया. दलाई लामा उस समय मात्र 15 वर्ष के थे इसलिए रीजेंट ही सारे निर्णय लेते थे लेकिन उस समय तिब्बत की सेना में मात्र 8,000 सैनिक थे जो चीन की सेना के सामने मुट्ठी भर ही थे. जब चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया तो वो जनता पर अत्याचार करने लगे, स्थानीय जनता विद्रोह करने लगी थी और दलाई लामा ने चीन सरकार से बात करने के लिए वार्ता दल भेजा लेकिन कुछ परिणाम नहीं मिला.
1959 में लोगो में भारी असंतोष छा गया था और अब दलाई लामा के जीवन पर भी खतरा मंडराने लगा था. चीन सरकार दलाई लामा को बंदी बनाकर तिब्बत पर पूर्णत कब्जा करना चाहती थी इसलिए दलाई लामा के शुभ चिंतको ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने का परामर्श दिया. अब भारी दबाव के चलते दलाई लामा को तिब्बत छोड़ना पड़ा. अब वो तिब्बत के पोटला महल से 17 मार्च 1959 को रात को अपना आधिकारिक आवास छोडकर 31 मार्च को भारत के तवांग इलाके में प्रवेश कर गये और भारत से शरण की मांग की.
अपने निर्वासन के बाद दलाई लामा भारत आ गये और उन्होंने तिब्बत में हो रहे अत्याचारों का ध्यान पुरे विश्व की तरफ खीचा. भारत में आकर वो धर्मशाला में बस गये जिसे “छोटा ल्हासा” भी कहा जता है जहा पर उस समय 80,000 तिब्बती शरणार्थी भारत आये थे. दलाई लामा भारत में रहते हुए सयुक्त राष्ट्र संघ से सहायता की अपील करने लगे और सयुंक्त राष्ट्र ने भी उनका प्रस्ताव स्वीकार किया. इन प्रस्तावों में तिब्बत में तिब्बतियो के आत्म सम्मान और मानवाधिकार की बात रखी गयी.
दलाई लामा ने इसके बाद विश्व शांति के लिए विश्व के 50 से भी ज्यादा देशो का भ्रमण किया जिसके लिए उन्हें शांति का नोबेल पुरुस्कार भी दिया गया. 2005 और 2008 में उन्हें विश्व के 100 महान हस्तियों की सूची में भी शामिल किया गया. 2011 में दलाई लामा तिब्बत के राजिनितक नेतृत्व पद से सेवानिवृत हो गये.
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Information Source : Bérénice Guyot-Réchard is the author of Shadow States: India, China and the Himalayas