गोवा. 04 से 06 नवंबर 2016 तक “इंडिया फाउंडेशन एट कैनाकोना” द्वारा गोवा में आयोजित विचारक शिखर सम्मेलन (इंडिया आइडियाज़ कन्क्लेव 2016) में एक सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले जी ने कहा कि यह आवश्यक है कि हम मुद्दों पर बातचीत करें. भारत की आजादी के 7 दशक बाद भी हम राष्ट्र, राष्ट्रीयता और धर्म आदि विषयों पर आम सहमति पर नहीं पहुँच पाये हैं. सन् 1997 के एक विज्ञापन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि एक कॉरपोरेट हाउस ने भारत की आजादी की 50वीं वर्षगांठ समारोह के दौरान एक विज्ञापन में लिखा कि “भारत माता हम आपके 50वें जन्मदिन पर आपको प्रणाम करते हैं. इसे कैसे स्वीकारा जा सकता है ? यह इतिहास की अनभिज्ञता है. संपादक को इस प्रकार का विज्ञापन नहीं देना चाहिए था. हमारी सभ्यता अत्यंत प्राचीन है और सन् 1997 में उसका 50वां जन्मदिन कैसे हो सकता है ?
दत्तात्रेय होसबले जी ने कहा कि इस सम्मेलन में, हमने असहमति या विरोध के स्वर भी सुने. मुझे लगता है कि यह संवाद ही लोकतंत्र का सार है. महाभारत में कृष्ण-अर्जुन संवाद एक विस्तृत बातचीत ही तो थी. यही हमारी परंपरा है. जब तक संवाद है, असंतोष को स्वीकार किया जा सकता है. तब यह सिर्फ एक अलग दृष्टिकोण बन जाता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज, अगर मैं आपकी असहमति से असहमत हूँ, तो आप मुझे असहिष्णु कहते हो. लोकतंत्र के सार में आम सहमति भी शामिल है. यह बहुत-बहुत आवश्यक है. लेकिन 70 साल के बाद भी हम महत्वपूर्ण विषयों पर आम सहमति तक नहीं पहुँच पाए. जैसे कि हम देश और राज्य की अवधारणा को भी नहीं समझ पाए, राष्ट्र का हित, एक राष्ट्रीय भाषा की जरूरत, आरक्षण कितना, आदि बातों पर अभी भी आम सहमति की जरूरत है.
सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि “एकरूपता या अनुशासन आम सहमति नहीं है. हम आज महत्वपूर्ण विषयों पर विफल रहे हैं. दुर्भाग्य से, दो क्षेत्रों – शिक्षा और मीडिया ने आम सहमति में योगदान नहीं किया है. बल्कि उन्होंने असंतोष और विभेद को बढ़ाने में ही अधिक योगदान दिया है. मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ एक बैठक के दौरान मुझे बताया गया कि एक धार्मिक परिवार में जन्म ही हमें हिंदू या मुसलमान बनाता है. लेकिन हम एक राष्ट्र और एक सभ्यता में रहते हैं. आज जो विभाजन की समस्या है, वह एक साजिश के तहत बनाई गई है. दशकों पहले यह इतनी प्रमुख नहीं थी, जितनी आज दिखाई दे रही है. दुर्भाग्य से मतभेदों को समाप्त करने के स्थान पर हवा दी जा रही है. उन्होंने कहा कि 70 साल के बाद एक प्रणालीगत परिवर्तन भी महत्वपूर्ण है. लोकतंत्र के विकास हेतु न्यायपालिका, प्रशासनिक, शिक्षा आदि क्षेत्रों में भी परिवर्तन की जरूरत है. आज हमारे पास अपना क्या है, ज्यादातर इंग्लैंड से उधार लिया गया है, वह भी 19वीं सदी का. जिसे बदलने के लिए चर्चा और आम सहमति की जरूरत है. निर्माण हो या प्रतिनिर्माण, आम सहमति के माध्यम से ही संभव है.
हमें गंभीरता से सोचना चाहिए – विश्व के लिए या मानवता के लिए भारत क्या योगदान दे सकता है ?
योग दिवस, प्राणायाम, संस्कृत, परिवार प्रणाली आदि के विषय में विश्व के लोग चर्चा करते हैं. लेकिन ये सब तो पिछले 200-700 वर्षों से भी पहले की भारतीय परंपरा है. पिछले 70 वर्षों के अनुभव से हम क्या योगदान कर सकते हैं? मजबूत विविधता और मतभेदों के बीच रहते हुए भी “जियो और जीने दो”. उन्होंने कहा कि हम मतभेदों के बीच भी आम सहमति से सौहार्दपूर्वक रहते हैं, यही है मेरे विश्वास का कारण…
इस तीन दिवसीय बैठक में केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु, जयंत सिन्हा, एमजे अकबर, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, अनेक भारतीय और विदेशी राजनयिकों व जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बद्ध अनेक बौद्धिक व्यक्तित्व सहभागी हुए.