स्वाधीनता संग्राम के दौरान संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने 1930-31 में जंगल सत्याग्रह में भाग लिया था। उन दिनों संघ अपनी शिशु अवस्था में था। शाखाओं की संख्या बहुत कम थी। डॉ. हेडगेवारजी नहीं चाहते थे कि उनके जेल जाने से संघ कार्य में कोई बाधा आये। अतः वे अपने मित्र तथा कर्मठ कार्यकर्ता डॉ. परांजपे को सरसंघचालक की जिम्मेदारी दे कर गये।
डॉ. परांजपे ने इस दायित्व को पूर्ण निष्ठा से निभाया। उन्होंने इस दौरान शाखाओं को दुगना करने का लक्ष्य कार्यकर्ताओं के सम्मुख रखा। डॉ. हेडगेवार जब लौटे, तो उन्होंने यह दायित्व फिर से डॉ. हेडगेवार को सौंप दिया। डा. हेडगेवार के ध्यान में यह बात भी आयी कि इस दौरान उन्होंने अनेक नयी शाखाएं खोली हैं। वे डॉ. हेडगेवार से मिलने कई बार अकोला जेल में भी गये।
डॉ. परांजपे का परिवार मूलतः कोंकण क्षेत्र के आड़ा गांव का निवासी था। उनका जन्म 20 नवम्बर, 1877 को नागपुर में हुआ था। उनका बालपन वर्धा में बीता। वहां से कक्षा चार तक की अंग्रेजी शिक्षा पाकर वे नागपुर आ गये। नागपुर के प्रसिद्ध नीलसिटी हाइस्कूल में पढ़ने के बाद उन्होंने मुंबई के ग्रांट मैडिकल कॉलिज से एल.एम.एंड एस. की उपाधि ली तथा 1904 ई. से नागपुर में चिकित्सा कार्य प्रारम्भ कर दिया।
डॉ. परांजपे बालपन से ही अपने मित्रों को साथ लेकर व्यायाम करने के लिए प्रतिदिन अखाड़े जाते थे। डॉ. मुंजे के साथ वे लोकमान्य तिलक के समर्थक थे। 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में व्यवस्था करने वाली स्वयंसेवकों की टोली के प्रमुख डॉ. हेडगेवार तथा डॉ. परांजपे ही थे। इस नाते उनकी डॉ. हेडगेवार से अच्छी मित्रता हो गयी, जो आजीवन बनी रही।
नागपुर में बाजे-गाजे के साथ धार्मिक जुलूस निकालने की प्रथा थी; पर 1923 से मुसलमान मस्जिद के सामने से इनके निकलने पर आपत्ति करने लगे। अतः स्थानीय हिन्दू पांच-पांच की टोली में ढोल-मंजीरे के साथ वारकरी पद्धति से ‘दिण्डी’ भजन गाते हुए वहां से निकलने लगे। यह एक प्रकार का सत्याग्रह ही था। 11 नवम्बर, 1923 को श्रीमंत राजे लक्ष्मणराव भोंसले के इसमें शामिल होने से हिन्दुओं का उत्साह बढ़ गया।
इस घटना से हिन्दुओं को लगा कि हमारा भी कोई संगठन होना चाहिए। अतः नागपुर में श्रीमंत राजे लक्ष्मणराव भोंसले के नेतृत्व में हिन्दू महासभा की स्थापना हुई। डॉ. परांजपे के नेतृत्व में नागपुर कांग्रेस में लोकमान्य तिलक और हिन्दुत्व के समर्थक 16 युवकों का एक ‘राष्ट्रीय मंडल’ था। 1925 में जब संघ की स्थापना हुई, तो उसके बाद डॉ. परांजपे संघ के साथ एकाकार होकर डॉ. हेडगेवार के परम सहयोगी बन गये।
नागपुर में संघ के सभी कार्यक्रमों में वे गणवेश पहन कर शामिल होते थे। मोहिते संघस्थान पर लगे पहले संघ शिक्षा वर्ग की चिकित्सा व्यवस्था उन्होंने ही संभाली। आगे भी वे कई वर्ष तक इन वर्गों में चिकित्सा विभाग के प्रमुख रहे। जब भाग्यनगर (हैदराबाद) की स्वाधीनता के लिए सत्याग्रह हुआ, तो उसमें भी उन्होंने सक्रियता से भाग लिया।
संघ और सभी सामाजिक कामों में सक्रिय रहते हुए 22 फरवरी, 1958 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ।
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