विश्वगुरु भारत के प्रखर प्रतीक – स्वामी विवेकानंद :- प्रवीण गुगनानी

स्वामी विवेकानंद जी ने भारत को व भारतत्व को कितना आत्मसात कर लिया था यह कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से समझा जा सकता है जिसमें उन्होनें कहा था कि – “यदि आप भारत को समझना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानंद को संपूर्णतः पढ़ लीजिये”. नोबेल से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने स्वामी जी के विषय में कहा था – “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे. प्रत्येक व्यक्ति उनमें अपने मार्गदर्शक व आदर्श को साक्षात पाता था. वे ईश्वर के साक्षात प्रतिनिधि थे व  सबसे घूल मिल जाना ही उनकी विशिष्टता थी. हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा- ‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।” ऐसे हमारें स्वामी विवेकानंद कलकत्ता के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में 12 जनवरी 1863 को जन्मे. विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था, नरेन्द्र यानि स्वामी विवेकानंद विश्वनाथ और भुवनेश्वरी के सबसे बड़े पुत्र थे। ज्ञानपिपासु और घोर जिज्ञासु नरेन्द्र का बाल्यकाल तो स्वाभाविक विद्याओं और ज्ञान अर्जन में व्यतीत हो रहा था किन्तु ज्ञान और सत्य के खोजी नरेन्द्र अपने बाल्यकाल में अचानक जीवन के चरम सत्य की खोज के लिए छटपटा उठे और वे यह जानने के लिए व्याकुल हो उठे कि क्या सृष्टि नियंता जैसी कोई शक्ति है जिसे लोग ईश्वर करते हैं? सत्य और परमज्ञान की यही अनवरत खोज उन्हें दक्षिणेश्वर के संत श्री रामकृष्ण परमहंस तक ले गई और परमहंस ही वह सच्चे गुरु सिद्ध हुए जिनका सान्निध्य और आशीर्वाद पाकर नरेन्द्र की ज्ञान पिपासा शांत हुई और वे सम्पूर्ण विश्व के स्वामी विवेकानंद के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर पाए। स्वामी विवेकानंद एक ऐसे युगपुरुष थे जिनका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति और भारतीयता से सराबोर थी। उनके सारे चिंतन का केंद्रबिंदु राष्ट्र और राष्ट्रवाद था। भारत के विकास और उत्थान के लिए अद्वित्तीय चिंतन और कर्म इस तेजस्वी संन्यासी ने किया। उन्होंने कभी सीधे राजनीतिक धारा में भाग नहीं लिया किंतु उनके कर्म और चिंतन की प्रेरणा से हजारों ऐसे कार्यकर्ता तैयार हुए जिन्होंने राष्ट्र रथ को आगे बढ़ाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इस युवा संन्यासी ने निजी मुक्ति को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया था। बल्कि करोड़ों देशवासियों के उत्थान को ही अपना जीवन लक्ष्य बनाया। राष्ट्र ही इसके दीन-हीन जनों की सेवा को ही वह ईश्वर की सच्ची पूजा मानते थे। सेवा की इस भावना को उन्होंने प्रबल शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था- ‘भले ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े और जन्म-मरण की अनेक यातनाओं से गुजरना पड़े लेकिन मैं चाहूंगा कि मैं उसे एकमात्र ईश्वर की सेवा कर सकूं, जो असंख्य आत्माओं का ही विस्तार है। वह और मेरी भावना से सभी जातियों, वर्गों, धर्मों के निर्धनों में बसता है, उनकी सेवा ही मेरा अभीष्ट है।’ सवाल यह है कि स्वामी विवेकानंद में राष्ट्र और इसके पीड़ितजनों की सेवा की भावना का उद्गम क्या था? क्यों उन्होंने निजी मुक्ति से भी बढ़कर राष्ट्रसेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया। अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से प्रेरित स्वामी विवेकानंद ने साधना प्रारंभ की और परमहंस के जीवनकाल में ही समाधि प्राप्त कर ली थी किंतु विवेकानंद का इस राष्ट्र के प्रति प्रारब्ध कुछ और ही था इसलिए जब स्वामी विवेकानंद ने दीर्घकाल तक समाधि अवस्था में रहने की इच्छा प्रकट की तो उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें एक महान लक्ष्य की ओर प्रेरित करते हुए कहा- ‘मैंने सोचा था कि तुम जीवन के एक प्रखर प्रकाश पुंज बनोगे और तुम हो कि एक साधारण मनुष्य की तरह व्यक्तिगत आनंद में ही डूब जाना चाहते हो, तुम्हें संसार में महान कार्य करने हैं, तुम्हें मानवता में आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न करनी है और दीनहीन मानवों के दु:खों का निवारण करना है।’ स्वामी विवेकानंद अपनें आराध्य के इन शब्दों से अभिभूत हो उठे और अपनें गुरु के वचनों में सदा के लिए खो गए।

स्वयं रामकृष्ण परमहंस भी विवेकानंद के आश्वासन को पाकर अभिभूत हो गए और उन्होंने अपनी मृत्यशैया पर अंतिम क्षणों में कहा- ‘मैं ऐसे एक व्यक्ति की सहायता के लिए बीस हजार बार जन्म लेकर अपने प्राण न्योछावर करना पसंद करूंगा.’जब 1886 में श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपना नश्वर शरीर त्यागा तब उनके 12 युवा शिष्यों ने संसार छोड़कर साधना का पथ अपना लिया, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने दरिद्रनारायण की सेवा के लिए एक कोने से दूसरे कोने तक सारे भारत का भ्रमण किया। उन्होंने देखा कि देश की जनता भयानक गरीबी से घिरी हुई है और तब उनके मुख से रामकृष्ण परमहंस के शब्द अनायास ही निकल पड़े- ‘भूखे पेट से धर्म की चर्चा नहीं हो सकती।’ किसी भी रूप में धर्म को इस सब के लिए जवाबदार मानें बिना उनकी मान्यता थी कि समाज की यह दुरावस्‍था (गरीबी) धर्म के कारण नहीं हुई बल्कि इस कारण हुई कि समाज में धर्म को इस प्रकार आचरित नहीं किया गया जिस प्रकार किया जाना चाहिए था.’

अपने रचनात्मक विचारों को मूर्तरूप देने के लिए 1 मई 1879 को स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन एसोसिएशन की स्थापना की और इसकी कार्यपद्धति इस प्रकार निश्चित की गई –

(1) ऐसे कार्यकर्ताओं को तैयार करना और प्रशिक्षित करना, जो देश की जनता के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए ज्ञान-विज्ञान के वाहक बन सके।

(2) कलाओं और उद्योगों को प्रोत्साहित करना।

(3) लोगों में इस प्रकार धार्मिक विचारों का प्रचार करना कि वे रामकृष्ण परमहंस के विचारानुसार सच्चे मानव बन सकें।

वास्तव में विवेकानंदजी ने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन नाम से दो पृथक संस्थाएं गठित कीं यद्दपि इन दोनों संस्थाओं में परस्पर नीतिगत सामंजस्य था तथापि इनकें उद्देश्य भिन्न किन्तु पूरक थे. रामकृष्ण मठ समर्पित संन्यासियों की श्रृंखला तैयार करने के लि‍ए थी जबकि दूसरी रामकृष्ण मिशन जनसेवा की गतिविधियों के लिए थी. वर्तमान में इन दोनों संस्थाओं के विश्वभर में सैकड़ों केंद्र हैं और ये संस्थाएं शिक्षा, चिकित्सा, संस्कृति, अध्यात्म और अन्यान्य सेवा प्रकल्पों के लिए विश्वव्यापी व प्रख्यात हो चुकी हैं.

शिकागो संभाषण के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को भारत के विश्वगुरु होनें कादृढ़ सन्देश दे चुके स्वामी जी को पश्चिमी मीडिया जगत साइक्लोनिक हिन्दू के नाम से पुकारने लगा था. इन महान कार्यों के स्थापना के बाद स्वामी केवल पांच वर्ष ही जीवित रह पाए और मात्र चालीस वर्ष की अल्पायु उनका दुखद निधन हो गया किन्तु इस अल्पायु के जीवन में उन्होंने सदियों के जीवन को क्रियान्वित कर दिया था। इस कार्य यज्ञ हेतु उन्होंने सात बार सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था और पाया था कि जनता गहन अंधकार में भटकी हुई है। उन्होंने भारत में व्याप्त दो महान बुराइयों की ओर संकेत किया, पहली महिलाओं पर अत्याचार और दूसरी जातिवादी विषयों की चक्की में गरीबों का शोषण, उन्होंने देखा कि कोई नि‍यति के चक्र से एक बार निम्न जाति में पैदा हो गया तो उसके उत्थान की कोई आशा नहीं रखती थी।  उस समय तो निम्न जाति के लोग उस समय सड़क से गुजर भी नहीं सकते थे जिससे उच्च जाति के लोग आते-जाते थे। स्वामीजी ने जाति प्रथा कि दें इस भीषण दुर्दशा को देखकर आर्त स्वर में कहा था- ‘आह! यह कैसा धर्म है, जो गरीबों के दुख दूर न कर सके।’ उन्होंने कहा कि पेड़ों और पौधों तक को जल देने वाले धर्म में जातिभेद का कोई स्थान नहीं हो सकता; ये वि‍कृति धर्म की नहीं, हमारे स्वार्थों की देन है।

स्वामीजी ने उच्च स्वर में कहा- ‘जातिप्रथा की आड़ में शोषण चक्र चलाने वाले धर्म को बदनाम न करें।’विवेकानंद एक सुखी और समृद्ध भारत के निर्माण के लिए बेचैन थे। इसके लिए जातिभेद ही नहीं, उन्होंने हर बुराई से संघर्ष किया। वे समाज में समता के पक्षधर थे और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के प्रति उनके मन में गहरा रोष था। उन्होंने कहा- जब तक करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी और अज्ञान का शिकार हो रहे हैं, मैं हर उस व्यक्ति को शोषक मानता हूं, जो उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा है।

स्वामी विवेकानंद के मन में समता के लिए वर्तमान समाजवाद की अवधारणा से भी ‍अधिक आग्रह था. उन्होंने कहा था- ‘समता का विचार सभी समाजों का आदर्श रहा है। संपूर्ण मानव जाति के विरुद्ध जन्म, जाति, लिंग भेद अथवा किसी भी आधार पर समता के विरुद्ध उठाया गया कोई भी कदम एक भयानक भूल है, और ऐसी किसी भी जाति, राष्ट्र या समाज का अस्ति‍त्व कायम नहीं रह सकता, जो इसके आदर्शों को स्वीकार नहीं कर लेता।’ स्वामी विवेकानंद ने आर्तनाद भरें स्वर में कहा था कि – ‘अज्ञान विषमता और आकांक्षा ही वे तीन बुराइयां हैं, जो मानवता के दु:खों की कारक हैं और इनमें से हर एक बुराई दूसरे की घनिष्ठ मित्र है।’

– प्रवीण गुगनानी

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