संघ में ‘सुरुजी’ के नाम से प्रसिद्ध वरिष्ठ प्रचारक श्री के.सूर्यनारायण राव का जन्म 20 अगस्त, 1924 को कर्नाटक के मैसूर नगर में हुआ था। वैसे यह परिवार इसी राज्य के ग्राम कोरटगेरे (जिला तुमकूर) का मूल निवासी था। उनके पिता श्री कोरटगेरे कृष्णप्पा मैसूर संस्थान में सहायक सचिव थे। उन्होंने पूज्य गोंडवलेकर महाराज से तथा उनकी पत्नी श्रीमती सुंदरप्पा ने ब्रह्मानंदजी से दीक्षा ली थी। अतः धर्म के प्रति प्रेम सुरुजी को घर से ही प्राप्त हुआ।
इस परिवार का संघ से भी बहुत लगाव था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी मैसूर प्रवास के समय उनके घर में ही रुकते थे। ‘सुरुजी’ से छोटे चार भाई और एक बहिन भी थी। उनके एक भाई के.नरहरि भी प्रचारक थे; पर पिताजी की सेवानिवृत्ति के बाद घर की आर्थिक परेशानी को देखकर श्री गुरुजी ने स्वयं उन्हें गृहस्थ जीवन में जाने की अनुमति दी। ‘सुरुजी’ की बहिन रुक्मणि अक्का भी राष्ट्र सेविका समिति की अ.भा.सहकार्यवाहिका रहीं।
‘सुरुजी’ 1942 में बंगलुरू में स्वयंसेवक बने। बी.एस-सी. कर 1946 में उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद पुलिस ने उन्हें बहुत प्रताडि़त किया। उनके घर की तलाशी ली गयी। स्थानीय कांग्रेसी सांसद केशव अयंगर ने हजारों लोगों के साथ उनके घर पर हमला बोल दिया। दो महीने बाद वे जेल से छूटकर नागपुर गये और बालासाहब देवरस से मिले। फिर उनके कहने पर तुमकूर में एक आश्रम में रहकर वे भूमिगत गतिविधियां चलाते रहे। सितम्बर में वे फिर गिरफ्तार कर लिये गये। वहां से छह महीने बाद 10 मार्च, 1949 को वे रिहा हुए।
प्रचारक जीवन में ‘सुरुजी’ 1970 तक कर्नाटक में ही रहे। इसके बाद 1972 से 84 तक तमिलनाडु के प्रांत प्रचारक तथा 1989 तक दक्षिण भारत में क्षेत्रप्रचारक के नाते काम किया। इस दौरान उनका केन्द्र चेन्नई रहा। 1970 से 72 तक वे सहक्षेत्र प्रचारक भी रहे। तमिलनाडु में संघ को उत्तर भारतीय और ब्राह्मणों का संगठन माना जाता था। हिन्दी और हिन्दू का वहां भारी विरोध था; पर ‘सुरुजी’ वहां डटे रहे। संघ के शारीरिक विभाग और घोष में भी उनकी बहुत रुचि थी। स्वामी विवेकानंद के साहित्य का उन्हें गहरा अध्ययन था। विवेकानंद केन्द्र, कन्याकुमारी के मार्गदर्शक के नाते उन्होंने कई जटिल समस्याएं सुलझाईं।
‘सुरुजी’ सामाजिक क्षेत्र के प्रमुख लोगों से लगातार संपर्क बनाये रखते थे। साधु-संतों के प्रति भी उनके मन में बहुत आदर था। दक्षिण में विश्व हिन्दू परिषद की कार्य वृद्धि में उनका बड़ा योगदान रहा। 1969 में उडुपि में विश्व हिन्दू परिषद का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। इसमें संतों ने ‘हिन्दवः सोदराः सर्वेः, न हिन्दू पतितो भवेत। मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता’ का उद्घोष किया। यह सम्मेलन ‘सुरुजी’ के परिश्रम और संपर्कों से ही संभव हो सका था।
1989 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार की जन्मशती के अवसर पर संघ में ‘सेवा विभाग’ का गठन कर सेवा कार्य बढ़ाने पर जोर दिया गया। पूरे देश में ‘सेवा निधि’ एकत्र हुई। इससे सेवा कार्यों का विस्तार तथा पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का व्यापक तंत्र खड़ा हुआ। इन्हें संभालने के लिए पहले यादवराव जोशी और फिर 1990 में ‘सुरुजी’ को अखिल भारतीय सेवा प्रमुख बनाया गया। यह काम नया था; पर ‘सुरुजी’ ने पूरे देश में प्रवास कर इसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया। उन्होंने ‘एक शाखा, एक सेवा कार्य’ का मंत्र दिया। इसीलिए आज संघ की पहचान शाखा के साथ ही सेवा कार्यों से भी होती है।
‘सुरुजी’ संघ के चलते-फिरते अभिलेखागार थे। वयोवृद्ध होने पर भी वे तनाव से मुक्त तथा उत्साह से युक्त रहते थे। संघ का काम नये क्षेत्रों तथा नयी पीढ़ी में पहुंचते देखकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। इसी संतोष के साथ 91 वर्ष की दीर्घायु में 18 नवम्बर, 2016 को बंगलुरू में उनका निधन हुआ।
(पांचजन्य 4.12.16/हि.वि. 1.12.16)