डॉ. विधानचन्द्र राय का जन्म बिहार की राजधानी पटना में एक जुलाई1882 को हुआ था। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि विधानचन्द्र राय की रुचि चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन में थी। भारत से इस सम्बन्ध में शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए लन्दन गये।
लन्दन मैडिकल क१लिज की एक घटना से इनकी धाक सब छात्रों और प्राध्यापकों पर जम गयी। डा. विधानचन्द्र वहाँ एम.डी. कर रहे थे। एक बार प्रयोगात्मक शिक्षा के लिए इनके वरिष्ठ चिकित्सक विधानचन्द्र एवं अन्य कुछ छात्रों को लेकर अस्पताल गये। जैसे ही सब लोग रोगी कक्ष में घुसे, विधानचन्द्र ने हवा में गन्ध सूँघते हुए कहा कि यहाँ कोई चेचक का मरीज भर्ती है।
इस पर अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सकों ने कहा, यह सम्भव नहीं है;क्योंकि चेचक के मरीजों के लिए दूसरा अस्पताल है, जो यहाँ से बहुत दूर है। विधानचन्द्र के साथी हँसने लगे; पर वे अपनी बात पर दृढ़ रहे। उन दिनों चेचक को छूत की भयंकर महामारी माना जाता था। अतः उसके रोगियों को अलग रखा जाता था।
इस पर विधानचन्द्र अपने साथियों एवं प्राध्यापकों के साथ हर बिस्तर पर जाकर देखने लगे। अचानक उन्होंने एक बिस्तर के पास जाकर वहाँ लेटे रोगी के शरीर पर पड़ी चादर को झटके से उठाया। सब लोग यह देखकर दंग रह गये कि उस रोगी के सारे शरीर पर चेचक के लाल दाने उभर रहे थे।
लन्दन से अपनी शिक्षा पूर्णकर वे भारत आ गये। यद्यपि लन्दन में ही उन्हें अच्छे वेतन एवं सुविधाओं वाली नौकरी उपलब्ध थी; पर वे अपने निर्धन देशवासियों की ही सेवा करना चाहते थे। भारत आकर वे कलकत्ता के कैम्पबेल मैडिकल क१लिज में प्राध्यापक हो गये। व्यापक अनुभव एवं मरीजों के प्रति सम्वेदना होने के कारण उनकी प्रसिद्धि देश-विदेश में फैल गयी।
मैडिकल कॉलिज की सेवा से मुक्त होकर उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया। इसके बाद भी वे प्रतिदिन दो घण्टे निर्धन रोगियों को निःशुल्क देखते थे। बहुत निर्धन होने पर वे दवा के लिए पैसे भी देते थे।
डा. विधानचन्द्र के मन में मानव मात्र के लिए असीम सम्वेदना थी। इसी के चलते उन्होंने कलकत्ता का वैलिंग्टन स्ट्रीट पर स्थित अपना विशाल मकान निर्धनों को चिकित्सा सुविधा देने वाली एक संस्था को दान कर दिया। वे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भी निजी चिकित्सक थे। 1916 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय की सीनेट के सदस्य बने। इसके बाद 1923 में वे बंगाल विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए। देशबन्धु चित्तरंजन दास से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता के संघर्ष में भी वे सक्रिय रहे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों में विधानसभाओं का गठन हुआ। डा. विधानचन्द्र राय के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के व्यापक अनुभव एवं निर्विवाद जीवन को देखते हुए जनवरी 1948 में उन्हें बंगाल का पहला मुख्यमन्त्री बनाया गया। इस पद पर वे जीवन के अन्तिम क्षण (एक जुलाई, 1962) तक बने रहे।
मुख्यमन्त्री रहते हुए भी उनकी विनम्रता और सादगी में कमी नहीं आयी। नेहरू-नून समझौते के अन्तर्गत बेरूबाड़ी क्षेत्र पाकिस्तान को देने का विरोध करते हुए उन्होंने बंगाल विधानसभा में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कराया।
डॉ. विधानचन्द्र राय के जीवन का यह भी एक अद्भुत प्रसंग है कि उनका जन्म और देहान्त एक ही तिथि को हुआ। समाज के प्रति उनकी व्यापक सेवाओं को देखते हुए 1961 में उन्हें देश के सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न’से सम्मानित किया गया।