वेद, संस्कृत, संस्कृति वह काल के अनुसार देखे तो बहुत पुरानी चीज है. वेद तो इतिहास पूर्व काल से विद्यमान हैं, संस्कृत भाषा भी हमारी परंपरा जितनी प्राचीन हैं और परंपरा निर्देश करती है प्राचीन समय से चलती आयी हुई बातो का. भारत वर्ष के स्वर्णकाल की भविष्यवाणी बहुत पहले से चल रही है. स्वामी विवेकानंद, योगी अरविन्द ने वर्षो पहले यह भविष्यवाणी की है. योगी अरविन्द ने कहाँ कि सनातन धर्म ही हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दू राष्ट्र ही सनातन धर्म है. इसलिए हिन्दू राष्ट्र का उत्थान सनातन धर्म के लिए के होना अवश्यम्भावी है और उत्थान हो रहा हैं इसको हम देख रहे है. सनातन धर्म यानि जो पहले भी था, आज भी है और आगे भी चलेगा.
लेकिन धर्म क्या है यह जानना है तो बिना वेदो को जाने नहीं होगा, क्योकि सब धर्मो का मूल वेदो में हैं. चराचर सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ के स्वभाव को जानकर सृष्टि आगे निरापद चलती रहे, सृष्टि में सब बातो की उन्नति होती रहे. सब बातें मिलकर चले ऐसा उनका कर्तव्य निर्धारित करने वाला नियम। जो सबको लागु होता है यानि ज्ञान है और विज्ञान भी होना ही पड़ेगा क्योकि भौतिक चीजों का स्वभाव जानने का आज एकमात्र साधन दुनिया विज्ञान को मानती है. लेकिन केवल उस जड़ विज्ञान के आधार पर चलते है तो गड़बड़ होती है क्योकि उसमे सब बातो को अलग अलग देखा है.
विज्ञान मानता है कि आपस में किसी का कोई संबंध नहीं है. इसलिए जो बलवान होगा वह दुनिया को चलायेगा और सोचेगा कि हमारे लिए जो उपयोगी है उसको ही रखेंगे बाकि को नष्ट करेंगे। यह स्वाभाविक जड़ की दृस्टि से सोचे तो केवल यह बात आती है. और इसके चलते दुनिया में सारे कलह है. पूजा पद्धतिओ में पंथ संप्रदायो में आपस में झगडे क्यों हैं क्योकि वो कहते है कि हमारा ही सही है. यह अहंकार जाता नहीं हैं. इसलिए एकतरफ विज्ञान के अत्याधुनिक ज्ञान के कारण वास्तव में दिमाग खुल जाना चाहिये, दृष्टी उदार होनी चाहिए वैसा नहीं होता. विज्ञानं का उपयोग अणुऊर्जा के रूप में सबसे पहले दो बड़े शहरों में एटम बम गिरा का विध्वंश के लिए किया गया.
आज नीति का बंधन नहीं रहा तो Artificial Intelligence आ रहा है. लोग भयभीत हैं कि कल शायद मनुष्य Artificial Intelligence गुलाम हो जायेगा मानव जाती रहेगीं ही नहीं और पर्यावरण में आज हवा, पानी, अन्न सभी विषयुक्त है और मन भी विषयुक्त हो गया हैं और यह सब होना ही है क्योकि केवल जड़ दृष्टी से देखते है तो ये नीतिमत्ता संस्कार इसका कोई अर्थ नहीं है, जड़ दृष्टी मनुष्य को भी Biological Animal मानती हैं. हम जब धर्म कहते है तो उसको वो सूत्र मालूम है कि जो कुछ दिखता है वो एक ही है, चिरंतन है वही मूल है उसी को जानना है. इसलिए उपभोग के लिया नहीं जीना है ये सब जो भगवान से ही बना है इसकी पुष्टि तुष्टि के बाद जो बचता है उसमे तुम रहो यही गृहस्थ का कर्तव्य है. यह इसलिए है क्योकि हम और ये सब अलग नहीं है. ये जब हमारे पूर्वजो को पता चला कि यह सृष्टि में सब अपना ही है इसलिए मैं सृष्टि का इतना उपभोग नहीं करूँगा कि सबकुछ नष्ट हो जाय. ऐसा करना मेरा धर्म नहीं है. यह जो सारा ज्ञान है उसका पहला बिंदु है की चराचर मैं हम है, चराचर के सुख दुःख से हमारा सबंध है. यह सारा ज्ञान जब ऋषिमुनियों को हुआ और पता चला कि पूरी सृष्टि ही हमारा कुटुंब है यह त्रिभुवन ही मेरा घर है.
यह उन सबको पता चलना चाहिए क्योकि जोड़ने वाला तत्व स्वार्थ पर आधारित नहीं है संबंध पर आधारित है हम उसी से बने है, एक ही आत्मा सब में हैं तो वह संबध हैं वह शाश्वत है चिरंतन है बाकि सब बदलेगा जन्म जन्मांतर बदलेंगे, सृष्टि का कायापलट होता रहेंगा लेकिन जो पहले था जो आज है वही कल रहेंगा। हम सब संबंधो में जुड़े हैं, संबधो का लिहाज करके जीना सिखाता है वो धर्म है. वो सबको जोड़कर रखता है और सबलोग जब मिलकर जीना चाहते है तो सबलोग संयम में जीते है. मैं और मेरा परिवार उससे आगे जाकर मैं सोचता हूँ अपने गांव, जिले, राष्ट्र की सोचता हूँ और ऐसा जो राष्ट्र होता है वह सारे विश्व के कल्याण की सोचता है. क्योकि धर्म को मानाने वाला देश कभी भी किसी का लाभ नहीं उठायेगा। जब हमारे लाभ की किसी और को आवश्यकता है हमारे कमाये हुए से कोई और भूखा जीवित रह सकता है तो भारत देनेवाला देश है. यह धर्म सिखाने वाला अपना देश है हमारे पूर्वजो ने यह ज्ञान प्राप्त किया कैसे प्राप्त किया।
ज्ञान प्राप्त करने का एक तरीका विज्ञान है जो हरेक कसौटी पर खरा उतरने पर ही सही मनाता है. विज्ञान कहता है कि भगवान भी टेस्ट टयुब मैं दिखना चाहिए तब हम मानेगे। एक दूसरी पद्धत्ति है वह सारा हमारा अपने अंदर झांककर प्राप्त किया हुआ विज्ञान हैं. हमारे ऋषिओ ने ध्यान लगाया चिंतन किया, दीखता है उसके आधार पर हिसाब किये और उनको वो तत्व मिल गया उस तत्व के आधार पर श्रुष्टि के भौतिक पदार्थो की रचना उसको कहते है स्वर। आज विज्ञान भी बिग बेन्ग की बात करता है. पहले हलचल हुई, हलचल के कारण आवाज हुई, जिससे विस्फोट हुआ और विश्व बनता गया. स्वरों से बनती है हमारे ऋषि स्वरवित बन गए और उसके बाद अस्तित्व के सत्य को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा। उन स्वरों के आधार पर वेद बने. हमारे ऋषिओ ने लोक कल्याण के लिए तप किया उनको पता चल गया की चैतन्य को जानो तब सुख है. उन स्वरवित ऋषिओ की तपस्या के कारण हमारा राष्ट्र उत्पन्न हुआ और उन वेदो के आधार, उन मूल्यों के आधार पर पर पीढ़ी न पीढ़ी उसका आचरण करने वाला समाज चलता रहे ऐसी एक संस्कृति बनी उससे अपना राष्ट्र बना. और हमको विश्व को उसकी आज की समस्याओं का उत्तर देनेवाला देश बनना है हमको विश्व को नित्य शाश्वत, सुख शांति प्रेम का आचरण से रास्ता दिखाने वाला देश बनना है यही हमारे लिए पूर्वजो का भी आदेश है. यह हमारा कर्तव्य है और ये कर्तव्य अगर करना है तो विश्व की एकता के सत्य पर आधारित जो भद्र है, जो मंगल है ऐसी संस्कारो के आधार पर चलने वाली संस्कृति ही हमको चाहिए दूसरी नहीं।
हमारी संस्कृति हमारा धर्म रूढ़िवादी नहीं है शाश्वत तत्व कायम रखकर समय के साथ परिवर्तन करने वाला है. वह बताता है कि पहले तुम्हारे देह का रक्षण करो बाद में मन बुद्धि को अच्छा बनाओ। जैसी तुम्हारी परिस्थिति वैसे धर्म का आचरण करो. हम आज के विज्ञान के सत्य जैसे जितने आधुनिकतम अविष्कार है उनको अपनी नीति के आधार पर बदल कर स्वीकार करेंगे। राष्ट्र को यदि विजयी बनाना है विजयी यानि धर्म विजय करने वाला, जिस विजय से धर्म बढ़ता है वह धर्म विजय है. हमको धन विजय या असुर विजय नहीं चाहिये। हम धर्म विजय वाले लोग है धर्म बढ़ायेंगे। सबको जोड़ेगे आगे बढ़ाएंगे, विश्व गुरु बनेगे और इसलिए वेदो का ज्ञान उसका जतन होना आवश्यक है, संस्कृति का जतन होना आवश्यक है. ये सारा ज्ञान संस्कृत में है, संस्कृत का प्रभाव होना आवश्यक है. हमको अपनी मातृभाषा अच्छी बोलते आनी चाहिए क्योकि यदि हम अपनी मातृभाषा ठीक से समझते है तो 40 प्रतिशत संस्कृत हम वही सीख लेते है. मातृभाषा सिखने के बाद संस्कृत भी सीखना है. मातृभाषा और संस्कृत सबको आना चाहिए। संस्कृत से हमको हमारी परम्परा का ज्ञान होता है परंपरा का ज्ञान इसलिए आवश्यक है कि भूतकाल के हमारे जो शाश्वत अधिष्ठान है उसके आधार पर आधुनिक जगत का हम स्वीकार कर सके. यह सारा हमारी परंपरा में है उसको सीखेंगे तो आज की दुनियाँ के हम लायक बन जायेंगे और अपने अधिष्ठान पर खड़े होकर सम्पूर्ण दुनिया को मंगलमय दुनिया बनाएंगे। वैसा हमको सबका करना है वह हमारा कर्तव्य है इसलिए परम्परा से इतनी तपस्या करके उसके जतन करने वाले लोग और उनकी संस्थाये उसका हमको पोषक बनाना चाहिए। हम इसके लिए है, आपका हमारा सबका देह समाज के लिए राष्ट्र के लिए, संस्कृति के लिए, धर्म के लिए भगवान के लिए ही है. जिसको जैसे बनता है वैसे ऐसे कार्यो का पोषण हमको करना चाहिए।