मानव के आचरण को परिभाषित करने वाले मानव धर्म को ही हिन्दू धर्म कहते हैं : श्री मोहनजी भागवत

साभार : भोपाल (विसंके) 

1964 से 1989 तक लगातार 25 वर्ष एक गृहस्थ प्रचारक के रूप में भाऊ साहब भुस्कुटे मध्यक्षेत्र प्रचारक रहे. उस समय उत्कल प्रांत भी संघ कार्य की दृष्टि से मध्य क्षेत्र में समाहित था. टिमरनी में विगत 23 वर्षों से भाऊसाहब भुस्कुटे व्याख्यान माला जारी है, और सतत् वर्धिष्णु है. भाऊ साहब द्वारा लिखित पुस्तक “हिन्दूधर्म- मानव धर्मं” पुस्तक के तीसरे संस्करण का लोकार्पण व विमोचन प.पू. सरसंघचालक मोहन राव जी भागवत द्वारा किया गया. इस पुस्तक में भाऊ साहब के विचारों के अतिरिक्त वरिष्ठ प्रचारक रंगाहरी जी के भी दो लेख हैं.

पुस्तक के विमोचन अवसर सरसंघचालक जी ने कहा कि मुझे 19 वर्ष पूर्व भी आयोजन में आने का अवसर मिला था. अच्छी चीजों को जानना मानव जीवन को उन्नत करता है. इस दृष्टि से आयोजित होने वाले कार्यक्रम के आयोजक व वर्धिष्णु श्रोतागणों का मैं अभिनन्दन करता हूँ. इस सद्प्रवृत्ति को नमस्कार. आप सब जानते हैं कि पारदर्शिता, प्रामाणिकता व अध्ययनशीलता भाऊ साहब की विशेषता थी. ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी के साथ सत्यनिष्ठा को जीवन आधार बनाकर लोकसेवा को समर्पित वह जीवन एक प्रकाश पुंज है. जब मैं पढ़ता था तो एक विषय था “जनरल प्रोपर्टीज ऑफ़ मेटर”- सामान्य वस्तु धर्म. विद्युत्, ध्वनि, अग्नि, वायु आदि के गुणधर्म अर्थात स्वभाव की उसमें चर्चा थी. पानी का धर्म बहना, अग्नि का धर्म जलाना, तो धर्म का पहला अर्थ हम अनजाने में ही स्वभाव को मानते हैं.

सामान्यतः धर्म का अर्थ कर्तव्यपालन को माना जाता है. माता पिता की सेवा हमारा कर्तव्य है, प्रजा का पालन करना राजा का कर्तव्य है, पढ़ाई करना छात्र का धर्म है. धर्म का अर्थ ढूंढने जायें तो ग्रंथों में बहुत सी बातें मिलती हैं. अभ्युदय अर्थात भौतिक जीवन की उन्नति, जिसे आजकल की भाषा में विकास कहते हैं- जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख सुविधा, सम्पन्नता इसे अभ्युदय कहा गया है. बहुत से लोग मानते हैं कि इस जीवन के साथ परलोक भी है. वहां भी शान्ति की कामना को निःश्रेयस कहा गया.अतः कहा गया कि अभ्युदय के साथ निःश्रेयस की सिद्धि धर्म है. धर्म जो सबको टिकाये रखता है. धारणात धर्म इत्याहू, धर्मो धारयते प्रजा. सृष्टि में जीवन चल रहा है, उसका कारण धर्म है.

सामान्य लोगों की भाषा में जो शब्द आते हैं, वे अनुभव से आते हैं, अतः परंपरा से स्वभाव व कर्तव्य को धर्म माना जाता है, वह भी गलत नहीं हो सकता. शास्त्र जो कहते हैं, वह भी सत्य ही है. इहलोक और परलोक में सबको उन्नति और सुख मिले, उस हेतु कर्तव्य पालन धर्म है.

इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख, शैव, वैष्णव, शाक्त ये सब धर्म के विशेषण हैं, जो पूजा पद्धति का निर्देश करते हैं. इस्लाम अर्थात कुरान के अनुसार चलना, मोहम्मद साहब को आख़िरी पैगम्बर मानना. इसी प्रकार ईसाई अर्थात बाईबिल को ही मानना और सातवें आसमां में बैठे गॉड में आस्था रखना. इसी प्रकार शैव हैं तो केवल शिव को ही मानना, वैष्णव हैं तो केवल विष्णु को ही मानना. महाराष्ट्र के पंढरपुर में एक शिवभक्त सुनार रहा करता था. शैव था तो विष्णु का नाम भी सुनना गवारा नहीं, उनकी मूर्ति को भी नहीं देखना. उसकी दृष्टि में शिव की भक्ति अर्थात विष्णु की भक्ति नहीं करना. एक बार बिट्ठल की मूर्ति के लिये सोने का कमरपट्टा बनवाने की बात हुई, तो अच्छे सुनार के नाते इन्हें बुलाया गया. अब इनका तो निश्चय था कि विष्णु की मूर्ति को नहीं देखना, तो आँखों पर पट्टी बांधकर गये. जब कमर पट्टे का नाप लेने को हाथ रखा तो लगा वहां तो शिव की कमर में जैसे नाग रहता है, वैसा है. उन्हें लगा कि यह तो शिव की ही मूर्ति है. पट्टी हटाई और देखा तो सामने विष्णु की ही मूर्ति दिखाई दी. ऐसा कई बार हुआ. आँखे बंद करके देखें तो शिव मालूम पड़ें और आंख खोलकर देखें तो बिट्ठल अर्थात विष्णु.उनको समझ में आ गया कि दोनों में कोई अंतर नहीं है.

पूजा पद्धति से धर्म को कसौटी पर नहीं कसा जा सकता. हिन्दू धर्म की बात करें तो यहां कोई एक देवता, एक ऋषि या संत नहीं है. विवेकानंद ने तो यहां तक कहा कि जो भगवान पर विश्वास नहीं करता, मेरी दृष्टि में वह नास्तिक नहीं. जिसका खुद पर भरोसा नहीं वह नास्तिक है. हमारे यहां धर्म शब्द की जो व्याख्या की गई वह है –

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम.

तुलसीदास जी ने भी लिखा – परहित सरिस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई. यहाँ पूजा पद्धति का तो कोई उल्लेख भी नहीं है. भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त दूसरी किसी भाषा में धर्म की परिकल्पना का कोई दूसरा शब्द नहीं है. यहां तो पशु पक्षी का भी धर्म है. राजा दिलीप नंदिनी गाय की सेवा करते थे. उसे चराने एक बार जंगल में गये. वहां एक सिंह उसे खाने को दौड़ा, राजा ने रोका तो सिंह ने कहा तुम राजा हो और मैं आपकी प्रजा. मेरा धर्म है भूख लगने पर जंगल में रहने वाले पशु को खाना. आप राजा होकर मुझे मेरा धर्म पालन करने से रोक रहे हो. राजा ने कहा कि ठीक है तुम्हारा धर्म है भूख मिटाना तो मेरा धर्म है गाय की रक्षा करना. तुम ऐसा करो कि मुझे खाओ. तुम्हारा भी धर्म रह जाएगा और मेरा भी. सिंह अपने वास्तविक स्वरुप में प्रगट हुआ और राजा को वरदान दिया. इसी प्रकार राजा शिवी भी कबूतर को बचाने के लिये उसके वजन के बराबर मांस बाज को देने के नाम पर अपना जीवन देने को तत्पर हो गये.
ये कथाएं घटी या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है, इसमें निहित धर्म की परिकल्पना क्या है, वह महत्वपूर्ण है. पूजापद्धति तो धर्म का एक छोटा हिस्सा भर है. अंग्रेजी के रिलीजन शब्द से इसके भाव की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती. धर्म वह जिससे सुख प्राप्त हो, जो सारी दुनिया को चाहिये. स्वभाव के विरुद्ध सुख नहीं होता. सारी दुनिया मन के अनुकूल भावना को सुख तथा प्रतिकूल वेदना को दुःख मानती है. सुख खोजने पर मिल भी जाता है, किन्तु मिला-मिला कहते-कहते खो भी जाता है. जाड़े में रजाई ओढ़कर पलंग पर पड़े हैं, जब चाहे चाय पकौड़े मिल जायें, यह सुख प्रतीत होता है, किन्तु क्या चौबीसों घंटे पड़े रह सकते हैं ? रसगुल्ले अच्छे लगते हैं, किन्तु क्या सौ, दो सौ, हजार खाए जा सकते हैं ? अगर सीमा से ज्यादा रसगुल्ला खिलाने की कोशिश हो तो सुख की जगह दुःख हो जायेगा. अगर रसगुल्ला खाने से सुख मिलता तो एक खाओ या हजार, हमेशा सुख की अनुभूति होनी चाहिये थी, जो सदैव टिके वह सुख.

इच्छा की पूर्ति करने का प्रयत्न सब करते हैं, करना भी चाहिये. हमारे यहां इसे कहा गया “काम पुरुषार्थ”. इच्छाएं पूरी करनी हैं तो कमाई करनी होगी, अर्थार्जन करना होगा. यह हुआ “अर्थ पुरुषार्थ”. मनुष्य ही क्यों प्राणीमात्र यह पुरुषार्थ करते ही हैं. आहार निद्रा भय मैथुनं च, यह सबका लक्षण है. बिना किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में गये बया पक्षी घोंसला बनाती है, मधुमक्खी छत्ता बनाती है. अंतत सब इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इस चक्र से मुक्त हो जाओ अर्थात मोक्ष की इच्छा. इसको कहते हैं “मोक्ष पुरुषार्थ”. किन्तु एक कष्ट है कि ये तीनों एक साथ नहीं मिलते. राजा मानसिंह को तन का सुख चाहिये था तो उसने अकबर की चाकरी स्वीकार की, प्रताप को मन का सुख भला लगा तो घास की रोटी खाई. मुक्त होना है तो सुख छोड़ने पड़ेंगे. एक क्लर्क थे, परमानेंट हो चुके थे. सुबह ठीक 11 बजे ऑफिस जाना, कुर्सी पर बैठना और सोना, शाम ठीक 5 बजे उठकर घर जाना, उनका क्रम था. कोई काम धंधा करना नहीं. एक बार किसी ने कहा, कुछ काम करिये, जिससे प्रमोशन हो, रिटायरमेंट के बाद पेंशन ज्यादा मिलेगी, बुढापे में चैन से सोना. कहा कि वह तो मैं आज भी कर रहा हूँ. क्या जरूरत है फालतू झमेले की.

अगर किसी को कहा जाये कि रसगुल्ले खाओ तो वो हाँ कहेगा. किन्तु अगर कहा जाये हर रसगुल्ले के साथ सर पर एक जूता भी खाना पड़ेगा, तो कौन तैयार होगा ? तन और मन दोनों का सुख चाहिये. कभी किसी ने सुना है कि किसी पशु ने आत्महत्या की ? उसका तो एक ही लक्ष्य है – मरते दम तक जीना. केवल मनुष्य ऐसा प्राणी है जो सोचता है. मृत्यु के बाद क्या होगा, यह सोचता है. मैं प्रश्न पूछता हूँ, शंका करता हूँ, इसलिये मैं हूँ. इसीलिये मनुष्य मुक्ति का, मोक्ष का विचार करता है. इस सतत खोज के परिणाम स्वरुप यहां धर्म का जन्म हुआ. हाड़ मांस के हम, उपभोग की शक्ति सम्पन्नता इसे छान्दोग्य उपनिषद् में आसुरी वृत्ति बताया गया.

अर्थ, काम, मोक्ष तीनों की साधना करने वाले तुम अमरत्व के पुत्र हो, कभी नहीं मरते. उस शास्वत सत्य को जान लेने वाले शास्वत सुख पाते हैं. अमर शास्वत आत्मा ही विश्वात्मा परमात्मा है. उस एक से सब निकले हैं. अतः उस एक को जानो. उस एक को नहीं जानोगे तो सबको सुख कैसे मिलेगा. फिर तो बलशाली सुखी और निर्बल सदा दुखी रहेगा. जहां लड़ाई झगड़ा होता रहेगा, वहां कोई सुखी नहीं रह सकता. युद्ध में क्या सैनिक ही मरते हैं ? प्रजा भी शिकार बनती है. हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाले की भी हालत खराब हो जाती है. ब्रिटेन के विषय में कहा जाता था, कि उसके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता. किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इंग्लेंड इतना कमजोर हो गया कि उसके सारे उपनिवेश एक एक कर स्वतंत्र हो गये. इतना ही नहीं तो आज वह स्वयं अमेरिका की दया पर आश्रित है.

विकास बहुत हुआ, पर पर्यावरण बिगाड़ दिया. हम ही रहें, शेष कोई न रहे, हम सबसे बड़े हो जायें, हमारी दया पर सब आश्रित हों, अगर यही सोच रही तो सारी सृष्टि और उस पर जीवन समाप्त हो जायेगा. ऋषियों ने कहा सबमें एक ही तत्व है. विविधता से सजी यह पृथ्वी एक का ही रूप है. उसे जानो. दुनिया में अन्यत्र मान्यता है – अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक भला. हमारे यहां कहा गया – “सर्वे भवन्तु सुखिनः”.संघर्ष नहीं, समन्वय. अपना भला पर दूसरों का बुरा, तो उसे त्यागना. सब लोग अपना कर्तव्य पालन करें. अर्थ के पीछे भागना नहीं. संयमित उपभोग. मुक्ति के भी नियम हैं. सन्यासी के भी नियम- संग्रह नहीं, भिक्षा मांगना, एक स्थान पर नहीं टिकना आदि. कौशिक नाम के ऋषि के क्रोध से चिड़िया भस्म हो गई. किन्तु कर्तव्य परायण गृहिणी का कुछ नहीं बिगड़ा. इतना ही नहीं उसने लताड़ा भी कि क्या मुझे चिड़िया समझा है ? ऋषि को अचम्भा हुआ कि इन्हें वह घटना कैसे मालुम हुई. पूछा तो धर्मव्याध के पास जाने को कहा. एक खटीक मुझे क्या शिक्षा देगा, सोचते ऋषि उसके पास पहुंचे, किन्तु उसने पहले माता पिता की सेवा की, फिर इनसे कहा कि पूछो क्या पूछना है. इन्हें फिर अचम्भा हुआ कि इसे कैसे मालूम कि मैं कुछ पूछने आया हूँ. कर्तव्य पालन से सिद्धि.

अपनी जरूरतें कम करने से ही दूसरों की जरूरतें पूरी होंगी. यही शास्वत धर्म है. विविधता में एकता देखना, सबको साथ चलाना, सबके साथ चलना, त्याग और संयम को सीखना, इसे ही धर्म कहते हैं. यही युग धर्म भारत में पहचाना गया. धर्म पहले से था, इसलिये शास्वत, पहचाना हमारे यहां गया. मानव के आचरण को परिभाषित करने वाले मानव धर्म को ही हम हिन्दू धर्म कहते हैं. यह नियम केवल भारत में ही नहीं वरन पूरे विश्व पर लागू होते हैं, अतः यह विश्व धर्म है. इसे हमारे यहां केवल कहा ही नहीं गया, बल्कि आचरण में उतारकर दिखाया गया. सारी दुनिया में इसी कारण इसको नमन किया गया.

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