वि. स. के. पुणे- 19 दिसंबर – समस्या सामने आने पर पीठ नहीं फेरना, यह भगवद्गगीता का पहला पाठ है। गीता भले ही दुर्बोध लगे, लेकिन उसे जन-जन तक पहुंचाना होगा। अगर भगवद्गगीता घर-घर तक पहुंचे और उसका सच्चे अर्थों में आचरण हो तो भारत आज की तुलना में सौ गुना सामर्थ्य के साथ विश्वगुरु के रूप में सामने आ सकता है, यह प्रतिपादन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मंगलवार (18 दिसंबर) को किया।
पुणे स्थित गीताधर्म मंडल संस्था द्वारा प्रकाशित गीता दर्शन मासिक पत्रिका के स्वर्णोत्सव वर्षारंभ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में श्री. भागवत उद्बोधन कर रहे थे। इस अवसर पर संस्था के अध्यक्ष डॉ. मुकुंद दातार, कार्यवाह विनया मेंहदले, मुकुंद किडवेकर और मोरेश्वर जोशी आदी उपस्थित थे।
श्री भागवत ने कहा, “भारतीय व्यक्ति को जीवन किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए, इसका निर्देशन भगवद्गगीता करती है। इसलिए गीता का अध्ययन और आचरण महत्त्वपूर्ण है। भगवद्गगीता को सब तक पहुंचाने के प्रयास करना आवश्यक है। भारत को राष्ट्र के रूप में उभरने के लिए गीता के मार्ग पर चलना होगा। यह कार्य किसी भी व्यक्ति, संगठन या राजनीतिक दल का नहीं बल्कि समाज का है। समाज गीता का आचरण सच्चे अर्थों में जब करेगा तभी यह अपेक्षित राष्ट्र उभरकर आएगा।”
उन्होंने कहा, कि कर्तव्य उपस्थित होने पर पीठ नहीं फेरना है, यह गीता का पहला पाठ है। इसलिए भगवद्गीता कहती है, कि समस्या से मुंह नहीं मोड़ना है बल्कि समस्या पर विचार करते करते उसीसे राह निकलती है। अर्जुन को जो संभ्रम हुआ था वह भय से नहीं बल्कि विवेक के कारण हुआ था। सज्जन ही समाज के हित का विचार करते है इसलिए ऐसी समस्याएं अक्सर सज्जनों के सामने ही आती है। इसके विपरीत, दुर्जन केवल अपना स्वार्थ और तत्कालिक सुख देखते है, इसलिए उन्हें ऐसे प्रश्न नहीं आते। इसलिए वे जो चाहे करते है। उग्र व्यक्ति प्रसिद्ध भी जल्दी होते है। लेकिन भौतिक सुख का पीछा करते हुए अपने अंदर झांकने की बुद्धि हमारे पूर्वजों को हुई और अपने अंतर्मन का यह अन्वेषण पूर्ण रूप से केवल भारत में पूरा हुआ। जब यह सत्य सारे लोगों तक पहुंचाया गया तब उसे हिंदू या आर्य सभ्यता का नाम मिला। आपको किसी शब्द पर आपत्ति हो तो आप दूसरा शब्द प्रयोग कर सकते है, लेकिन बात वही रहेगी। यह अन्वेषण जो पूरा करते है उन्हें दुख की बाधा नहीं होती। जो सत्य की नींव पर खड़ा है उसे मृत्यु कि बाधा नहीं होती।
गीताधर्म शाश्वत धर्म है
उन्होंने कहा, कि उपभोग की बजाय त्याग और संयम तथा सात्विक सुख का मार्ग गीता बताती है। महाभारत से पूर्व और उसके बाद की सभी विचारधाराओं का सार संग्रह गीता में मिलता है। इतना ही नहीं बल्कि अन्यान्य पंथों की मान्यताओं का प्रतिबिंब भी उसमें मिलता है फिर चाहे उनकी पूजा पद्धति अलग ही क्यों न हो। यही गीता का सामर्थ्य है। गीतोक्त धर्म को हम गीताधर्म कहते है, लेकिन वास्तव में वह विश्वधर्म है और शाश्वत, सनातन धर्म है। विश्व की उत्पत्ति से लेकर वह अब तक चलता आया है। उसी के अनुसार विश्व की स्थिति, गति और लय जारी है। उन्होंने कहा, कि गीताके अध्याय २, १२, १५, १६, १७ आणि १८ प्रतिदिन पढ़ने चाहिए और उनका चिंतन भी किया जाना चाहिए। गीता किसी एक व्यक्ति द्वारा करने की साधना नहीं है। हमें जो भी करना है उसका उद्देश्य लोकसंग्रह है, यह गीता का एक और महत्वपूर्ण पाठ है। धर्म की व्याख्या करते हुए श्री. भागवत ने कहा, कि धर्म यानी संतुलित आचरण। अपने प्राणों की रक्षा के लिए भी धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। जो धर्म के लिए जीता है वह देश के लिए जीता है।
सही समय आना चाहिए
भगवद्गगीता के ‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्’ श्लोक की व्याख्या करते हुए श्री. भागवत ने कहा, कि व्यक्ति या संगठन को पूरी लगन से प्रयास करने चाहिए, लेकिन उसका फल मिलने के लिए सही समय आना चाहिए। आपात्काल के दौरान संघ पर पाबंदी थी। उस समय हम सत्याग्रह करते थे। अच्छे व्यक्ति और संगठन पर ऐसा समय क्यों आता है, क्या भगवान यह सब नहीं देखता ऐसे सवाल हम हमारे वरिष्ठ प्रचारक नाना मुले से करते थे। वे बताते थे, कि प्रयास मत छोड़ो। हमें सपने में भी नहीं लगा, कि आज की तरह संघ के दिन आएंगे। किसी ने हमसे कहा होता तो भी हम उसे नकार देते।
कोई व्यक्ति जो कुछ करता है उसके पीछे भी कईयों का योगदान होता है। हमारी आदतें भी दूसरों द्वारा हमें दी जाती है, यह कहते हुए श्री. भागवत ने कहा, कि जो मैं करता हूं वही अच्छा, मैंने यह किया, वह किया इस तरह का अहंकार लेकर क्या करना है? भगवद्गीता ने कहा है, कि हमें अपना काम करना चाहिए, फल की अपेक्षा नहीं करनी है। जो करना है वह कार्य से एकाकार होकर करना चाहिए लेकिन उसमें लिप्त नहीं होना है। हम संघ के कार्यकर्ताओं को कहते है, कि जो करोगे उसे समरस होकर करो, लेकिन उसमें उलझकर मत रहो। यही कारण है, कि हमारे कार्यकर्ता किसी भी चीज को स्वाभाविक रूप से करते है।
गीता धर्म मंडल के कार्याध्यक्ष प्रा. डॉ. मुकुंद दातार ने कहा, “गीता धर्म मंडल पुणे के सांस्कृतिक नभ में मृगशीर्ष नक्षत्र है। गीताधर्म यानि गीतोक्त धर्म भारत का राष्ट्रधर्म है. निष्काम कर्मयोग की युक्ति गीता ने दी है। गीता के कारण व्यक्ति को भगवद्भक्ति और समाज को श्रेयस मिलता है।”
गीतादर्शन पत्रिका की संपादिका विनया मेहेंदले ने पत्रिका की यात्रा का वर्णन किया। इस अवसर पर गीता धर्म मंडल द्वारा प्रकाशित स्मारिका अंक का विमोचन मा. मोहनजी भागवत के हाथों किया गया। साथ ही भगवद्गीता के प्रसार के लिए कार्य करने हेतु वसुधाताई पालंदे को सरस्वतीबाई आपटे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।