रामकृष्ण परमहंस ने पश्चिमी बंगाल के हुगली ज़िले में कामारपुकुर नामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फ़रवरी, सन् 1836 ई. में जन्म लिया। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। रामकृष्ण परमहंस ने जगन्माता की पुकार के उत्तर में गाँव के वंशपरंपरागत गृह का परित्याग कर दिया और सत्रह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ ठहर गए, और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया।
रामकृष्ण परमहंस भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। माँ के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। अंत में उनकी प्रार्थना सुन ली गई और जगन्माता के दर्शन से वे कृतकार्य हुए। किंतु यह सफलता उनके लिए केवल संकेत मात्र थी। परमहंस जी असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुँच गए जहाँ से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे।
गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था। उनकी बालिका पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आयीं तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- “ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?” परमहंस जी कहा करते थे- “जो माँ जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।” ये विचार उनके अपनी पत्नी माँ शारदामणि के प्रति थे।
एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा सन्न्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया। परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है, किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते। परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी कृतार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान भी प्रभावित थे। जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्राय: समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ। जीवन के अन्तिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा की। उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील सन्न्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। उनकी जगन्माता की निष्कपट प्रार्थना के फलस्वरूप ऐसे सैकड़ों गृहस्थ भक्त, जो बड़े ही सरल थे, उनके चारों ओर समूहों में एकत्रित हो जाते थे और उनके उपदेशामृत से अपनी आध्यात्मिक पिपासा शांत करते थे।
आचार्य के जीवन के अंतिम वर्षों में पवित्र आत्माओं का प्रतिभाशील मंडल, जिसके नेता नरेंद्रनाथ दत्त (बाद में स्वामी विवेकानंद) थे, रंगमंच पर अवतरित हुआ। आचार्य ने चुने हुए कुछ लोगों को अपना घनिष्ठ साथी बनाया, त्याग एवं सेवा के उच्च आदर्शों के अनुसार उनके जीवन को मोड़ा और पृथ्वी पर अपने संदेश की पूर्ति के निमित्त उन्हें एक आध्यामिक बंधुत्व में बदला। महान आचार्य के ये दिव्य संदेशवाहक कीर्तिस्तंभ को साहस के साथ पकड़े रहे और उन्होंने मानव जगत की सेवा में पूर्ण रूप से अपने को न्योछावर कर दिया।
आचार्य परमहंस जी अधिक दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सके। परमहंस जी को 1885 के मध्य में उन्हें गले के कष्ट के चिह्न दिखलाई दिए। शीघ्र ही इसने गंभीर रूप धारण किया जिससे वे मुक्त न हो सके। 15 अगस्त, सन् 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया। सेवाग्राम के संत के शब्दों में ‘उनका जीवन धर्म को व्यवहार क्षेत्र में उतारकर मूर्तस्वरूप देने के प्रयास की एक अमरगाथा है।’
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