कैप्टन मनोज पांडे की कारगिल युद्ध मे वीरता दिखाने की वीरगाथा और 2 व् 3 जुलाई की मध्य रात्रि में अधम्य जोश से “खालुबार” की पहाडीयों को फिर से हासिल करने का ब्यौरा अभूतपूर्व है. उनके प्राण न्योछावर में भी गौरव की अनुभूति थी क्योकि उनकी रायफल का निशान दुश्मन के बंकर थे, बर्फ में उनकी जमी हुई अंगुलियाँ रायफल के ट्रीगर को लगातार दबा रही थी.
एन.डी.ए. के भूतपूर्व प्रशिक्षार्थी रहे कैप्टन मनोज को 1/11 गोरखा रायफल में जून 1997 में कमीशन प्राप्त हुआ. कैप्टन मनोज ने कारगिल युद्ध के समय ऑपरेशन विजय के दौरान प्लाटून कमांड की जिम्मेदारी संभाली और बटालिक सेक्टर की खालुबार पहाडियों की ओर बढ़ते रहे.
उन्होंने सांग्रामिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण जुबार टॉप को वापस हासिल करने में 3 जुलाई 1999 को बड़े सवेरे अपने जवानों का बड़ी कुशलता से नेतृत्व किया. ऊँची पर्वत श्रेणियो पर बटालियन के विजय पथ की तरफ बढ़ते कदमो को दुश्मन ने मोर्चाबंदी कर रोकने की कोशिश की पर निर्भीक कैप्टन पांडे अपने लक्ष्य की और कदम बढ़ाते गये. अदम्य साहस दिखाते हुए वे अपने जवानों की टोली से बहुत आगे निकल चुके थे और गोलियों की बौछार करते हुए वीरतापूर्वक दुश्मन का सर्व विनाश करते रहे.
उनके कंधे और पैर बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद वे अकेले ही अपने उत्कृष्ट साहस को दिखाते हुए दुश्मन के छक्के छुडाते रहे और एक के बाद एक बंकर पर जीत हासिल करते रहे. खून से लथपथ और लहूलूहान होने के बावजूद कैप्टन मनोज पांडे ने 3 जुलाई – 1999 को वीरगति को प्राप्त करने से पहले दुश्मन के अंतिम बंकर को भी धराशायी कर उनका सर्वनाश किया.
उनके अंतिम शब्द थे “ना छोड़नु” उनको मत छोड़ो.
भारत माँ के इस वीर सपूत को मरणोत्तर परमवीर चक्र प्रदान किया गया.
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