आदरणीय प्रमुख अतिथि महोदय, निमंत्रित विशिष्ट अतिथिगण, नागरिक सज्जन माता भगिनी, माननीय संघचालक गण एवं आत्मीय स्वयंसेवक बंधु,
अपने पवित्र संघकार्य के 90 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् युगाब्द 5118 अर्थात् ई. स. 2016 का यह विजयादशमी उत्सव एक वैशिष्ट्यपूर्ण कालखण्ड में संपन्न हो रहा है. स्व. पंडीत दीनदयाल जी उपाध्याय की जन्मशती के संबंध में पिछले वर्ष ही मैंने उल्लेख किया था. वह 100वाँ वर्ष पूरा होने के बाद इस वर्ष भी उनके जन्मशती के कार्यक्रम चलने वाले है. यह वर्ष अपने इतिहास के कुछ और ऐसे महापुरुषों के पुनःस्मरण का वर्ष है, जिनके जीवन संदेश के अनुसरण की आवश्यकता आज की परिस्थिति में हम सबको प्रतीत होती है.
यह वर्ष आचार्यश्री अभिनवगुप्त की सहस्राब्दी का वर्ष है. वे शैवदर्शन के मूर्धन्य आचार्य तथा साक्षात्कार प्राप्त संत थे. ‘‘प्रत्यभिज्ञा’’ संज्ञक दार्शनिक संकल्पना के प्रवर्तन के साथ-साथ उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के अविष्कार से काव्य, नाट्य, संगीत, भाषा, ध्वनिशास्त्र आदि लौकिक जीवन के पहलुओं में अत्यन्त समर्थ, प्रमाणभूत व शाश्वत परिणाम करने वाले हस्तक्षेप किये है. ‘ध्वनि’ के विषय में उनकी तात्विक विवेचना, परमतत्व की अनुभूति तक ले जाने की ‘ध्वनि’ शक्ति का विवेचन तो मात्र दर्शनशास्त्री ही नहीं, आधुनिक संगणक वैज्ञानिकों के भी गहन अध्ययन का विषय बना है. परन्तु उनकी जीवन तपस्या का सबसे महत्वपूर्ण कार्य अपने देश की विविधता में एकता का दर्शन कराने वाली सनातन संस्कृति धारा को कश्मीर की भूमि से पुनःप्रवर्तित करना. स्वयं शैव दर्शनधारा के उपासक होते हुए भी उन्होंने मत संप्रदायों का भेद न करते हुए, सभी का आदरपूर्वक अध्ययन करते हुए सभी से ज्ञान प्राप्त किया. प्रेम व भक्तिपूर्ण समन्वय की दृष्टि तथा पवित्र आचरण का सन्देश स्वयं के जीवन तथा उपदेशों से देकर वे कश्मीर में बडगाँव के पास बीरवा की भैरव गुफा में शिवत्व में लीन हो गये.
दक्षिण के प्रसिद्ध संत ‘श्रीभाष्य’कार श्री रामानुजाचार्य की भी यह सहस्राब्दि है. दक्षिण से दिल्ली तक पदयात्रा कर सुल्तान के दरबार से अपने आराध्य की उत्सवमूर्ति वे निकालकर ले आये तथा मूर्ति की भक्त बनी सुल्तान कन्या को भी मेलकोटे के मन्दिर में स्थान दिया. जातिपंथ के भेदभावों का पूर्ण निषेध करते हुए समाज में सभी के लिए भक्ति व ज्ञान के द्वार खोल दिये. सामाजिक समता को प्रतिष्ठित करते हुए जीवन में धर्म के संपूर्ण व निर्दोष आचरण के द्वारा संपूर्ण देश में समता व बंधुता का अलख जगाया.
देश, समाज व धर्म की रक्षा हेतु ‘‘मीरी व पीरी’’ का दोधारी बाना अपनाते हुए स्वाभिमान की रक्षा व पाखंड का ध्वंस करने वाले दशमेश श्री गुरुगोविंद सिंह जी महाराज के जन्म का 350वाँ वर्ष मनाने जा रहा है. देश धर्म के हित में सर्वस्व समर्पण व सतत संघर्ष का उनका तेजस्वी आदर्श स्मरण करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी ने भी लाहौर के उनके प्रसिद्ध भाषण में हिन्दू युवकों को उस आदर्श का अनुसरण करने का परामर्श दिया था.
यह वर्ष प्रज्ञाचक्षु श्री गुलाबराव महाराज का भी जन्मशती वर्ष है. संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज की स्वयं को ‘कन्या’ कहते हुए, परिश्रमपूर्वक स्वदेश तथा विदेश के आध्यात्मिक, वैज्ञानिक ग्रंथों का व्यासंगपूर्ण अध्ययन उन्होंने किया. ब्रिटिश दासता के घोर आत्महीनता के कालखंड में अकाट्य तर्कों सहित हमारे शास्त्रों के परंपरागत तथा पश्चिम के अत्याधुनिक वैज्ञानिक प्रमाणों के द्वारा बौद्धिक जगत में व भारतीय मनों में स्वधर्म, स्वदेश व स्वसंस्कृति की श्रेष्ठता का गौरव व आत्मविश्वास स्थापित किया. भविष्य में विज्ञान की प्रगति, मानवीयता व सार्थकता तथा विश्वभर के सभी पंथ-संप्रदायों के समन्वय का आधार हमारी श्रेष्ठ आध्यात्मिक संस्कृति ही हो सकती है, यह उनकी अति विशाल ग्रन्थ सम्पदा का स्पष्ट संदेश है.
वर्ष भर में जो परिस्थिति व घटनाक्रम हम अनुभव करते आ रहे हैं उसका अगर बारीकी से अध्ययन व चिन्तन करें तो इन चारों महापुरुषों के संदेशों के अनुसरण का महत्व ध्यान में आता है.
यह स्पष्ट है कि यद्यपि गति बढ़ाने की गुंजाईश है व और कई बातों का होना अपेक्षित है, गत दो वर्षों में देश में व्याप्त निराशा दूर करने वाली, विश्वास बढ़ाने वाली व विकास के पथ पर देश को अग्रसर करने वाली नीतियों के कारण कुल मिलाकर देश आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है. यह भी स्पष्ट है – व हमने अपनायी हुई प्रजातांत्रिक प्रणाली में कुछ अपेक्षित भी है – कि जो दल सत्ता से वंचित रहते हैं वे विरोधी दल बनकर शासन प्रशासन की कमियों को ही अधो-रेखांकित कर अपने दल के प्रभाव को बढ़ाने वाली राजनीति कर रहे हैं, करेंगे. इसी मंथन में सेदेश के प्रगतिपथ की सहमति व उसके लिये चलने वाली नीतियों की समीक्षा, सुधार व सजग निगरानी होते रहना प्रजातंत्र में अपेक्षित रहता है. परंतु जो चित्र पिछले सालभर में दिख रहा है, उसमें कुछ चिंताजनक प्रवृत्तियों के खेल खेले जाते हुए स्पष्ट दिखते हैं. देश की स्थिति व विश्व परिदृश्य की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वाले सभी को यह पता है कि भारत का समर्थ, एकात्म, आत्मनिर्भर व नेतृत्वक्षम होकर उभरना फूटी आँखों न सुहाने वाली कुछ कट्टरपंथी, अतिवादी, विभेदकारी व स्वार्थी शक्तियाँ दुनिया में हैं व भारत में भी अपना जाल बिछाए काम कर रही हैं. भारत के समाज-जीवन से अभी तक पूर्णतः निर्मूल न हो पायी विषमता, भेद व संकुचित स्वार्थ प्रवृत्तियों के चलते यदाकदा घटने वाली घटनाओं का लाभ लेकर, अथवा घटना घटे इसके लिये कतिपय लोगों को उकसाते हुए अथवा अघटित घटनाओं के घटने का असत्य प्रचार करते हुए विश्व में भारतवासी तथा भारत का शासन प्रशासन तथा भारत में ऐसी दुष्प्रवृत्तियों को रोक सकने वाले संघ सहित सज्जन शक्ति को विवादों में खींचकर बदनाम करने का व लोकमानस को उनके बारे में भ्रमित करने का प्रयास चलता हुआ दिखाई देता है. जैसी उनकी आकांक्षाएँ व चरित्र रहा है, यह प्रयास, आपस में भी टकराने वाली यह शक्तियाँ अलग-अलग अथवा समान स्वार्थ के लिये गोलबंद होकर करेंगी हीं. उनके भ्रमजाल तथा छल कपट के चंगुल में फँसकर समाज में विभेद व वैमनस्य का वातावरण न बने इसके प्रयास करने पड़ेंगे.
संघ के स्वयंसेवक इस दिशा में अपने प्रयासों की गति बढ़ा रहे हैं. अनेक प्रांतों में इस दृष्टि से सामाजिक समता की सद्यःस्थिति का सर्वेक्षण किया जा रहा है तथा उपाय के लिये समाज-मन की अनुकूलता बनाने की बातचीत शाखाओं के द्वारा अपने-अपने गाँव-मुहल्ले में प्रारंभ कर दी गयी है. उदाहरण के लिये संघ की दृष्टि से मध्यभारत प्रान्त माने गये क्षेत्र के 9000 गाँवों का विस्तारपूर्वक सर्वेक्षण पूरा हुआ, जिसमें अभी तक लगभग 40 प्रतिशत गांवों में मंदिर, 30 प्रतिशत में पानी व 35 प्रतिशत गांवों में शमशान को लेकर भेदभाव का व्यवहार होता है, यह बात सामने आयी हैं. उनके उपाय के लिये प्रयास भी प्रारम्भ हुए है. अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिये बने संवैधानिक प्रावधानों का, उनके लिये आवंटित धनराशि का विनियोग व निर्वाह प्रामाणिकता व तत्परता के साथ शासन व प्रशासन के द्वारा हो इसलिये भी संघ के स्वयंसेवकों ने सहायता का कार्य प्रारम्भ कर दिया है. अपनी जितनी शक्ति, जानकारी व पहुँच है, उतना सामाजिक समता की दिशा में संघ के स्वयंसेवकों का यह प्रयास होगा ही. परंतु समाज हितैषी सभी व्यक्तियों व शक्तियों को अधिक सक्रिय होकर इस दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता है. छोटी मोटी घटना से उत्तेजित होकर अथवा अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में अपने ही निरपराध बंधुओं को अपमान व प्रताड़ना सहन करनी पड़े, यह 21वीं सदी के भारतीय समाज के लिये लज्जाजनक कलंक है ही, कतिपय छिद्रान्वेषी शक्तियां इसी का लाभ लेकर भारत को बदनाम करने की गतिविधियाँ चलाती हैं तथा समाज में चलने वाले अच्छे उपक्रमों की गति अवरुद्ध करने का प्रयास करती हैं.
देशी गाय जो अपने देश के पशुधन का बडा हिस्सा है, का रक्षण, संवर्धन व विकास यह संविधान के मार्गदर्शक तत्वों में निर्दिष्ट, भारतीय समाज की आस्था व परंपरा के अनुसार पवित्र कार्य है. केवल संघ के स्वयंसेवक ही नहीं, देशभर में अनेक संत, सज्जन, संविधान कानून की मर्यादा का पूर्ण पालन करते हुए जीवन तपस्या के रूप में इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं. आधुनिक विज्ञान के प्रमाण देशी गाय की उपयुक्तता व श्रेष्ठता को सिद्ध कर चुके हैं. अनेक राज्यों में गोहत्या प्रतिबंधक कानून तथा पशुओं के प्रति क्रूरता प्रतिबंधक कानून बने हैं. उनका ठीक से अमल हो, इसके लिये भी कभी-कभी व कहीं-कहीं गौसेवकों को अभियान करना पड़ता है. गौहत्या की घटनाओं का आधार लेकर अथवा कपोलकल्पित घटनाओं की अफवाह को उछालते हुए अपना व्यक्तिगत अथवा राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना, समाज में बिना कारण कलह खड़ा करना, अथवा केवल गौसेवा के पवित्र कार्य को ही लांछित व उपहासित करने के लिये कौभांड रचने वाले अवांच्छित तत्वों से उनकी तुलना नहीं हो सकती. गौसेवकों की तपस्या तो चलती, बढ़ती रहेगी. अपना हर कार्य कानून सुव्यवस्था की मर्यादा में ही हो यह स्वतंत्र देश के प्रजातंत्र का अनुशासन सभी सज्जन भावनाओं को भड़काने के प्रयासों के बावजूद पालन कर रहे हैं, करते रहेंगे. गोहत्या प्रतिबंधन कानूनों का अमल कड़ाई से हो व कानून सुव्यवस्था का पालन भी कड़ाई से हो यह देखते समय प्रशासन, सज्जन व दुर्जनों को एक ही तराजू में न तोले यह आवश्यक है. ऐसी घटनाओं में राजनीतिक लाभ की आशा से राजनैतिक व्यक्ति जो भी पक्ष लें, अपनी करनी से समाज में पड़ी दरारें चौड़ी न हों, विद्वेष का शमन हो ऐसा उनका मन, वचन, कर्म रहे, यह समाज की अपेक्षा है. माध्यमों में भी कुछ वर्ग अपने व्यापारिक लाभ की आशा से ऐसी घटनाओं के वृत्तकथन को वास्तविकता से अधिक भड़काऊ रंग में प्रस्तुत करता दिखाई देता है, इस मोह से उनको बचना चाहिये. सभी को यह ध्यान में रखना चाहिये कि समाज में स्वतंत्रता व समता का अवतरण व दृढ़ीकरण, समाज में बंधुभाव की व्याप्ति व दृढ़ता पर निर्भर रहता है. देश के सामने मुँह बाये खड़ी चुनौतियों का सामना उसी के बल पर देश कर सकेगा. श्री अभिनवगुप्त व श्रीरामानुज जैसे द्रष्टा महापुरुषों ने आगे बढ़ायी इस सद्भाव की परंपरा को और भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता इसलिये भी है कि देश की सुरक्षा, एकात्मता, संप्रभुता व अखण्डता पर अभी भी खतरों के बादल मंडरा रहे हैं.
समूचे जम्मू-कश्मीर राज्य की सद्यःस्थिति इस दृष्टि से हमारी चिंताएँ और बढ़ाती है. इस संबंध में अब तक चलती आयी सफल अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक गतिविधियाँ तथा शासन व संसद के द्वारा बारबार व्यक्त किये दृढ़तापूर्ण संकल्प स्वागतार्ह हैं, परंतु उस सही नीति का तत्पर व दृढ़तापूर्ण क्रियान्वयन हो यह भी आवश्यक है. जम्मू-लद्दाख सहित कश्मीर घाटी का बड़ा क्षेत्र अभी भी कम उपद्रवग्रस्त व अधिक नियंत्रण में है. वहाँ पर राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ व शक्तियों का बल बढ़े, पक्का हो व स्थापित हो, ऐसी शीघ्रता करनी चाहिये. उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में उपद्रव उत्पन्न करने वाले स्थानीय व परकीय तत्वों का कड़ाई से व शीघ्र नियंत्रण हो इसलिये राज्य शासन व केन्द्र शासन अपने अपने प्रशासन सहित एकमत व एकनीति बनाकर दृढ़ता व तत्परता दिखाए, इसकी आवश्यकता है. मीरपुर, मुजफ्फराबाद, गिलगिट, बाल्टिस्तान सहित संपूर्ण कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है, यह दृढ़ भूमिका बनी रहनी चाहिये. वहाँ से विस्थापित हुए बंधु और कश्मीर घाटी से विस्थापित पंडित हिंदू, सम्मान, सुरक्षा तथा योगक्षेम की स्थिरता के प्रति निश्चिंत होकर यथापूर्व पुनःस्थापित हो जायें, यह कार्य शीघ्रता से आगे बढ़ाना होगा. विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर राज्य में तत्कालीन राज्य शासन द्वारा पाकिस्तान में गये भूभाग से विस्थापित होकर आये हिंदुओं को आश्वस्त करते हुए राज्य में ही बसने को कहा था, उनको राज्य में भी नागरिकता के सभी अधिकार प्राप्त करा देने होंगे. अब तक राज्य प्रशासन के द्वारा जम्मू व लद्दाख के साथ होने वाला भेदभाव तुरंत ही समाप्त होना चाहिये. जम्मू व कश्मीर में राज्य का प्रशासन राष्ट्रभाव से, स्वच्छ, तत्पर, समदृष्टि व पारदर्शी होकर चले तभी राज्य की जनता को विजय तथा विश्वास की एकसाथ अनुभूति मिलेगी व घाटी की जनता के सात्मीकरण की प्रक्रिया आगे बढे़गी.
कश्मीर घाटी में चलने वाले उपद्रवों के पीछे सीमा पार से ऐसे उपद्रवों को उकसाने, हवा देने के लिये सतत चलने वाली कुचेष्टा यह एक बड़ा कारण है, यह बात सारा विश्व अब जानता है. विश्व के अन्यान्य देशों में अपना केन्द्र बनाकर सीमा प्रदेशों में अलगाव, हिंसा, आतंक व नशीली दवाओं की तस्करी जैसी समाज के स्वास्थ्य व बल को नष्ट करने वाली गतिविधियाँ चलाने वाले छोटे बड़े समूहों का भी इनके साथ गठबंधन बनता चला जा रहा है, यह जानकारियाँ भी मिलती रहती हैं. ऐसी अवस्था में हमारे सामरिक बल की नित्यसिद्धता, सेना दल, रक्षक बल तथा सूचना तंत्रों में समन्वय व सहयोग का प्रमाण व नित्य सजगता में क्षणभर की ढिलाई महंगी पड़ सकती है, यह उरी के सैनिक शिविर पर हुए हमले की घटना ने फिर एक बार अधोरेखित किया है. इस हमले का ठीक उत्तर बहुत दृढ़तापूर्वक तथा कुशलतापूर्वक अपने शासन के नेतृत्व ने हमारे वीर जवानों द्वारा दिया गया, इसलिये शासन व सभी सेना दलों का हार्दिक अभिनंदन! परंतु हमारी यह दृढ़ता तथा राजनयिक व सामरिक कुशलता हमारी नीति में स्थायी हो यह आवश्यक है. समूचे सागरी व भूसीमा प्रदेशों में इस दृष्टि से कड़ी निगरानी रखते हुए शासन, प्रशासन व समाज के परस्पर सहयोग से अवांच्छित गतिविधियों को तथा उनके पीछे काम करने वाली कुप्रवृत्तियों को जड़मूल से समाप्त करना आवश्यक हो गया है.
राज्यों की शासन व्यवस्थाओं का भी इसमें पूर्ण सहयोग आवश्यक रहता है. देश की व्यवस्था के नाते हमने अपने संविधान में संघराज्यीय कार्यप्रणाली को स्वीकार किया है. ससम्मान व प्रामाणिकता पूर्वक उसका निर्वाह करते समय हम सभी को, विशेषकर विभिन्न दलों द्वारा राजनीतिक नेतृत्व करने वालों को यह निरन्तर स्मरण रखना पडे़गा कि व्यवस्था कोई व कैसी भी हो, संपूर्ण भारत युगों से अपने जन की सभी विविधताओं सहित एक जन, एक देश, एक राष्ट्र रहा है, तथा आगे उसको वैसे ही रहना है, रखना है. मन, वचन, कर्म से हमारा व्यवहार उस एकता को पुष्ट करने वाला होना चाहिये, न कि दुर्बल करने वाला. समाज जीवन के विभिन्न अंगों में नेतृत्व करने वाले सभी को इस दायित्वबोध का परिचय देते चलने का अनुशासन दिखाना ही पड़ेगा. साथ-साथ समाज को भी ऐसे ही दायित्वपूर्ण व्यवहार को सिखाने वाली व्यवस्थाएँ बनानी पड़ेंगी.
अनेक वर्षों से देश की शिक्षा व्यवस्था – जिससे देश व समाज के साथ एकात्म, सक्षम व दायित्ववान मनुष्यों का निर्माण होना चाहिये – पर चली चर्चा, इस परिप्रेक्ष्य में ही अत्यंत महत्वपूर्ण है. उस चर्चा के निष्कर्ष के रूप में एक सामान्य सहमति भी उभरकर आती हुई दिखाई देती है कि शिक्षा सर्वसामान्य व्यक्तियों की पहुँच में सुलभ, सस्ती रहे. शिक्षित व्यक्ति रोजगार योग्य हों, स्वावलंबी, स्वाभिमानी बन सकें व जीवनयापन के संबंध में उनके मन में आत्मविश्वास हो. वह ज्ञानी बनने, सुविद्य बनने के साथ-साथ दायित्वबोधयुक्त समंजस नागरिक तथा मूल्यों का निर्वहन करने वाला अच्छा मनुष्य बने. शिक्षा की व्यवस्था इस उद्देश्य को साकार करने वाली हो. पाठ्यक्रम इन्हीं बातों की शिक्षा देने वाला हो. शिक्षकों का प्रशिक्षण व योगक्षेम की चिन्ता इस प्रकार हो कि विद्यादान के इस व्रत को निभाने के लिये वे योग्य व समर्थ हों. शासन व समाज दोनों का सहभाग शिक्षा क्षेत्र में हो तथा दोनों मिलकर शिक्षा का व्यापारीकरण न होने दें. नयी सरकार आने के बाद इस दिशा में एक समिति बनाकर प्रयास किया गया, उसका प्रतिवेदन भी आ गया है. शिक्षा क्षेत्र के उपरोक्त दिशा में कार्य करने वाले बंधु तथा शिक्षाविदों की राय में उस प्रतिवेदन की संस्तुतियाँ इस दिशा में शिक्षा पद्धति को रूपांतरित करेंगी कि नहीं यह देखना पडेगा. दिशागत परिवर्तन के लिये उपयुक्त ढाँचा बनाने की रूपरेखा तभी प्राप्त होगी, अन्यथा उपरोक्त सहमति प्रतीक्षा की अवस्था में ही रहेगी.
परंतु नई पीढ़ी के शिक्षित होने के स्थानों में विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विद्यापीठों के साथ-साथ कुटुंब व पर्व उत्सवों से लेकर समाज की सभी गतिविधियाँ व उपक्रमों से निर्माण होने वाला वातावरण भी है. अपने कुटुंब में नई व पुरानी पीढ़ी का आत्मीय संवाद होता है क्या? उस संवाद में से उनमें शनैः-शनैः समाज के प्रति दायित्वबोध, व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य के सद्गुण, मूल्यश्रद्धा, श्रमश्रद्धा, आत्मीयता तथा बुराइयों के आकर्षण से दूर रहने की प्रवृत्ति का निर्माण होता है क्या? वे ऐसे बनें इसलिये घर के बड़ों का व्यवहार उदाहरण बनता है क्या? इन प्रश्नों के उत्तर अपने-अपने कुटुंब के लिये हम ही को देने होंगे. घर से उचित स्वभाव, लक्ष्य तथा प्रवृत्ति प्राप्त हो तो ही शिक्षा प्राप्ति का परिश्रम तथा उसके उचित उपयोग का विवेक बालक दिखाता है, यह भी हम सभी का अनुभव है. कुटुंब में यह संवाद प्रारम्भ हो व चलता रहे यह प्रयास अनेक संत सज्जन तथा संगठन कर रहे हैं. संघ के स्वयंसेवकों में भी एक गतिविधि कुटुंब प्रबोधन के ही कार्य को लेकर चली है, बढ़ रही है. किसी के माध्यम से हमारे पास यह कार्य पहुँचे, इसकी प्रतीक्षा किये बिना हम इसे अपने घर से प्रारम्भ कर ही सकते हैं.
समाज में चलने वाले अनेक उपक्रम, पर्व त्यौहार, अभियान इत्यादि का प्रारंभ समाज प्रबोधन व संस्कार की शाश्वत आवश्यकता को ध्यान में लेकर हुआ. उस प्रयोजन का विस्मरण हुआ तो उत्सव तो चलते रहता है, परंतु उसका रूप बदलकर कभी कभी भद्दा, निरर्थक बन सकता है. प्रयोजन ध्यान में लेकर इन पर्वों के सामाजिक स्तर पर आयोजन का काल सुसंगत रूप गढ़ना चाहिये तो आज भी वह समाज प्रबोधन का अच्छा साधन बन सकते हैं. महाराष्ट्र में सार्वजनिक गणेश मंडलियों के द्वारा अनेक स्थानों पर अच्छे प्रयोग किये हैं. वर्ष प्रतिपदा पर नव वर्ष मनाने की अनेक उपयुक्त कल्पनाएँ सामने आयी हैं. समाज से ऐसे कल्पक सुधारित उपक्रमों का प्रोत्साहन, सहयोग तथा अनुकरण होने की आवश्यकता है. शासकीय तथा अशासकीय दोनों प्रकार की पहल होकर कुछ नये प्रयास चले है, उनमें भी समाज का उत्साह बना रहे, बढ़ता रहे, इसका ध्यान निरन्तर सभी समाज हितैषी बंधु व स्वयंसेवकों को रखना पड़ेगा. वृक्षारोपण, स्वच्छ भारत अभियान, योग दिवस आदि इन उपक्रमों का महत्व समाज में सामूहिकता, समाज में स्वावलंबन, सामाजिक संवेदना आदि अनेक गुणों के निर्माण की दृष्टि से ध्यान में आ सकता है. इसी बात को मन में लेकर संघ के स्वयंसेवक भी इन उपक्रमों में, उत्सवों में समाज के साथ सहभागी होकर उनको अधिक सुव्यवस्थित, सुंदर व प्रभावी बनाने में समाज का सहयोग कर रहे हैं, करेंगे. समाज की स्वाभाविक संगठित अवस्था ही देश व विश्व में सुव्यवस्था, एकात्मता, शांति व प्रगति का मूल व मुख्य कारण बनती है, इस सत्य के आधार पर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 90 वर्षों से निरंतर कार्य करते हुए आगे बढ़ रहा है.
परंपरा से ही हमारा समाज कई विविधताओं को साथ लेकर चला है. संपूर्ण सृष्टि के विविधरंगी दृश्य के पीछे, उन सभी विविधताओं के अस्तित्व में ओतप्रोत जो सनातन व शाश्वत एकत्व है, उसका साक्षात् बोध हमारे मनीषियों को हुआ. इसी बोध का प्रबोधन संपूर्ण जगत को कराने का साधन इस नाते उनके दुर्धर तप से हमारा राष्ट्र उत्पन्न हुआ और अब तक इसी प्रबोधन का सफल साधन बनने के लिये उसकी जीवन यात्रा चल रही है. सृष्टि के अस्तित्व तक इस प्रबोधन की आवश्यकता बनी रहेगी, उस आवश्यकता को पूर्ण करने वाला यह राष्ट्र भी बना रहेगा. हमारे राष्ट्र को इसलिये अमर राष्ट्र कहा जाता है. जड़ता, कलह की स्वनिर्मित श्रृंखलाओं में बद्ध विश्व को फिर उस प्रबोधन की आवश्यकता है. हमारे लिये अपने अस्तित्व के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये कर्तव्यबद्ध होकर चलने की घड़ी है. संपूर्ण अस्तित्व की एकता के सत्य पर दृढ़ता पूर्वक स्थापित, उसी से निःसृत हमारे सनातन धर्म व संस्कृति को वर्तमान युग के अनुसार समझकर, देशकाल परिस्थिति के अनुरूप उसका नूतन आविष्कार, हमारे संगठित, बल संपन्न, समतायुक्त, शोषणमुक्त, सर्वांग परिपूर्ण, वैभव संपन्न राष्ट्रजीवन को खड़ा करते हुए विश्व के सामने उदाहरण के रूप में रखना होगा. कई शतकों की विदेशी दासता व हमारी आत्म विस्मृति के कुप्रभावों से पूर्ण मुक्त होकर हमारे अपने विचार धन के आधार पर हमें राष्ट्र की नीतियाँ बनानी होंगी. उसके लिये हमारे उन सनातन मूल्यों, आदर्शों व संस्कृति की गौरव गरिमा श्रद्धापूर्वक हृदय में धारण करनी पड़ेगी. विश्व में आत्मविश्वास युक्त पदक्षेपों के साथ राष्ट्र आगे बढ़ रहा है, विश्व को सहस्राब्दियों से पीड़ा देने वाली समस्याओं का अचूक समाधान दे रहा है, यह दृश्य अपने जीवन व कर्तृत्व से खड़ा करना पड़ेगा. संतशिरोमणि श्री गुलाबराव महाराज की विशाल ग्रंथ संपदा व दुर्धर जीवन तपस्या का सारांश में संदेश यही है.
शासन का कार्य इस दिशा का ध्रुव रखकर चलें, प्रशासन उसकी नीति का तत्पर व कार्यक्षम रहकर क्रियान्वयन करें व देश के अंतिम व्यक्ति तक सभी को सुखी, सुंदर, सुरक्षित व उन्नत जीवन का लाभ हो रहा है, इस पर दोनों का ध्यान निरंतर रहे, इसके साथ-साथ समाज भी एकरस, संगठित व सजग होकर इन दोनों का सहयोग करे, प्रसंग पड़ने पर नियमन भी करे, यह राष्ट्रजीवन की उन्नति के लिये आवश्यक है. इन तीनों के एक दिशा में सुसूत्र व परस्पर संवेदनशील होकर समन्वित चलने से ही, आसुरी शक्तियों के छल-कपट व्यूहों के भ्रमजाल को भेदकर, समस्याओं व प्रतिकूलताओं की बाधाओं को चीरकर परम विजय की प्राप्ति में हम समर्थ हो सकेंगे.
कार्य कठिन लगता है, परंतु वही हमारा अनिवार्य सद्य कर्तव्य है. असंभव से लगने वाले कार्य को दृढ़निश्चय, पराक्रम, सर्वस्व समर्पण व निःष्काम, निःस्वार्थ बुद्धि से निरंतर सफलता की ओर बढ़ाने वाले श्री गुरुगोविंद सिंह जी महाराज के तेजस्वी जीवन की विरासत हमें मिली है. हमें श्रद्धापूर्वक सारी शक्ति लगाकर उस आदर्श की राह पर चलने का साहस दिखाना होगा.
समाज ऐसा दैवीगुणसंपदयुक्त बने, इसलिये अपने उदाहरण से ऐसे आचरण का वातावरण बनाने का एकमात्र कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है. अपने निःस्वार्थ एवं अकृत्रिम आत्मीयता से समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जोड़ना, अपने इस पवित्र और प्राचीन हिन्दू राष्ट्र को विश्व का परमवैभव संपन्न बनाने के भव्य लक्ष्य के साथ उसको तन्मय करना, कार्य के योग्य बनने के लिये शरीर, मन, बुद्धि का विकास करने वाली सहज, सरल शाखा साधना उसके जीवन का अंग बनाना, तथा ऐसे साधकों को आवश्यकता व क्षमतानुसार समाज जीवन के विविध अंगों में आवश्यक कार्य को सेवाभाव से करने के लिये प्रवृत्त करना यही उसकी कार्यपद्धति रही है. शीघ्रतापूर्वक समाज में इस परिवर्तन को लाने के लिये चलने वाली समरसता, गौसंवर्धन, कुटुंब प्रबोधन जैसी गतिविधियों का व उपक्रमों का अत्यल्प परिचय इस भाषण में आपको दिया है. परंतु संपूर्ण समाज ही इस दृष्टि से सक्रिय हो इसकी आवश्यकता है. नवरात्रि के नौ दिन तपस्यापूर्वक देवों ने – अर्थात् उस समय की सज्जनशक्ति ने – अपनी-अपनी शक्ति को परस्पर समन्वित व पूरक बनाकर सम्मिलित किया व दसवें दिन चंडमुंडमहिषासुर रूप मायावी असुर शक्ति का निर्दलन कर मानवता के त्रास का हरण किया, वही आज का विजयादशमी – विजयपर्व है. अतएव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस राष्ट्रीय कार्य पर आपके स्नेह व प्रोत्साहन की छाया की दृष्टि के साथ आपकी सहयोगिता व सहभागिता भी बढ़ती रहे, इस विनम्र आह्वान के साथ मैं इस वक्तव्य को विराम देता हूँ. आप सभी को विजयादशमी की शुभेच्छाएँ तथा सभी की ओर से एक प्रार्थना –
देह सिवा बरु मोहे ईहै, सुभ करमन ते कबहूं न टरों.
न डरों अरि सो जब जाइ लरों, निसचै करि अपुनी जीत करों..
अरु सिख हों आपने ही मन कौ, इह लालच हउ गुन तउ उचरों.
जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रन मै तब जूझ मरों..
.. भारत माता की जय ..