1962 भारत-चीन युद्ध : सूबेदार जोगिंदर सिंह और उनके साथी सैनिक हथियार ख़त्म होने पर बंदूक की संगीन लेकर दुश्मन पर टूट पड़े.
20 अक्तूबर 1962 चीन और भारत बूमला मोर्चे पर अपनी अपनी फौजों के साथ आमने सामने आ गए. चीनी फौजें तावांग की ओर बढ रही थी. चीनी फौज की पूरी एक डिवीजन (10000 – 15000 सैनिक) थी. उसके सामने भारत की केवल 1 सिख कम्पनी (62 – 190 सैनिक) थी. इस कम्पनी की अगुवाई सूबेदार जोगिन्दर सिंह कर रहे थे. सूबेदार जोगिन्दर सिंह रिज नामक स्थान के पास नेफा (उत्तर-पूर्व सीमांत प्रदेश) में टोंग पेन में अपनी टुकड़ी के साथ तैनात थे.
सुबह साढ़े पाँच बजे चीन की फौजों ने बूमला पर जबरदस्त धावा बोल दिया. उनका इरादा टोवांग तक पहुँच जाने का था. दुश्मन की फौज ने तीन बार इस मोर्चे पर हमला किया. पहला हमला सूबेदार जोगिंदर सिंह की कम्पनी बहादुरी से झेल गई जिसमें चीन को कोई कामयाबी नहीं मिली. उसका भारी नुकसान भी हुआ और उसे रुक जाना पड़ा.
कुछ ही देर बाद दुश्मन ने फिर धावा बोला. उसका भी सामना जोगिन्दर सिंह ने बहादुरी से किया. ‘जो बोले सो निहाल…’ का नारा लगाते और दुश्मन का हौसले पस्त कर देते. लेकिन दूसरा हमला जोगिन्दर सिंह की आधी फौज साफ कर गया. सूबेदार जोगिन्दर सिंह खुद भी घायल थे. उनकी जाँघ में गोली लगी थी फिर भी उन्होंने रण मैदान छोड़ने से मना कर दिया. उनके नेतृत्व में उनकी फौज भी पूरे हौसले के साथ जमी हुई थी, हालाँकि उसमें भी सैनिक घायल हो चुके थे.
तभी दुश्मन की ओर से तीसरा हमला किया गया. अब तो सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने खुद हाथ में मशीनगन लेकर गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं . चीन की फौज का भी इस हमले में काफ़ी नुकसान हो चुका था, लेकिन वह लगातार बढ़ते जा रहे थे फिर स्थिति यह आई कि सूबेदार जोगिंदर सिंह ने आक्रमणकारियों को पीछे धकेल दिया. जोगिंदर सिंह के पास कोई हथियार नहीं बचा तो उसे पीछे हटने को कहा गया. लेकिन सूबेदार और उनके बचे हुए सैनिको ने अपनी बंदूक में लगी संगीन हाथ मे ले दुश्मन पर टूट पड़े और आगे बढ़ रहे दुश्मन का डटकर सामना किया. सूबेदार घायल हो गये और युद्धबंदी बना लिये गये. बाद में दुश्मन की हिरासत में ही सूबेदार जोगिंदर सिंह शहीद हो गये.
यह सच था कि वह मोर्चा भारत जीत नहीं पाया लेकिन उस मोर्चे पर सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने जो बहादुरी आखिरी पल तक दिखाई, उसके लिए उनको सलाम. सूबेदार जोगिन्दार सिंह दुश्मन की गिरफ्त में आ गए, उसके बाद उनका कुछ पता नहीं चला. चीनी फौजों ने न तो उनका शव भारत को सौंपा, न ही उनकी कोई खबर दी. इस तरह उनकी शहादत अमर हो गई। इस युद्ध में चीन के साथ लड़ते हुए भारत के चार पराक्रमी योद्धाओं ने परमवीर चक्र प्राप्त किए. इन चारों में से तीन को तो यह यश मरणोपरान्त मिला और केवल एक वीर सारी कथा को बताने के लिए जीवित बचा रहा.
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