आज से पाँच सौ पचास वर्ष पूर्व संवत् 1526 को श्री गुरुनानकदेव जी का जन्म श्री मेहता कल्याणदास जी के घर, राय भोय की तलवण्डी में माता त्रिपता जी की कोख से हुआ था। उस समय भारतवर्ष की दुर्बल व विघटित अवस्था का लाभ उठाकर विदेशी आक्रांता इस राष्ट्र की धार्मिक व सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट कर रहे थे। श्री गुरु नानकदेव जी महाराज ने सत्य-ज्ञान, भक्ति एवं कर्म का मार्ग दिखाकर अध्यात्म के युगानुकूल आचरण से समाज के उत्थान व आत्मोद्धार का मार्ग प्रशस्त किया। जिसके फलस्वरूप भ्रमित हुए भारतीय समाज को एकात्मता एवं नवचैतन्य का संजीवन प्राप्त हुआ।
श्री गुरु नानकदेव जी महाराज ने समाज को मार्गदर्शन देने के लिए ‘संवाद’ का मार्ग अपनाया। उन्होंने अपने जीवन में सम्पूर्ण भारत सहित अनेक देशों की यात्राएँ कीं, जिनको ‘उदासी’ के नाम से जाना जाता है। प्रथम तीन यात्राएँ भारत की चारों दिशाओं में कीं तथा मुल्तान से लेकर श्रीलंका व लखपॅत (गुजरात) से लेकर कामरूप, ढाका सहित देश के सभी प्रमुख आध्यात्मिक केन्द्रों पर गए। चौथी उदासी उन्होंने भारत से बाहर की जिसमें उन्होंने बगदाद, ईरान, कंधार, दमिष्क, मिस्त्र, मक्का व मदीना तक की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में उन्होंने तत्कालीन धार्मिक नेतृत्व यथा सन्तों, सिद्धों, योगियों, सूफी फकीरों, जैन व बौद्ध सन्तों से संवाद किया। धार्मिकता के नाम पर प्रचलित अंधविश्वासों पर सैद्धांतिक व तार्किक दृष्टिकोण बताते हुए उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया।
श्री गुरुनानक देवजी ने मतान्ध बाबर के आक्रमण के विरूद्ध मुकाबला करने का आह्वान किया। उन्होंने स्वाभिमान से जीने की प्रेरणा देकर भारत की बलिदानी परम्परा को सुदृढ़ किया, जिससे आक्रान्ताओं के मार्ग सदैव के लिए बन्द हो गए। उन्होंने समाज को यह उपदेश दिया कि ‘किरत कर नाम जपु वंड छॅंक’ यानि पुरुषार्थ करो, प्रभु को स्मरण करो, बाँटकर खाओ।
हम सभी का दायित्व है कि श्री गुरु नानकदेव जी के सन्देश जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, का अपने जीवन में अनुसरण कर उन्हें सर्वदूर प्रसारित करें। स्वयंसेवकों सहित समस्त समाज को यह आह्वान है कि श्री गुरुनानकदेव जी के 550वें प्रकाशपर्व को परस्पर सहयोग व समन्वय के साथ सभी स्थानों व सभी स्तरों पर बढ़-चढ़कर मनाएँ।