वनस्पति शास्त्री बीरबल साहनी / जन्म दिवस -14 नवम्बर

भारत के प्रथम जुरासिक वैज्ञानिक माने जाते हैं बीरबल साहनी

स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षा मन्त्री मौलाना आजाद ने एक वैज्ञानिक को शिक्षा सचिव जैसा महत्वपूर्ण पद सँभालने के लिए आमन्त्रित किया। सुख-सुविधाओं और सत्ता के लाभ वाले ऐसे पद पर आने के लिए प्रायः सब उत्सुक रहते हैं; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक इसके लिए मना कर दिया। उनका कहना था कि उनके जीवन का लक्ष्य नवीन शोध को प्रोत्साहित करना है। वे थे प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री बीरबल साहनी, जिनका जन्म 14 नवम्बर, 1891 को भेरा, जिला शाहपुर (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था।

बीरबल के पिता श्री रुचिराम साहनी भी देशभक्त शिक्षाशास्त्री और समाजसेवी थे। उन्होंने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलायी। उनके घर स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े लोग आते रहते थे। इससे बीरबल के मन पर देशसेवा के अमिट संस्कार पड़े। वे नयी जानकारी प्राप्त करने को सदा उत्सुक रहते थे।

1911 में वे अपने पिताजी के साथ दुर्गम जोजिला घाटी की यात्रा पर गये। वहाँ उन्होंने अत्यधिक खतरनाक मचोई हिमनद को पार किया और अनेक गहरी घाटियों में उतरकर हजारों साल पुरानी काई और बर्फ के नमूने एकत्र किये। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के बाद भी वे संस्कृत, जर्मन, फ्रेच और पर्शियन भाषा के अच्छे जानकार थे।

बी.एसEसी. की परीक्षा में वनस्पतिशास्त्र का प्रश्नपत्र बहुत सरल था। वे उसे छोड़कर चले आये। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रश्नों से योग्यता नहीं जाँची जा सकती। मजबूर होकर विश्वविद्यालय ने उनके लिए नया और कठिन प्रश्नपत्र बनाया; पर उन्होंने उसे आसानी से हल कर लिया। उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जायें; पर बीरबल ने उन्हें बता दिया कि उनकी रुचि वनस्पतिशास्त्र में शोध की ही है।

यह देखकर उनके पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज भेज दिया। वहाँ उन्होंने अनेक वरिष्ठ वैज्ञानिकों के साथ शोधकार्य किया। दक्षिण फ्रान्स और मलयेशिया की वनस्पति पर उनके लेख अन्तरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। 1919 में लन्दन विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘प्राचीन वनस्पति जीवाश्म’ पर कार्य के लिए डी.एस-सी. की उपाधि दी।

उनकी योग्यता देखकर अनेक विदेशी संस्थानों ने उन्हें आमन्त्रित किया; पर वे भारत आकर काशी तथा पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन करने लगे। 1920 में उनका विवाह सावित्री देवी से हुआ। 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और उन्हें वनस्पति शास्त्र में विभागाध्यक्ष बनाया गया।

1929 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ़ साइंस’ की उपाधि से सम्मानित किया। वे चाहते थे कि वनस्पति विज्ञान के छात्र भूगर्भशास्त्र का भी अध्ययन करें। 1943 में जब लखनऊ में इस विभाग की स्थापना हुई, तो उन्हें इसका भी अध्यक्ष बनाया गया। उनका एकमात्र प्रेम अनुसन्धान से था। उन्होंने अपने पिताजी की स्मृति में पुरस्कार की स्थापना भी की।

उनका सपना था कि वनस्पति अवशेषों पर शोध के लिए एक विशिष्ट संस्थान हो। 3 अपै्रल, 1949 को लखनऊ में इस संस्थान की नींव रखी गयी। उसके लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया; पर इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। एक सप्ताह बाद 10 अपै्रल, 1949 को दिल के भीषण दौरे से उनका देहान्त हो गया। 1952 में प्रधानमन्त्री नेहरू जी ने संस्थान का उद्घाटन करते हुए उसका नाम ‘बीरबल साहनी इन्स्टिट्यूट ऑफ़ पेलिओबोटनी’ रखा।

साहनी के कार्यों के महत्व को देखते हुए वर्ष 1936 में उन्हें लंदन की रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुना गया। उनके द्वारा लखनऊ में जिस संस्थान की नींव रखी गई थी, उसे आज हम बीरबल साहनी पुरा-वनस्पति विज्ञान संस्थान के नाम से जानते हैं। इस संस्थान का उद्घाटन भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वर्ष 1949 में किया था।
बीरबल साहनी ने वनस्पति विज्ञान पर अनेक पुस्तकें लिखीं। उनके अनेक शोध पत्र विभिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए। डॉ. साहनी केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे, बल्कि वह चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने उनके सम्मान में ‘बीरबल साहनी पदक’ की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। उनके छात्रों ने अनेक नए पौधों का नाम साहनी के नाम पर रखा है ताकि प्रो. बीरबल साहनी उन जीव-अवशेषों की तरह हमेशा याद किए जाते रहें, जिन्हें खोजने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया था।

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