भारत का स्वभाव धर्म है – डॉ. मनमोहन वैद्य

2019 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद वामपंथी खेमे के कहे जाने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे पूछा कि कांग्रेस की स्थिति ऐसी क्यों हुई? यह आकस्मिक प्रश्न था. मैंने प्रतिप्रश्न किया – कांग्रेस का पूरा नाम क्या है?

वे इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे. थोड़ा सोच कर उन्होंने कहा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.

मैंने कहा – भारतीय का अर्थ तो हुआ ‘सम्पूर्ण भारत व्यापी’ और भारत के लिए. फिर राष्ट्रीय का अर्थ क्या हुआ? वे कुछ बोल नहीं पाए.

मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भारतीय संदर्भ में ‘राष्ट्र’ का अर्थ ‘समाज’ होता है. भारतीय समाज की कुछ विशेषताएं हज़ारों वर्षों की सामाजिक यात्रा के कारण, उसकी पहचान बन गयी है. इस पहचान को बनाए रखना और पुष्ट करने का अर्थ है राष्ट्रीय होना.

कांग्रेस की स्थापना के करीब 20 वर्ष के बाद कांग्रेस ने ब्रिटिश विरोधी स्वतंत्रता आंदोलन का रूप लिया. तब कांग्रेस के सभी नेता इस राष्ट्रीय विचार के थे. इस राष्ट्र की यानि भारत के परम्परागत समाज की विशिष्ट पहचान, जो सदियों की सामूहिक यात्रा के कारण निर्माण हुई थी और अनेक आक्रमण तथा संघर्षों के बाद भी टिकी हुई थी, उसके साथ ये राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता गर्व के साथ खड़े थे.

भारत के व्यक्तित्व के चार लक्षण

भारत का माने भारत के समाज का एक वैचारिक अधिष्ठान है, जिसका आधार आध्यात्मिक (Spiritual) है. इस के कारण सदियों की ऐतिहासिक यात्रा के दौरान भारत का एक व्यक्तित्व बना है. और इसी आध्यात्मिकता के कारण भारत का एक स्वभाव बना है. भारत की विशाल एवं बृहत् भौगोलिक इकाई में रहने वाला, विविध जाति-पंथ-भाषा के नाम से जाना जाने वाला यह सम्पूर्ण समाज, भारत की इन विशेषताओं को सांझा करता है.

भारत के व्यक्तित्व के चार पहलू हैं. पहला है, “एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति”. ईश्वर के नाम और उन तक पहुँचने के मार्ग विभिन्न दिखने पर भी एक हैं, समान हैं. भारत ने अपने आचरण से यह सिद्ध किया है. इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने अपने शिकागो व्याख्यान में यह कहा था कि हम केवल सहिष्णुता नहीं, बल्कि सभी मार्गों को सत्य मानकर उनका सम्मान और स्वीकार करते हैं. आगे उन्होंने कहा कि मुझे यह कहते हुए गर्व महसूस हो रहा है कि मैं ऐसे देश से आया हूँ, जिसकी अपनी भाषा, संस्कृत में ‘Exclusion’ का पर्यायी शब्द ही नहीं है. दूसरा पहलू है, विविधता के मूल में रही एकता की अनुभूति करना. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि “अनेकता में एकता देखना और विविधता में ऐक्य प्रस्थापित करना, यही भारत का अंतर्निहित धर्म है. भारत विविधता को भेद नहीं मानता और पराए को दुश्मन नहीं समझता. इसीलिए, नए मानव समूह के संघात से हम भयभीत नहीं होंगे. उनकी विशेषता को पहचान कर, उसे सुरक्षित रखते हुए उन्हें अपने साथ लेने की विलक्षण क्षमता भारत रखता है.” तीसरी विशेषता यह कि, भारत मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति में, फिर स्त्री हो या पुरुष, ईश्वर का अंश है, और मनुष्य जीवन का लक्ष्य अपने अंतर्गत एवं बाह्य प्रकृति का नियमन कर, इस सुप्त ईश्वरत्व को अभिव्यक्त करना यह है. इसके लिए कर्म, भक्ति, ध्यान या ज्ञान इसमें से कोई भी एक अथवा अनेक अथवा सभी मार्गों का अनुसरण कर ‘मुक्त’ होना यह है. इसीलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ की कल्पना भारत ने की है. यहां अर्थ और काम का निषेध नहीं है; धर्म सम्मत मार्ग से उसका पूर्ण सम्पादन करते हुए ‘मुक्त’ होने को यहां पूर्ण या सार्थक जीवन माना गया है.

चौथा लक्षण, यहां प्रत्येक व्यक्ति को अपना अपना ‘मुक्ति’ का मार्ग चुनने का स्वातंत्र्य होना यह है. मेरी रूचि और प्रकृति के अनुसार मैं कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग, ध्यान अथवा ज्ञान मार्ग में से कोई भी एक अथवा अनेक या सभी का एकत्र उपयोग कर सकता हूँ. मेरी इच्छा, रुचि और क्षमता के अनुसार इन चारों मार्गों का मेरा सम्मिश्रण (Composition) चुनने का स्वातंत्र्य भारत मुझे देता है. इसीलिए यहाँ, भारत में, आध्यात्मिक लोकतंत्र (Spiritual Democracy) है.

इसके बाद की चर्चा जिन बिंदुओं पर बढ़ी वह भारत, इसकी पहचान, इसके स्वभाव और राष्ट्र शब्द की विस्तृत व्याख्याओं से जुड़े थे.

भारत का स्वभाव धर्म

भारत का स्वभाव धर्म है. यह धर्म ‘Religion’ अथवा उपासना नहीं है. अपनी संवेदनाओं का विस्तार करते हुए ‘अपनेपन’ का दायरा फैलाते हुए, जो अपने लगते हैं (जो रूढ़ार्थ से अपने नहीं है) उनके लिए, उनके भले के लिए कृति करना यह ‘धर्म’ है. ‘धर्म’ यह कोई चिन्ह धारण करना, कोई विशिष्ट पहचान धारण करना या उसका प्रदर्शन करना नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष कृति करना, आचरण करना धर्म कहा गया है. अंतर समझिए – मंदिर में जाना, भगवान की पूजा करना, व्रत करना इत्यादि धर्म नहीं, उपासना है. उपासना करने से धर्म का आचरण करने के लिए शक्ति मिलती है. इसलिए यह उपासना ‘धर्म’ के लिए है, ‘धर्म’ नहीं है. ‘धर्म’ तो समाज को अपना समझ कर देना है.

यह धर्म संकल्पना ‘भारत’ की है. भारत की प्रत्येक भाषा के अभिजात और लोकसाहित्य में इसका वर्णन विपुलता से मिलता है. भारत बाह्य किसी भी भाषा में इसके लिए पर्यायी शब्द नहीं है. इसीलिए अंग्रेजी में ’धर्म’ यही शब्द का प्रयोग करना ही ठीक होगा. इसे Religion कहना गलत है. उपासना के विभिन्न प्रकारों को Religion कह सकते है.

आंखें खोलिये और ‘मैं’ को छोटा कीजिये तो ‘हम’ का दायरा विस्तृत होते जाता है. इस ‘हम’ की परिधि विस्तृत होते होते, मेरे सिवाय मेरा कुटुंब, परिवार, सगे-सम्बन्धी, मित्र, गांव, जिला, राज्य, देश, मानव समाज, पशु-पक्षी, प्रकृति-निसर्ग, सम्पूर्ण चराचर सृष्टि ऐसा क्रमशः व्यापक होते जाता है.

ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्.

तेन त्यक्तेन भुन्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद धनम्॥

इस भाव और अनुभूति का आधार यही आध्यात्मिकता आधारित अपनापन है. पेड़-पौधे-वनचर सभी हमें अपने सगे लगने लगते है, यह भी इसी की अभिव्यक्ति है.

विद्या प्राप्त करने की इच्छा वालों को विद्या देना, प्यासे को पानी, भूखे को रोटी, निराश्रित को आश्रय, रोगी को दवाई देना ये सब धर्म कार्य माना गया है. इसीलिए धर्मशाला, धर्मार्थ अस्पताल ऐसे शब्द प्रचलित हैं. तीर्थ क्षेत्र में घाट बनवाना, तालाब बनवाना, रास्तों पर वृक्ष लगवाना, शारीरिक अक्षम लोगों को सहायता करना ये सब कर्त्तव्य भाव से करना ‘धर्म’ है. इसीलिए धर्म का एक वर्णन कर्तव्य भी कर सकते हैं. धर्म माने बिना भेदभाव परस्पर सहयोग से सामाजिक समृद्धि को बढ़ाना है.

भगिनी निवेदिता ने कहा है – जिस समाज में लोग, अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रखकर समाज को देते हैं, ऐसे समाज के पास एकत्र हुई पूंजी के आधार पर समाज संपन्न और समृद्ध बनता है और परिणामतः समाज का प्रत्येक व्यक्ति संपन्न-समृद्ध बनता है. परन्तु जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न दे कर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ लोग तो संपन्न और समृद्ध होते हैं, पर समाज दरिद्री रहता है.

जो सहायता करते समय भेदभाव करता है वह ‘धर्म’ हो ही नहीं सकता. धर्म समाज को जोड़ता है, जोड़े रखता है. इसीलिए धर्म की एक परिभाषा ‘जो धारणा करता है वह ‘धर्म’ है’  ऐसी भी की गयी है. धारणाद् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः. समाज से हम जितना लेते हैं, उससे अधिक समाज को लौटाने से धर्म वृद्धिंगत होता है. विवेकानंद केंद्र की प्रार्थना में एक श्लोक है –

जीवने यावदादानं स्यात्  प्रदानं ततोऽधिकम्.

इत्येषा प्रार्थनास्माकं भगवन् परिपूर्यताम्॥

(जीवन में जितना मैं प्राप्त करता हूँ, उससे अधिक मैं समाज को वापिस लौटा सकूँ यह मेरी प्रार्थना, हे भगवान! तू पूर्ण कर.)

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वदेशी समाज नामक अपने निबंध में यह स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि ‘Welfare State’ कल्याणकारी राज्य यह भारतीय संकल्पना नहीं है. वे आगे कहते हैं – जो समाज अपनी आवश्यकताओं के लिए राज्य पर कम से कम अवलम्बित होता है, वह ‘स्वदेशी समाज’ है. इसलिए भारत में सामाजिक (initiative) पहल तथा सामाजिक सहभागिता का महत्त्व है. इसकी व्यवस्था धर्म करता रहा है. इसीलिए अपना समाज धर्माधिष्ठित था और रहेगा. धर्मनिरपेक्ष नहीं.

धर्मचक्रप्रवर्तनाय

भारत के संविधान निर्मिति के समय संविधान समिति के सदस्यों को इस ‘धर्म’ तत्व का योग्य आंकलन तथा जानकारी थी, ऐसा स्पष्ट दिखता है. इसीलिए सर्वोच्च न्यायलय का बोधवाक्य यतो धर्मस्ततो जयः यह है. लोकसभा में धर्मचक्र प्रवर्तनाय ऐसा लिखा है. राज्य सभा में सत्यं वद धर्मं चर. यह लिखा है. केवल यही नहीं. अपने राष्ट्रध्वज पर जो चक्र अंकित है, वह ‘धर्म चक्र’ है. चक्र घूमते रहने के लिए ही होता है. उसके घूमते रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ‘धर्म’ आचरण करना, सम्पूर्ण समाज एक है, मेरा अपना है यह मान कर किसी भी प्रकार का भेदभाव किये बिना समाज देते रहना, आवश्यक है. ऐसा प्रत्येक कार्य छोटा सा भले क्यों न हो, धर्मचक्र को घूमता रखने के लिए सहायक है और हरेक को यह करना चाहिए.

1988 में गुजरात के कुछ हिस्से में भीषण अकाल था. मैं तब वड़ोदरा में प्रचारक था. अकालग्रस्त क्षेत्र में भेजने के लिए ‘सुखड़ी’, एक पौष्टिक पदार्थ, घर-घर बनवाकर संघ कार्यालय में एकत्र हो रहा था. एक दिन एक वृद्धा-भिखारन लकड़ी के सहारे चलते हुए वहाँ आयी. वहां कार्यकर्ता ने उससे जब पूछताछ की तो क्षीण आवाज में उसने कहा ‘सुखडी’! उस कार्यकर्ता ने उसे कहा माताजी! यह सुखड़ी, उधर अकालग्रस्त विस्तार में भेजने के लिए है, यहाँ के लिए नहीं है. तब उस वृद्धा ने अपनी साड़ी में समेटी एक पुड़िया निकाल कर देते हुए कहा – बेटा! मैं मांगने नहीं, देने के लिए आयी हूँ.

अपनी दिनभर की भिक्षा में से थोड़ी सुखड़ी बनाकर वह देने के लिए आई थी. ऐसे छोटे छोटे कृत्यों द्वारा धर्म पुष्ट होता है और धर्मचक्रप्रवर्तन होता रहता है.

कुछ वर्ष पूर्व तमिलनाडु के तिरुपुर शहर में ‘सक्षम’ संस्था द्वारा केंद्र सरकार की सहायता से एक दिव्यांग सहायता शिविर आयोजित हुआ था. ’सक्षम’ दिव्यांग लोगों के लिए उनके बीच कार्य करने वाली संघ प्रेरित संस्था है. दिव्यांगों को सहायता और साधन देने हेतु इस शिविर का आयोजन हुआ था. सहायता देने हेतु शारीरिक परीक्षण का कार्य चल रहा था और सैकड़ों दिव्यांग बंधु-भगिनी बस स्थानक से वहां आ रहे थे. उन्हें लेकर आने वाले एक ऑटो चालक ने जब थोड़ा अंदर झांक कर देखा तो उसकी संवेदना जागी. उसने शिविर में आने वाले दिव्यांगों को दिन भर मुफ्त सेवा दी.

राष्ट्र का हिन्दू होना

यह जो भारत का वैचारिक अधिष्ठान, उसके कारण बना हुआ उसका व्यक्तित्व और उसका स्वभाव है, इसे दुनिया ‘हिन्दुत्व’ के नाम से जानती है. इसलिए भारत की, भारतीय समाज की माने इस राष्ट्र की पहचान दुनिया में ‘हिन्दू’ यह है. इस अर्थ से यह समाज माने राष्ट्र हिन्दू है. इसलिए यह हिन्दू राष्ट्र है. यह हिन्दुत्व सबको जोड़ने वाला, सबको साथ लेकर चलने वाला, किसी भी प्रकार का भेदभाव न करने वाला ऐसा ही रहा है और आगे भी रहने वाला है. हिन्दुत्व इस राष्ट्र का विशेषण है. हिन्दुत्व सभी भारतीयों के व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक जीवन में अभिव्यक्त होना, सहज आचरण में आना, माने इस राष्ट्र का ‘हिन्दू’ होना है. सामाजिक समृद्धि को बढ़ाते हुए उसका विनियोग किसी भी प्रकार के भेदभाव किये बिना सभी ज़रूरतमन्द लोगों के लिए होता रहे, ऐसा धर्म आचरण करना ही हिन्दू राष्ट्र बनना है.

जिन पूर्वज, पराक्रमी पुरुष, समाज सुधारक, साधु-संतों के कारण, अनेक संघर्ष एवं आक्रमणों का सामना करता हुआ यह राष्ट्रीय प्रवाह अबाधित प्रवाहित होता रहा, उनका सम्मान करना, यह ‘हिन्दू’ होना है.

जिस भारत की पवित्र भूमि में यह श्रेष्ठ विचार उत्पन्न हुआ, स्थिर हुआ, दृढ़ हुआ और यह श्रेष्ठ संस्कृति विकसित हुई, उस भारत भूमि को ‘मातृवत्’ मानकर भारत की भक्ति करना, यह ‘हिन्दू’ होना है. यह कार्य किसी भी राजनैतिक सत्ता या सरकार का नहीं है, तो समाज के प्रत्येक घटक का है.

सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः.

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्‍चित् दुःखमाप्नुयात्॥

इसमें ‘अपि’ में, बाल, वृद्ध, रुग्ण, अशक्त, गुणहीन ये सब आते हैं. ये सभी सुखी हों, इसकी गारंटी ‘धर्म‘ देता है, जिसका प्रत्येक को आचरण करना है.

राष्ट्रीय होना

भारत का समूचा समाज एक है, मेरा-अपना है. सभी समान है और मुझे मेरे समाज को कर्तव्यभाव से, अपना समझ कर देते रहना है, ऐसा विचार करना और वैसा आचरण करना, माने  राष्ट्रीय होना – हिन्दू होना है. हम हिन्दू होने के कारण, यह समाज माने राष्ट्र ‘हिन्दू’ है, यह कालातीत सत्य है. हमारा हिन्दू राष्ट्र है, ऐसा उद्घोष करने का यही अर्थ है. इस में किसी का अधिक्षेप, अपमान होने का, किसी के भयग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता है.

विविधता से सम्पन्न, अनेक भाषा बोलने वाला, विविध उपासना पंथों का अनुसरण करने वाला भारत का यह राष्ट्रीय समाज, हम सब एक है, विविधता यह भेद ना हो कर हमारा वैशिष्ट्य है, ऐसा मान कर, विश्व में आनंद, सौहार्द और सामंजस्य के साथ सैकड़ों वर्षों से रह रहा है.

आवागमन के तथा संदेश व्यवहार के आधुनिक साधनों के कारण अब दुनिया बहुत क़रीब आ गयी है. दुनिया में भाषा, वंश, उपासना (रिलिजन) विचार का वैविध्य रहने वाला ही है. इस विविधता के मूल में रही एकता को देखने की दृष्टि भारत के पास है. कारण ईशावास्यमिदं’ यह भारत का ‘घोषवाक्य’ है. ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः और मा गृधः यह आचरणसूत्र है. इसी के कारण ‘धर्म’ के बलवान बन कर सभी के सुख का प्रावधान हो सकता है.

भारत शतकों से ऐसा जीता आ रहा है. इसीलिए, वसुधैव कुटुम्बकम् और विश्वम् भवत्येक नीडम् यह भारत ने प्रस्थापित किया है. भारत अपने हिन्दुत्व का पूर्ण आचरण करते हुए इसका उदाहरण प्रस्तुत करेगा कि वैविध्यपूर्ण व विश्वव्यापी मानव समूह के लिए सौहार्द और सामंजस्य के साथ एकत्र कैसे जी सकते हैं, चल सकते हैं. यह भारत का कर्तव्य और दुनिया की आवश्यकता भी है. ऐसा भारत गढ़ना माने भारत विश्वगुरु बनना है. ‘गुरु’ केवल घोषणा करने से नहीं, पर आचरण से सिद्ध होता है. इस श्रेष्ठतम कार्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगा हुआ है. यही संघ का उद्देश्य और अस्तित्व का कारण भी है. संघ के आरम्भ के एक प्रचारक ने, संघ के बारे में जो कहा वह अत्यंत सार्थक और सारगर्भित है. उन्होंने कहा – RSS is the evolution of the life mission of this Hindu nation. (इस हिन्दू राष्ट्र का माने हिन्दू समाज का जीवन दायित्व पूर्ण करने हेतु उसे सक्षम एवं विकसित करने का कार्य है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ.)

राष्ट्रीय या राष्ट्रवादी

इस “राष्ट्रीय” होने को कुछ लोग “राष्ट्रवादी” होना ऐसा भी कहते हैं, जो अनुचित है. राष्ट्रवाद यह शब्द और संकल्पना भारतीय नहीं है. पश्चिम में 16वीं शताब्दी में जो राष्ट्र संकल्पना निर्मित हुई वह भारतीय ‘राष्ट्र’ संकल्पना से एकदम भिन्न है. वहाँ, राष्ट्र (Nation) राज्याधारित है और उन्होंने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध, आक्रमण, अत्याचार-हिंसा की है. भारतीय ‘राष्ट्र’ संकल्पना राज्याधारित नहीं, समाजाधारित है, जिसका आधार एक संस्कृति अथवा समान जीवनदृष्टि यह है. इसीलिए राज्यकर्ता अनेक और विविध होने के बावजूद यह समाज माने यह राष्ट्र अपनी जीवनदृष्टि के आधार पर सांस्कृतिक दृष्टि से एक है. इसीलिए यहां राष्ट्रीयता (Nationality) है; राष्ट्रवाद (Nationalism) नहीं है. हम राष्ट्रीय (National) हैं, माने हिन्दू हैं; राष्ट्रवादी(Nationalist) नहीं.

स्वातंत्र्यपूर्व काल में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बहुतांश नेता और असंख्य कार्यकर्ता इसी “राष्ट्रीय” वृत्ति के थे. आगे कांग्रेस में, साम्यवाद का प्रभाव बढ़ने से, इस “राष्ट्रीय” नेतृत्व को हाशिये पर धकेलने की वृत्ति बढ़ती गयी. 1969 के कांग्रेस पार्टी के विभाजन से यह प्रक्रिया पूर्ण हो कर साम्यवादी विचारों के पूर्ण प्रभाव में, किसी भी प्रकार से सत्ता में आना अथवा सत्ता में बने रहने की दिशा में, कांग्रेस की यात्रा शुरू हुई. इसी कालखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अनेक लोकनेता और साधु-संतों के प्रयास से “राष्ट्रभाव” जागरण का कार्य अधिक गति से हुआ और उसका प्रभाव समाज में दिखने लगा. एक तरफ “राष्ट्रीय” जागरण हो रहा था, जिसके परिणामस्वरूप समाज जाति, पंथ, प्रान्त, भाषा आदि पहचानों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि से विचार और आचरण करने लगा तो दूसरी तरफ, कांग्रेस जाति, पंथ, प्रान्त, भाषा आदि विविधताओं को भेद की तरह प्रस्तुत कर, भावना भड़का कर सत्ता में टिके रहने या सत्ता प्राप्त करने के प्रयासों में उलझी रही. इसके फलस्वरूप, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘राष्ट्रीयता” से किनारा कर दिया, और राष्ट्र जागरण होने से “राष्ट्रीय – जागृत” जनता ने राष्ट्रीयता से दूर हुई कांग्रेस को किनारे लगा दिया. इस लेख के प्रारम्भ में वामपंथी विचार के एक वरिष्ठ संपादक द्वारा पूछे प्रश्न ‘कांग्रेस की स्थिति ऐसी क्यों हुई’ का उत्तर यही तो है.

डॉ. मनमोहन वैद्य

सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

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