15 अगस्त, 1947 का दिन स्वतन्त्रता के साथ अनेक समस्याएँ भी लेकर आया। एक ओर देश-विभाजन के कारण अपना सब कुछ लुटाकर पंजाब और बंगाल से हिन्दू आ रहे थे, तो दूसरी ओर कुछ लोग भारत में ही गृहयुद्ध का वातावरण उत्पन्न कर रहे थे। अंग्रेजों ने जाते हुए एक भारी षड्यन्त्र किया। वे सभी रियासतों को यह अधिकार दे गये कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में मिल सकते हैं या स्वतन्त्र भी रह सकते हैं।
इस सुविधा का लाभ उठाकर भारत की कुछ रियासतों ने पाकिस्तान में मिलने या स्वतन्त्र रहने का विचार बनाया। ऐसी सब रियासतों को सरदार पटेल ने साम, दाम, दण्ड और भेद का सहारा लेकर भारत में विलीन कर लिया; पर जम्मू-कश्मीर के विलीनीकरण का प्रश्न प्रधानमन्त्री नेहरू जी ने अपने हाथ में ले लिया; क्योंकि वे मूलतः कश्मीर के ही निवासी थे। इसके साथ ही उनके वहाँ के एक पाकिस्तान प्रेमी मुस्लिम नेता शेख अब्दुल्ला से कुछ अत्यन्त निजी व गहरे सम्बन्ध भी थे। वे उसे भी उपकृत करना चाहते थे।
जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह अनिर्णय की स्थिति में थे। वे जानते थे कि पाकिस्तान में मिलने का अर्थ है अपने राज्य के हिन्दुओं की जान और माल की भारी हानि; पर नेहरू जी से कटु सम्बन्धों के कारण वे भारत के साथ आने में भी हिचकिचा रहे थे। स्वतन्त्र रहना भी एक विकल्प था; लेकिन ऐसा होने पर यह निश्चित था कि धूर्त पाकिस्तान हमलाकर उसे हड़प लेगा। जिन्ना और शेख अब्दुल्ला इस षड्यन्त्र का तानाबाना बुन रहे थे।
कश्मीर घाटी के कुछ मुसलमानों को यदि छोड़ दें, तो पूरे राज्य की प्रजा भारत के साथ मिलना चाहती थी। इस राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने कश्मीर के अनेक सामाजिक व राजनीतिक संगठनों की ओर से प्रस्ताव पारित कर राजा को भेजे कि वे भारत से मिलने में देर न करें और विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दें। पंजाब के संघचालक बद्रीदास जी स्वयं राजा से मिले; पर राजा असमंजस में ही थे।
उधर पाकिस्तान तथा कश्मीर घाटी के मुसलमानों का साहस बढ़ रहा था। 14 अगस्त, 1947 को श्रीनगर के डाक तार कर्मियों ने डाकघर पर पाकिस्तानी झण्डा फहरा दिया। संघ के स्वयंसेवकों को यह सब षड्यन्त्र पता थे। उन्होंने रात में ही वह झण्डा उतार दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हजारों तिरंगे झण्डे तैयार कर पूरे नगर में बाँट रखे थे। 15 अगस्त की सुबह जब सब ओर तिरंगा फहराता दिखाई दिया, तो पाक समर्थकों के चेहरे उतर गये।
इधर सरदार पटेल बहुत चिन्तित थे। कश्मीर के विलय का काम नेहरू जी के जिम्मे था, इसलिए वे सीधे रूप से कुछ कर नहीं सकते थे। अन्ततः उन्होंने संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी से आग्रह किया कि वे कश्मीर जाकर राजा हरिसिंह से बात करें और उन्हें विलय के लिए तैयार करें। 17 अक्तूबर, 1947 को श्री गुरुजी विमान से श्रीनगर पहुँचे और महाराजा हरिसिंह से मिले। इस भेंट में राजा ने भारत में विलय के लिए अपनी स्वीकृति दे दी।
श्री गुरुजी दो दिन श्रीनगर में रुक कर 19 अक्तूबर को दिल्ली आ गये। यद्यपि इसके बाद भी कई बाधाएँ आयीं; पर अंततः 26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय स्वीकार कर लिया। इस बीच पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर घाटी के काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया। राजनेताओं की ढिलाई और मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण कश्मीर समस्या आज भी नासूर बनी है; पर जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए श्री गुरुजी का प्रयास सदा अविस्मरणीय रहेगा।